दुनिया में कहीं भी जंग चल रही हो, या फिर किसी और बड़े मुद्दे पर बात करनी हो, संयुक्त राष्ट्र यानी यूनाइटेड नेशन्स का नाम बार-बार आता रहा. यह संस्था हर फैसले में घर के मुखिया की भूमिका निभाती रही. लेकिन पिछले कुछ समय से इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठ रहे हैं. यूक्रेन से लेकर गाजा और सूडान में भी उसकी अपील बेअसर रही. वहीं अमेरिका के लीडर डोनाल्ड ट्रंप ने कई जतन करते हुए कई देशों में सीजफायर करवा दिया. मजाक-मजाक में ट्रंप ने अमेरिका को असल यूएन कह दिया.
एशियाई देशों थाईलैंड और कंबोडिया के बीच सुलह कराते हुए ट्रंप ने यह बयान दिया. उन्होंने कहा कि अमेरिका ने बीते दिनों जितना वैश्विक बीच-बचाव करवाया है, उसमें वो काफी हद तक यूएन के रोल में आ चुका है. अगर ये बात मजाक है तो भी सोच-समझकर किया गया मजाक है. अमेरिका सुपरपावर तो पहले ही था, लेकिन अब वो ग्लोबल पीसमेकर भी बन चुका है, जो रोल असल में यूएन का था.
यूएन कहां-कहां करता रहा काम
- ग्लोबल वॉर को शुरू होने से पहले रोकने के लिए हर मुमकिन कोशिश करना.
- देशों के भीतर विवादों को भी दूरी रखते हुए लेकिन कूटनीतिक ढंग से सुलझाने की कोशिश.
- मानवाधिकारों की रक्षा करना और नस्ल, धर्म, भाषा या लिंग के आधार पर भेदभाव का विरोध.
- आर्थिक रूप से कमजोर देशों को मदद पहुंचाना.
- अंतरराष्ट्रीय कानून और संधियों को मजबूती देना.
- शरणार्थियों, विस्थापितों और युद्ध पीड़ितों की मदद करना.
- शिक्षा, सेहत जैसे मुद्दों पर सहायता पहुंचाना.

क्यों कमजोर पड़ता दिख रहा
यूएन सिक्योरिटी काउंसिल इसकी सबसे मजबूत शाखा है. इसमें पांच स्थायी सदस्य हैं- यूएस, यूके, फ्रांस, रूस और चीन. इन सभी देशों के पास वीटो पावर है. ऐसे में अगर चार देश मिलकर भी किसी युद्ध को रोकने की बात करें तो एक अकेला उसपर वीटो लगा सकता है. जैसे, साल 2014 में रूस के क्रीमिया पर कब्जे के खिलाफ चार देशों ने रिजॉल्यूशन दिया लेकिन मॉस्को ने उसे ब्लॉक कर दिया. सीरिया, सूडान और गाजा में भी कलेक्टिव एक्शन पर एक वीटो ने पानी फेर दिया.
यूएनएससी में खींचतान की वजह से कई युद्ध यूएन के दखल के बाद भी नहीं रुक सके, या कई बार चाहकर भी यूएन कार्रवाई नहीं कर सका.
यूक्रेन और रूस युद्ध को ही लें तो साल 2022 से शुरू हुई लड़ाई अब तक जारी है. सुरक्षा परिषद में शामिल रूस के वीटो ने संयुक्त राष्ट्र की भूमिका सीमित कर दी.
अफगानिस्तान में दशकों तक संघर्ष चलता रहा. अब साल 2021 में यहां तालिबान वापस आ चुका. अब मानवाधिकार ताक पर रखा जा चुका लेकिन यूएन असहाय है.
इजरायल और हमास के बीच छिड़ी लड़ाई दो साल तक चली. इस दौरान गाजा पट्टी लगभग तबाह हो गई लेकिन यूएन की न तो आलोचना, न ही अपील काम आ सकी.
अमेरिका ही सबसे बड़ा दानदाता
यूएन सबसे मजबूत आवाज तो है, लेकिन इसके लिए भी उसे देशों से फंडिंग जुटानी होती है. अमेरिका 22% के साथ उसका सबसे बड़ा डोनर है. ऐसे में जाहिर तौर पर उसका असर सबसे ज्यादा रहेगा. हाल में ट्रंप ने नाटो के साथ यूएन को भी धमकाया था, और उसके फंड में 83% की कटौती करने की बात कह दी थी. अगर ऐसा हुआ तो यूएन के कई सारे मानवीय प्रयास रुक जाएंगे.

दुनिया मल्टीपोलर हो रही है
पहले यूएन अकेली संस्था थी, जो सबको साधती रही. वक्त के साथ कई ग्लोबल ग्रुप्स बने, जैसे जी20, ब्रिक्स आसियान. इनसे जुड़े देश डिप्लोमेसी से लेकर क्राइसिस मैनेजमेंट में भी अपने स्थानीय संगठन की मदद लेते हैं, न कि यूएन का मुंह ताकते रहते हैं.
यहीं आता है अमेरिका का रोल. सुरक्षा परिषद में वीटो राजनीति के चलते अमेरिका धीरे-धीरे एक तरह से उसका विकल्प बनता दिख रहा है. जब यूएन निर्णायक कार्रवाई नहीं कर पाता, तब अमेरिका अपने सैन्य, कूटनीतिक और आर्थिक प्रभाव के जरिए वैश्विक हस्तक्षेप करता है. कोरिया युद्ध से लेकर इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और यूक्रेन तक कई संकटों में अमेरिका ने या तो यूएन के बिना या उसकी सीमित मंजूरी के साथ नेतृत्व संभाला.
आर्थिक मोर्चे पर भी अमेरिका भारी पड़ने लगा है. वो कभी देशों को भारी टैरिफ लगाने की धमकी देता है, तो कभी कोई लालच देता है. इस तरह से वो दबाव बनाने में कामयाब हो जाता है. वहीं यूएन अक्सर प्रस्ताव और अपील तक सीमित रह जाता है. ट्रंप ने पिछले कुछ महीनों में आठ युद्ध रोकने का दावा किया, जो असल में यूएन का जिम्मा था.
यही सब देखते हुए यूएन में रिफॉर्म की बात उठती रही. सबसे अहम सुधार सुरक्षा परिषद से जुड़ा है. आज की दुनिया सा्ल 1945 से बिल्कुल अलग है, लेकिन स्थायी सदस्यों और वीटो सिस्टम में बदलाव नहीं हुआ. ऐसे में अगर भारत, जापान और अफ्रीका जैसे क्षेत्रों को स्थायी प्रतिनिधित्व मिले तो यूएन ज्यादा भरोसेमंद दिख सकता है.