ज्यादातर देश ऐसे हैं, जो अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिकी खुफिया तंत्र पर भरोसा करते हैं. वहीं खुद वाइट हाउस कई बार अपने ही इंटेलिजेंस से अलग बातें कर डालता है. मिसाल के तौर पर हाल में ईरान पर हुई एयरस्ट्राइक को लेकर ट्रंप ने अलग बात कहीं, और पेंटागन ने अलग. तो क्या वाइट हाउस के पास खुफिया सूचनाओं का कोई अलग जरिया भी है? क्यों एक ही देश में लीडर और खुफिया विभाग के बीच तनातनी हो रही है?
क्या है ईरान का मामला
21 जून को अमेरिका ने ईरान पर एयरस्ट्राइक करते हुए तीन अहम न्यूक्लियर ठिकानों पर मिसाइलें और बंकर बस्टर बम गिराए. ट्रंप ने हमलों की तारीफ करते हुए कहा कि ईरान की न्यूक्लियर फैसिलिटीज पूरी तरह तबाह हो चुकी. अब इस दावे पर सवाल खड़े हो गए हैं. पेंटागन की एक यूनिट डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (DIA) की रिपोर्ट में कहा गया कि हालात उतने भी खराब नहीं, जितना ट्रंप ने दावा किया था. इधर ट्रंप और वाइट हाउस अधिकारियों ने इंटेलिजेंस को ही गलत कह दिया.
वाइट हाउस की प्रेस सेक्रेटरी कैरोलिन लेविट ने कहा कि पेंटाइन की रिपोर्ट क्लासिफाइड थी. उसे लीक करना और झूठे दावे करना राष्ट्रपति और मिलिट्री को नीचा दिखाने की साजिश है. बुधवार को नाटो बैठक में हिस्सा लेने पहुंचे ट्रंप ने भी पेंटागन की बात को खारिज कर दिया.

ट्रंप ही नहीं, पहले भी प्रेसिडेंट और खुफिया एजेंसियां टकराती रहीं. लेकिन इसके लिए पहले ये समझ लें कि यूएस में सब कुछ पेंटागन के अधीन नहीं आता, बल्कि इंटेलिजेंस कई हिस्सों में बंटा हुआ है.
कौन, किसने अधीन करता है काम
डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (DIA), जिसने अभी ईरान पर दावे किए, वो पेंटागन के साथ काम करती है. इसका काम है विदेशी सेनाओं की ताकत पर सूचना जुटाना. और जंग के हालात बनें तो खुफिया बातें निकालना.
CIA जिसका नाम अक्सर आता है, वो प्रेसिडेंट और नेशनल इंटेलिजेंस डायरेक्टर के साथ काम करती है. ये पेंटागन का हिस्सा नहीं, बल्कि इंडिपेंडेंट एजेंसी है.
NSA तकनीकी तौर पर पेंटागन के साथ है, लेकिन इसका ऑपरेशन स्वतंत्र तरीके से होता है. यह कम्युनिकेशन और साइबर सिक्योरिटी पर काम करती है.
FBI कानून मंत्रालय के तहत आने वाली संस्था है. यह देश के अंदर आतंकवाद, जासूसी, साइबर क्राइम और दूसरे तरह के ऑर्गेनाइज्ड क्राइम पर काम करती है और डोमेस्टिक एजेंसी है.
कब-कब राष्ट्रपति और एजेंसी हुए आमने-सामने
9/11 हमलों के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने दावा किया कि इराक के पास वेपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन हैं. यानी बायो, केमिकल या न्यूक्लियर हथियार, जिनसे भारी तबाही मच सकती है. इसी बात को आधार बनाकर यूएस ने साल 2003 में इराक पर हमला किया. बुश प्रशासन और भी कई दावे कर रहा थआ, जैसे इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के अलकायदा से रिश्ते हैं और वे अमेरिका को खत्म करना चाहते हैं.

इधर खुफिया एजेंसियों का कहना था कि हां, इराक में कुछ संदिग्ध तो है, लेकिन पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनके पास मास डिस्ट्रक्शन के हथियार हैं. फिर भी वाइट हाउस इन अपुष्ट रिपोर्ट्स को ही पक्का कहता रहा और देश पर हमला कर दिया. बाद में ऐसे वेपन न मिलने पर राष्ट्रपति समेत इंटेलिजेंस की साख पर भी असर हुआ. CIA के तत्कालीन डायरेक्टर जॉर्ज टेनेट को इस्तीफा देना पड़ गया. बाद में एक जांच कमेटी बनी, जिसने माना कि इंटेलिजेंस की शुरुआती रिपोर्ट को ही राष्ट्रपति ने हमले का आधार बना दिया. हालांकि प्रेसिडेंट पर कोई एक्शन नहीं हुआ.
क्यों होता है टकराव
- कई बार वाइट हाउस सैकड़ों या हजारों पन्नों के दस्तावेज से केवल वही बात चुनता है, जो उसकी पॉलिसी या विचारधारा को सूट करे. इसी चेरी पिकिंग के चलते मुश्किल आती है.
- राष्ट्रपति और प्रशासन चाहते हैं कि खुफिया जानकारियां उनकी नीति की तरफ दिखें. वहीं एजेंसियां वहीं रिपोर्ट देती हैं, जो उन्हें ठीक लगे.
- राष्ट्रपति की पॉलिटिकल जरूरतों और इंटेलिजेंस की अल्फिल्टर्ड रिपोर्ट में क्लैश होता रहता है.
क्या वाइट हाउस के पास अलग एजेंसी भी
एक तरह से देखें तो हां. कई एजेंसियां सीधे वाइट हाउस को रिपोर्ट करती हैं. खासकर राष्ट्रपति को रोज सुबह प्रेसिडेंशियल ब्रीफ मिलती है, जिसमें गोपनीय सूचनाएं होती हैं. इसके अलावा लीडर के पास अपना नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर, थिंक टैंक और दूसरे भरोसेमंद लोग होते हैं, जो खुफिया सूचनाएं दे सकते हैं. हालांकि ये गैर-आधिकारिक चैनल हैं. इनपर भरोसा करते हुए भी राष्ट्रपति कई बार फैसले ले लेते हैं जो बाकी एजेंसियों को नाराज कर देता है.