scorecardresearch
 

डोसा से हारता समोसा… क्यों अभेद्य है तमिल दुर्ग जहां थम जाते हैं उत्तर के सारे रथ और महारथी?

तमिलनाडु अभेद्य है. लगभग २५०० वर्षों से. एक सांस्कृतिक दुर्ग की तरह खड़ा. अस्तित्व की हुंकार भरता और उत्तर के हर तीर को अपने समुद्र का नमक चटाता. आख़िर यह कौन सी रणनीति है, श्रेष्ठताबोध है या पहचान को लेकर अतिशय सचेत होना जो सम्राटों को, आज़ादी के रहनुमाओं को और राष्ट्रवाद के ध्वजवाहकों को भी अपने यहां अतिथि से ज्यादा कुछ नहीं होने देता.

Advertisement
X
तमिलनाडु उत्तर भारत से अलग सभ्यता, संस्कृति और पहचान रखता है
तमिलनाडु उत्तर भारत से अलग सभ्यता, संस्कृति और पहचान रखता है

तमिलनाडु... भारत के दक्षिणी सिरे पर फैले इस भूभाग को राजनीतिक नजरिए से देखें तो यह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की मरुभूमि है. 1967 में उसने कांग्रेस को उसके शिखर काल में खाक में दबा दिया. आज अपने शिखर पर खड़ी बीजेपी भी भले ही संभावनाओं से लबालब भरी नजर आ रही है, लेकिन उसके हिस्से में भी अब तक किसी तरह की ठोस राजनीतिक उपलब्धि नहीं आ सकी है. मोदी युग के आने से पहले भी बीजेपी तमिलनाडु में कभी गंभीर राजनीतिक खिलाड़ी नहीं रही और साल 2014 के बाद से जो भी चुनाव हुए, (2019, 2021 और 2024) उनमें भी हार का ही मुंह देखते हुए हाशिए पर ही रही है. इस नजरिए से तमिलनाडु न केवल राजनीतिक पंडितों को, बल्कि आम लोगों के लिए भी चौंकाने वाला राज्य बन जाता है. 

सवाल है कि, आखिर क्या वजह है कि समकालीन राजनीति में राष्ट्रवाद से सराबोर भारत के भीतर यह राज्य क्षेत्रीयता का सबसे मजबूत किला बना हुआ है? अपने सांस्कृतिक गर्व के लिए प्रसिद्ध दक्षिण के अन्य राज्यों से अलग, तमिलनाडु क्यों राष्ट्रीय दलों के प्रति एक स्थायी राजनीतिक विरोध की नीति जैसा व्यवहार करता दिखाता है? जबकि समान सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बावजूद अन्य दक्षिणी राज्यों में राष्ट्रीय दलों के प्रति ऐसी वैचारिक शत्रुता स्टेट पॉलिसी का रूप नहीं लेती.

तो फिर तमिलनाडु को अलग और विशिष्ट क्या बनाता है? क्या यह सच है कि एक और एकीकृत राष्ट्रीय पहचान इस राज्य की तमिऴकम पहचान और उसके प्राचीन गौरव को दबाता है, या दबाने की कोशिश करता है? या फिर राज्य की द्रविड़ पार्टियां जानबूझकर अलगाव और पीड़ाबोध की राजनीति को पालती-पोषती आई हैं, ताकि उनका राजनीतिक अस्तित्व बना रहे? द्रविड़ राजनीति ने ऐसा क्या दिया है कि राज्य किसी अन्य मॉडल को आजमाने तक को तैयार नहीं दिखता? तमिल समाज का यह सामूहिक असंतोष और संरक्षणवाद आखिर है क्या? क्या यह जायज़ है? और भारत का बाकी हिस्सा इसे समझ क्यों नहीं पाता?

