सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (CJI) सूर्यकांत ने न्यायिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक ढांचे की 'स्वदेशी' व्याख्या की. उन्होंने लोकतंत्र की तुलना एक पारंपरिक चारपाई से की, जहां मजबूत लकड़ी का फ्रेम, टिकाऊ पायों और लचीली लेकिन मजबूत रस्सियों के सहारे एक ऐसा ढांचा तैयार करता है जो 'कड़ा भी है और लचीला भी.'
CJI के मुताबिक, यही संतुलन भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका की असली शक्ति है. CJI सूर्यकांत हरियाणा में ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में आयोजित इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन इंडिपेंडेंस ऑफ जुडिशियरी के उद्घाटन समारोह में बोल रहे थे.
सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों ने दोहराई ऐतिहासिक बहस
इस कार्यक्रम में एक अनोखा सत्र आयोजित किया गया, जिसमें CJI सूर्यकांत की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के 13 जज केशवानंद भारती केस की ऐतिहासिक बहस का री-एनैक्टमेंट करने के लिए एक साथ मंच पर आए. यूनिवर्सिटी के अत्याधुनिक मूट कोर्ट में हुए इस सत्र में उस बहस को पुनर्जीवित किया गया जिसने भारतीय संविधान में ‘बेसिक स्ट्रक्चर’ का सिद्धांत स्थापित किया था.
कार्यक्रम 'न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन: अधिकारों, संस्थानों और नागरिकों पर तुलनात्मक दृष्टिकोण' के उद्घाटन के लिए आयोजित किया गया था.
कौन-कौन बने वकील?
इस रिक्रिएशन में सुप्रीम कोर्ट के नामी वरिष्ठ वकीलों और संवैधानिक पदाधिकारियों ने भूमिकाएं निभाईं. इनमें अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने भारत सरकार और केरल सरकार की तरफ से तर्क रखे. वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केशवानंद भारती और अन्य याचिकाकर्ताओं का पक्ष रखा. इसके अलावा कार्यक्रम में कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल, बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मनन मिश्रा, वरिष्ठ वकील, हाई कोर्ट जज, ब्राजील के मुख्य न्यायाधीश, नेपाल सुप्रीम कोर्ट के एक जज और एक ब्रिटिश सांसद भी विशेष अतिथि के रूप में मौजूद थे.
'भारत तब '23 साल का लोकतंत्र' था, पर निर्णय था परिपक्व'
CJI सूर्यकांत ने कहा कि केशवानंद केस के दौरान भारत 'संवैधानिक जीवन के सिर्फ 23वें वर्ष में था. एक ऐसा राष्ट्र जो अपने संस्थानों को परिभाषित कर रहा था, आदर्शवाद और शक्ति के बीच संतुलन साधना सीख रहा था.' उन्होंने कहा कि असल सवाल एक सभ्यतागत प्रश्न था- क्या संसद का बड़ा बहुमत संविधान के नैतिक DNA को फिर से लिख सकता है?
CJI ने अमेरिका और ब्रिटेन में भी समय-समय पर 'एक्जीक्यूटिव द्वारा न्यायिक स्वतंत्रता की सीमाएं परखने' की बहस का जिक्र किया. उन्होंने कहा- 'केशवानंद केस की 13 जजों की बेंच ने संवैधानिक परिपक्वता और नैतिकता दोनों का रास्ता चुना. उन्होंने संविधान को सुविधा के हिसाब से मोड़ने से इनकार कर दिया. इसी एक संयम ने दिखाया कि लोकतंत्र को बुद्धिमान बनने के लिए बूढ़ा होने की जरूरत नहीं होती.
'न्यायपालिका की स्वतंत्रता नागरिक का अधिकार'
सुप्रीम कोर्ट की एकमात्र महिला जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने कार्यक्रम में कहा कि केशवानंद फैसला न्यायपालिका की स्वतंत्रता के दो केंद्रीय पहलुओं को उजागर करता है. पहला- निर्णय लेने में स्वतंत्रता और दूसरा- संस्थागत स्वतंत्रता. उन्होंने कहा, संविधान के निर्माताओं ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को जजों का विशेषाधिकार नहीं, बल्कि नागरिकों का अधिकार माना. इसी अधिकार की निरंतर रक्षा कानून के शासन की रक्षा सुनिश्चित करती है.
जस्टिस नागरत्ना ने यह भी कहा कि न्यायाधीशों का आचरण बेंच पर भी और बेंच से बाहर भी न्यायपालिका की छवि को तय करता है. उनका कहना था कि जज का आचरण सिर्फ कानूनसम्मत नहीं, बल्कि उससे ऊपर होना चाहिए. स्वतंत्र विचार और स्वतंत्र आचरण सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, जनता की नजर में संदेह से परे भी दिखना चाहिए. न्यायपालिका की स्वतंत्रता हमारे निजी आचरण में संयम से सुरक्षित रहती है, न कि सिर्फ फैसलों या सार्वजनिक बचाव से.
'सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक न्याय... तीनों का संतुलन जरूरी'
कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा कि देश की आर्थिक मजबूती तभी सुनिश्चित होती है जब सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय तीनों मिलकर एक त्रिमूर्ति की तरह संतुलित हों.