झारखंड का आदिवासी समुदाय अपने अलग धर्म की मांग को लेकर एक बार फिर मुखर है. झारखंड दिशोम पार्टी के नेतृत्व में आदिवासी समुदाय के लोगों ने मंगलवार को सरना धर्म कोड लागू करने की मांग की. हालांकि, राज्य की सत्ता में आते ही हेमंत सोरेन सरकार ने विधानसभा में 'सरना आदिवासी धर्म कोड बिल' सर्वसम्मति से पास कर केंद्र सरकार को भेजा था. झारखंड सरकार ने कहा था कि इसके जरिए आदिवासियों की संस्कृति और धार्मिक आजादी की रक्षा की जा सकेगी. लेकिन, केंद्र सरकार ने अभी तक इसे मंजूरी नहीं दी है.
झारखंड दिशोम पार्टी के प्रमुख सालखन सोरेन का कहना है कि साल 2021 में होने वाली जनगणना में सरना धर्म कोड को लागू किया जाए. इससे झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के आदिवासियों को एक अलग धर्म की पहचान मिल पाएगी. झारखंड के सरना आदिवासी इस मांग को लेकर सालों से संघर्ष कर रहे हैं. वो मांग कर रहे हैं कि जनगणना में उनके आगे हिंदू न लिखा जाए. हिंदू धर्म से उनका कोई लेना-देना नहीं है और उनका धर्म सरना है. इस समुदाय के लोग छोटानागपुर क्षेत्र में रहते हैं. हेमंत सोरेन खुद सरना समुदाय से आते हैं.
हेमंत सरकार की सरना धर्म को हरी झंडी
दरअसल, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव झारखंड विधानसभा से पारित कर केंद्र के पाले में डाल दिया है. अब इसे अमलीजामा पहनाने और इसे लागू करने का काम केंद्र सरकार के पास है. केंद्र की मंजूरी के बाद ही सरना धर्म कोड को चुनने का अधिकार जनगणना में आदिवासियों को मिल सकेगा. बीजेपी ने झारखंड विधानसभा में इस बिल का समर्थन किया था.
झारखंड सरकार का प्रस्ताव
झारखंड सरकार ने केंद्र को यह प्रस्ताव भेजते वक्त लिखा था कि साल 1931 में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी का 38.3 प्रतिशत थी, जो साल 2011 की जनगणना के वक्त घटकर 26.02 प्रतिशत रह गई. आदिवासियों की इस घटती संख्या की एक वजह उनके लिए अलग धर्म कोड का नहीं होना है. लिहाजा, केंद्र सरकार को सरना आदिवासी धर्म कोड बिल पर विचार करना चाहिए. 2021 में होने वाली जनगणना से पहले सातवें नंबर के कॉलम में अलग सरना आदिवासी धर्म कोड मिलना चाहिए.
अलग धर्म के खिलाफ संघ
बीजेपी का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यह बात कहता रहा है कि देश के आदिवासी समुदाय हिंदू धर्म का हिस्सा हैं. आरएसएस के सह सरकार्यवाह डॉक्टर कृष्णगोपाल ने बयान दिया था कि सरना कोई धर्म नहीं है. आदिवासी भी हिंदू धर्म कोड के अधीन हैं. इसलिए उनके लिए अलग से धर्म कोड की कोई जरूरत नहीं है. इस बयान के बाद रांची में आदिवासी समुदाय ने काफी विरोध किया था. इसके बाद से भी बीजेपी और संघ ने इस पर कोई बयान नहीं दिया, लेकिन अब एक बार फिर से सरना धर्म की मांग तेज हो रही है. हेमंत सोरेन सरकार ने इसे केंद्र के पाले में डाल दिया है. देखना है कि केंद्र सरकार इसे अमलीजामा पहनाती है कि नहीं?
सरना धर्म क्या है?
झारखंड, बंगाल, ओडिशा और बिहार में आदिवासी समुदाय का बड़ा तबका अपने आपको सरना धर्म के अनुयायी के तौर पर मानता है. वो प्रकृति की प्रार्थना करते हैं और उनका विश्वास 'जल, जंगल, ज़मीन' है. ये वन क्षेत्रों की रक्षा करने में विश्वास करते हुए पेड़ों और पहाड़ियों की प्रार्थना करते हैं, झारखंड में 32 जनजातीय समूह हैं, जिनमें से आठ विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों से हैं. इनमें से कुछ समुदाय हिंदू धर्म का पालन करते हैं, कुछ ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गए हैं. माना जाता है कि आदिवासी समुदाय के ईसाई समुदाय में परिवर्तित होने के बाद वो एसटी आरक्षण से वंचित हो जाते हैं. ऐसे में वो सरना धर्म की मांग करके अपने आपको आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं होने देना चाहते हैं.
सरना धर्म का इतिहास
ब्रिटिश शासन काल में साल 1871 से लेकर आजादी के बाद 1951 तक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की व्यवस्था रही है. तब अलग-अलग जनगणना के वक्त इन्हें अलग-अलग नामों से संबोधित किया गया. आजादी के बाद इन्हें शिड्यूल ट्राइब्स (एसटी) कहा गया. इस संबोधन को लेकर लोगों की अलग-अलग राय थी. इस कारण विवाद हुआ. तभी से आदिवासियों के लिए धर्म का विशेष कॉलम ख़त्म कर दिया गया. 1960 के दशक में इसे बदल दिया गया.