Advertisement

जब 2026 का एक और चुनावी समर सामने खड़ा है, तब ऐसे तमाम सवाल हैं जिन पर गंभीरता से विचार की जरूरत है. इसी उद्देश्य से शुरू हो रही इस नई सीरीज में चेन्नई के वरिष्ठ पत्रकार 'टीआर जवाहर' इन सवालों की पड़ताल करेंगे. वे इतिहास और विरासत, कला और पुरातत्व, भाषा और साहित्य, सिनेमा और संस्कृति, राज्यों और विजय-अभियानों, जातियों और समुदायों, धर्म और नस्ल तथा, निश्चित रूप से, राजनीति और सत्ता—इन सभी पहलुओं को खंगालेंगे, ताकि राज्य की एक ऐसी समग्र तस्वीर उभर सके, जो आने वाले समय में होने वाली हर राजनीतिक घटना को समझने में मदद कर सके.

Time Tide And Tamil

तमिलनाडु... विंन्ध्य पर्वत के पार, भारत के दक्षिणी सिरे का यह इलाका मुख्य धारा की इंडियन पॉलिटिक्स से अलग-थलग ही रहा है. विंध्य के ऊपर का भारत और यह दक्षिणी भूमि, दोनों एक ही देश में होकर भी लंबे समय से अलग-अलग रास्तों पर चलते रहे हैं.

जिसे आम भाषा में ‘उत्तर–दक्षिण विभाजन’ कहा जाता है. लेकिन असल में यह उस प्राचीन दरार और गहरे फासले का केवल एक शालीन सा नाम भर है, जिसकी खाई को कभी भरा नहीं जा सका. यह दूरी केवल राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि भूगोल, भाषा, संस्कृति, सोच और सामाजिक व्यवहार तक फैली हुई है.

Advertisement

यह अलगाव हजारों वर्षों पुराना है और आज भी हर दिन, हर बहस और हर चुनाव में दिखाई देता है. शायद इसी कारण तमिलनाडु को समझना आसान नहीं है. यह एक ऐसी सभ्यता है, जो लगातार खुद को परिभाषित किए जाने से इनकार करती है और हर तय खांचे को तोड़ देती है. अक्सर कहा जाता है कि कर्क रेखा भारत को उत्तर और दक्षिण में बांटती है. लेकिन यह बात बहुत सतही है.

असली विभाजन कहीं ज्यादा गहरा और ठोस है. दक्कन का विशाल पठार, उसकी चट्टानी जमीन, घने जंगल, पहाड़ और नर्मदा व गोदावरी जैसी नदियां प्राकृतिक दीवारों की तरह काम करती हैं. इन भौगोलिक सीमाओं ने केवल रास्ते नहीं रोके, बल्कि लोगों की सोच और जिंदगी के नजरिए को भी अलग दिशा दी.

इन भौतिक दीवारों के साथ-साथ एक मानसिक दूरी भी बनी. उत्तर और दक्षिण ने इतिहास में अलग अनुभव जिए, अलग संघर्ष देखे और अलग तरीके से सत्ता, धर्म और समाज को समझा. यही वजह है कि दोनों के बीच अक्सर अविश्वास, असहजता और गलतफहमियां बनी रहीं.

और इसी में पनपता है एक श्रेष्ठताबोध. अलग पहचान का बोध. अलग होने का बोध. संस्कृति और समाज के अलग होने का बोध. इसी बोध की मिट्टी में धान के साथ उपज आता है संरक्षणवाद जो सुग्राह्यता की जगह पहचान की पताका उठाकर बस ख़ुद को अलग और सुरक्षित रखने की ज़िद पर अड़ जाता है. श्रेष्ठता की ज़िद गहरी होती है. वो टूटती नहीं. बांधे रखती है. तमिलनाडु भी अपनी पहचान में बंधा है जो ख़ुद को श्रेष्ठ, प्राचीन, सभ्य और संपूर्ण मानकर बाकी को अपने तटों पर नाव नहीं बांधने देता.

Advertisement

क्या कहता है इतिहास?

इतिहास इस दूरी की साफ गवाही देता है. चौथी सदी ईसा-पूर्व में मौर्य साम्राज्य ने उत्तर भारत का लगभग पूरा इलाका अपने अधीन कर लिया था. चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार और अशोक की सेनाएं अजेय मानी जाती थीं. लेकिन यही विशाल साम्राज्य तमिल भूमि में आकर रुक गया. चोल, पांड्य और चेर राजाओं ने मिलकर मौर्य विस्तार को रोक दिया. यह कोई छोटी घटना नहीं थी. जिस साम्राज्य के आगे पूरा उत्तर भारत झुक गया, उसे दक्षिण में ठहरना पड़ा.

