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बॉम्बे HC ने पनवेल के पूर्व नगरसेवक के भाई के खिलाफ एक्सटर्नमेंट  के आदेश को रद्द कर दिया

बॉम्बे हाईकोर्ट ने नवी मुंबई जोन-2 के पुलिस उपायुक्त के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें उन्होंने एक पूर्व नगर सेवक के भाई को निर्वासन आदेश दिया था. अदालत ने कहा कि अधिकारी नीलेश बहिरे को निर्वासन करने के फैसला करते हुए अपने दिमाग का इस्तेमाल करने में विफल रहे.

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बॉम्बे हाईकोर्ट. (फाइल फोटो)
बॉम्बे हाईकोर्ट. (फाइल फोटो)

बॉम्बे हाईकोर्ट ने उस निर्वासन के आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें पनवेल के एक व्यवसायी नीलेश बहिरे को रायगढ़ और नवी मुंबई से एक साल के लिए बाहर रहने का निर्देश दिया था. नीलेश बहिरे पनवेल के पूर्व नगरसेवक सुनील बहिरे के भाई हैं जो पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी (PWT) से हैं.

बहिरे के खिलाफ निर्वासन की ये कार्यवाही सिटी पुलिस स्टेशन में दर्ज दो आपराधिक मामलों पर आधारित थी. इसके अलावा दो गुप्त गवाहों ने आरोप लगाया था कि बहिरे स्थानीय निवासियों को डराने, ठेकेदारों को धमकाने और ताकागांव में डर का माहौल बनाना शामिल था. इन आरोपों में 2023 की घटनाओं का हवाला दिया गया था.

कोंकण डिवीजन ने खारिज की अपील

इन आरोपों के आधार पर नवी मुंबई जोन-2 के पुलिस उपायुक्त ने 16 जुलाई, 2024 को एक निर्वासन आदेश जारी किया था और बाद में 11 नवंबर, 2024 को कोंकण डिवीजन के संभागीय आयुक्त ने उनकी अपील को खारिज कर दिया. इसके बाद बहिरे ने अपने वकील गणेश गुप्ता के जरिए बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.

वकील ने तर्क दिया कि बहिरे के खिलाफ दर्ज FIR व्यक्तिगत विवाद का कारण थीं और उनका स्थानीय लोगों से कोई संबंध नहीं था. स्थानीय लोगों द्वारा दिए गए गवाहों के बयान राजनीतिक दबाव में झूठे थे और बहिरे आदतन अपराधी नहीं है.

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अभियोजन पक्ष का दावा

वहीं, अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि बहिरे कथित तौर पर लोगों को धमकाने, गाली देने और बिना किसी वजह मारपीट करने, बिल्डरों और अन्य ठेकेदारों के साथ विवाद करने जैसे अन्य आपराधिक कृत्यों में शामिल था. 

अभियोजन पक्ष ने दावा किया, "याचिकाकर्ता की इन गतिविधियों ने स्थानीय लोगों के मन में भारी खतरा और आतंक पैदा कर दिया था, जिसने उन्हें बहिरे के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करने के लिए आगे आने से रोक दिया था. इसकी पुष्टि गवाहों के बयानों से होती है."

अन्य गवाहों से नहीं की पूछताछ: HC

मामले के तथ्यों पर गौर करने के बाद न्यायमूर्ति श्याम चांडक ने कहा कि पहला अपराध दर्ज होने और निर्वासन आदेश जारी होने के बीच 15 महीने से अधिक की देरी हुई थी. साथ ही गवाहों के बयानों में घटनाओं की तारीखों, समय और स्थानों के संबंध में विशिष्टता का अभाव था. इसके अलावा इन आरोपों की पुष्टि के लिए अधिकारियों द्वारा अन्य गवाहों से पूछताछ नहीं की गई.

अदालत ने पाया कि बाहरी प्राधिकारी इस बात पर विचार करने में विफल रहे कि बहिरे को उसके खिलाफ दर्ज दोनों एफआईआर में जमानत दी गई थी. पीठ ने यह भी माना कि यह प्रतिबंध उस भौगोलिक सीमा से परे चला गया जहां कथित अपराध हुए थे, जिसमें बिना किसी औचित्य के क्षेत्र भी शामिल थे. 

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पीठ ने कहा कि एक साल की कारावास की अवधि मनमानी प्रतीत होती है, इसकी अवधि और बहिरे की आजीविका और पारिवारिक जीवन पर संभावित प्रतिकूल प्रभाव के बारे में कोई तर्क नहीं दिया गया.

न्यायमूर्ति चांडक ने निर्वासन के आदेश को रद्द करते हुए फैसला सुनाया कि अधिकारी बहिरे को निर्वासन करने के फैसला करते हुए अपने दिमाग का इस्तेमाल करने में विफल रहे.

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