इसके बाद भी उत्तर भारत के किसी बड़े राजवंश ने तमिलनाडु पर स्थायी शासन नहीं किया. गुप्त, हर्ष, या बाद के अन्य साम्राज्य यहां तक अपनी राजनीतिक पकड़ नहीं बना सके. जो बाहरी शासन आया भी, वह उत्तर से नहीं, बल्कि दक्कन से आया, जैसे विजयनगर साम्राज्य या मराठा शक्ति. मुस्लिम आक्रमण जरूर हुए, लेकिन वे अधिकतर लूट-पाट तक सीमित रहे. यहां लंबे समय तक स्थायी शासन स्थापित करने की कोशिश बहुत कम हुई. बाद में यूरोपीय ताकतें आईं और ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि भारत का उत्तर कभी भी तमिलनाडु पर सीधे और निर्णायक रूप से हावी नहीं रहा.

इस ऐतिहासिक अनुभव ने तमिल समाज के भीतर एक मजबूत आत्मबोध पैदा किया. यह कुछ ऐसा है, जिसे 'हम अलग हैं, हम अपने दम पर खड़े हैं, और हमें आसानी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता' की भावना के साथ देखा जा सकता है.

Advertisement

Time Tide And Tamil

तमिल पहचान और बाहरी विचार

हालांकि राजनीति और सत्ता के स्तर पर दूरी रही, धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में ऐसा नहीं था. जैन धर्म और बौद्ध धर्म के भिक्षु उत्तर से दक्षिण आए. वैदिक परंपराएं और संस्कृत भाषा भी यहां पहुंचीं. मंदिर बने, दर्शन फैले और धार्मिक विचार आम लोगों के जीवन का हिस्सा बने. लेकिन तमिल समाज ने इन प्रभावों को आंख बंद करके नहीं अपनाया. उसने उन्हें अपनी भाषा, अपनी परंपराओं और अपने सामाजिक ढांचे के भीतर ढाल लिया. तमिल भाषा और साहित्य ने अपनी पहचान नहीं खोई. बाहरी विचार आए, लेकिन उन्होंने स्थानीय संस्कृति को खत्म नहीं किया.

पहली सहस्राब्दी के बाद बौद्ध और जैन परंपराएं कमजोर होती चली गईं. सनातन धर्म और संस्कृत का प्रभाव बढ़ा. इसका असर आज भी धार्मिक रीति-रिवाजों और सामाजिक ढांचे में दिखाई देता है. इसी प्रभाव ने आगे चलकर असंतोष और विरोध की जमीन भी तैयार की. आज जो उत्तर–दक्षिण की बहस दिखाई देती है, उसका बड़ा हिस्सा आर्य–द्रविड़ विवाद से जुड़ा है. राजनीति में आर्य शब्द को ब्राह्मण और संस्कृत से जोड़ दिया गया, जबकि द्रविड़ को तमिल भाषा और ब्राह्मण-विरोध से.

असल में यह तस्वीर बहुत ज्यादा सरल बना दी गई है. इतिहास, पुरातत्व और मानवशास्त्र बताते हैं कि समाज इतनी साफ रेखाओं में बंटा हुआ नहीं था. इस सोच को फैलाने में अंग्रेजों की भूमिका अहम रही. ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत उन्होंने भाषाई और जातीय बंटवारे को बढ़ावा दिया. बाद में स्थानीय नेताओं ने इसे अपने राजनीतिक हितों के लिए अपनाया. फिर भी यह भी सच है कि मद्रास प्रेसिडेंसी के दौर में सामाजिक और शैक्षिक असमानता बहुत गहरी थी. ब्राह्मण समुदाय की शिक्षा और नौकरियों में मजबूत पकड़ थी. आम लोगों के बीच नाराजगी स्वाभाविक थी. इसी जमीन पर आत्मसम्मान आंदोलन और द्रविड़ राजनीति खड़ी हुई.

Advertisement

इसके बावजूद, तमिलनाडु की एक बड़ी विशेषता यह रही कि यहां विरोध ने हिंसा का रूप नहीं लिया. ब्राह्मण समुदाय के खिलाफ बड़े पैमाने पर संगठित हिंसा नहीं हुई. पेरियार जैसे नेताओं के तीखे भाषण भी ज़्यादातर विचार और लेखन तक सीमित रहे. यही वजह है कि तमिलनाडु आज भी साम्प्रदायिक सौहार्द के मामले में देश के कई हिस्सों से बेहतर स्थिति में है. समय के साथ राजनीति बदली.

कभी द्रविड़नाडु का सपना था, एक अलग देश. लेकिन धीरे-धीरे यह सपना छोड़ दिया गया और तमिलनाडु भारत के भीतर एक राज्य बन गया. पहले संस्कृत को बाहरी दबाव का प्रतीक माना गया. अब उसी जगह हिंदी ने ले ली है. दिल्ली, जो कभी विरोध और अविश्वास का केंद्र थी, आज सत्ता, संसाधन और प्रभाव का सबसे बड़ा केंद्र बन चुकी है. विचारधाराएं बदलीं, समझौते हुए, और कई पुराने सिद्धांत छोड़ दिए गए. लेकिन एक चीज नहीं बदली—तमिलनाडु में असंतोष की भावना. किसी न किसी रूप में यह भावना हमेशा मौजूद रहती है.

क्या तमिलनाडु को सच में देश से अलग-थलग रखा गया?

यह सवाल बार-बार उठता है कि क्या तमिलनाडु को सच में देश से अलग-थलग रखा गया है, या यह दूरी उसने खुद बनाई है? क्या उत्तर भारत की राजनीति ने तमिलनाडु को नजरअंदाज किया, या यह यहां की राजनीति की जरूरत बन गई है?  जब राष्ट्रीय दल यहां कमजोर दिखते हैं, तो यह भी सवाल उठता है कि क्या तमिलनाडु हमेशा द्रविड़ दलों के भरोसे ही रहेगा? और क्या बीजेपी स्थानीय सहयोगियों के सहारे यहां साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ाने में सफल हो सकती है?

Advertisement

तमिलनाडु को लेकर कई विरोधाभास भी सामने आते हैं. यहां के लोग धार्मिक हैं, फिर भी नास्तिक कहे जाने वाले नेताओं को वोट देते हैं. लोग पढ़े-लिखे हैं, फिर भी फिल्मी सितारों के पीछे राजनीति में चले जाते हैं. सरकार खुद को कल्याणकारी कहती है, लेकिन शराब बेचकर राजस्व जुटाती है. राज्य की अर्थव्यवस्था मजबूत है, फिर भी खजाना अक्सर खाली बताया जाता है. जाति खत्म करने की बात करने वाले नेता ही जाति की राजनीति करते हैं. ये सवाल ‘द्रविड़ मॉडल’ को लेकर लगातार उठते रहते हैं.

Time Tide And Tamil

इसके साथ ही कई बड़े मुद्दे हैं, सामाजिक न्याय की बदलती परिभाषा, जनसंख्या और परिसीमन का डर, संघवाद और राज्य की स्वायत्तता, राज्यपाल की भूमिका, जीएसटी को लेकर टकराव, जलवायु संकट, शहरी समस्याएं और तमिलनाडु की बड़ी आर्थिक और तकनीकी महत्वाकांक्षाएं. सबसे पहले यह मानना जरूरी है कि तमिलनाडु कई मायनों में अलग है. यह एक पुरानी, लगातार चलती सभ्यता है और आज का एक विशिष्ट राज्य भी. यहां यह भावना हमेशा रही है कि भारत के साथ जुड़ना एक समझौता था, पूरी तरह स्वाभाविक फैसला नहीं.

यह सोच आज भी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है. वह बस शांत है, लेकिन एक चिंगारी की तरह मौजूद है.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement