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भारत में रिफ्यूजी एक्ट नहीं, फिर भी लाखों को शरण, क्या है वो लचीला नियम जो सब संभाले हुए है?

देश में अवैध प्रवासियों का मुद्दा अक्सर ही जोर पकड़ता रहा. हमारे यहां कोई औपचारिक रिफ्यूजी संधि नहीं. इसके बाद भी यहां अलग-अलग देशों के लोग रह रहे हैं, जिनमें बांग्लादेश से लेकर श्रीलंका तक के शरणार्थी शामिल हैं. उन्हें काफी सारे अधिकार भी मिले हुए हैं.

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भारत रिफ्यूजी संधि का हिस्सा न होते हुए भी दूसरे आधार पर शरण देता रहा. (Photo- Pixabay)
भारत रिफ्यूजी संधि का हिस्सा न होते हुए भी दूसरे आधार पर शरण देता रहा. (Photo- Pixabay)

चुनाव आयोग की ओर से चल रहे SIR (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) को लेकर पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय चिंता में है. उसे डर है कि दस्तावेजों की कमी के चलते कहीं उनका नाम न हट जाए और वे बांग्लादेश न भेज दिए जाएं. बंगाली हिंदुओं की यह दलित कम्युनिटी पाकिस्तान से बांग्लादेश के बंटवारे के पहले से ही कई किस्त में भारत आई और पश्चिम बंगाल में बस गई. मतुआ ही नहीं, बहुत से दूसरे देशों के नागरिक भी यहां दशकों या सालों से हैं, वो भी तब जबकि भारत रिफ्यूजी संधि का हिस्सा नहीं. 

क्यों पड़ी इंटरनेशनल संधि की जरूरत

मानवाधिकार पर बनी ज्यादातर संधियों की तरह ही इंटरनेशनल रिफ्यूजी कन्वेंशन भी दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद बना. 1951 शरणार्थी संधि का मकसद यह तय करना था कि कौन शरणार्थी कहलाएगा. दूसरे देश में उसे क्या अधिकार मिलेंगे. साथ ही किसी रिफ्यूजी को जबरदस्ती उस देश में वापस नहीं भेजा जा सकता, जहां उसकी जान को खतरा हो.

1951 की इस संधि में एक सीमा थी कि यह सिर्फ 1 जनवरी 1951 से पहले के यूरोपीय शरणार्थियों पर लागू होती थी, यानी दुनिया भर के मामलों को शामिल नहीं करती थी. इस कमी को दूर करने के लिए एक नया प्रोटोकॉल जोड़ा गया, जिसमें यूरोप भी हट गया और समय सीमा भी. इससे दुनिया के तमाम देशों के सताए हुए लोगों को शरण मिलने में आसानी होने लगी. 

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refugees Europe and middle east (Photo- Pexels)
दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद दुनियाभर में शरणार्थियों की जरूरतों पर पहली बार ध्यान गया. (Photo- Pexels)

इसके बाद से कई देशों ने इसे अपनाया लेकिन भारत में आज भी औपचारिक तौर पर इससे दूरी रखी गई है. दरअसल, आजादी के तुरंत साथ बंटवारा हुआ, जिसमें लाखों-करोड़ों लोग इधर से उधर हुए. इतनी बड़ी आबादी के विस्थापन ने तत्कालीन को महसूस कराया कि हर पलायन एक जैसा नहीं होता और उसे अपने हालात के अनुसार फैसले लेने चाहिए. इसी दौर में इंटरनेशनल संधि बनी, लेकिन ये भारतीय ढांचे में फिट नहीं थी. 

साथ ही, देश के चारों तरफ, पाकिस्तान, बांग्लादेश (तब पूर्व पाकिस्तान), नेपाल, तिब्बत और बाद में अफगानिस्तान से भी लगातार राजनीतिक, धार्मिक विस्थापन होता रहा. देश को डर था कि अगर उसने संधि लागू की, तो नई आबादी को शरणार्थी अधिकार देने होंगे, जबकि हमारे यहां पहले से ही काफी आबादी है, और रिसोर्सेज की कमी है. यह आंतरिक सुरक्षा पर भी खतरा हो सकता था. लिहाजा भारत ने शरणार्थी संधि नहीं अपनाई. 

फॉर्मल कानून न होने के बाद भी हमारे यहां करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो भारतीय नागरिक नहीं. ऐतिहासिक रूप से एक खुला समाज होने की वजह से यहां काफी समय से दूसरे देशों के लोग आते रहे. बाद में पड़ोसी देशों की राजनीतिक परिस्थितियां बिगड़ीं, जिसके बाद भी काफी आबादी कई किस्त में यहां आने लगी. 

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बंटवारे के बाद पाकिस्तान से हिंदू और बाकी माइनोरिटी पहुंची.

साल 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान लाखों लोग पूर्वी पाकिस्तान से भागकर यहां पहुंचे.

पचास के दशक के आखिर में दलाई लामा के साथ तिब्बत से लोग आए.

म्यांमार से रोहिंग्या आबादी भारत पहुंची. 

west bengal SIR protest (Photo- PTI)
पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी एसआईआर को लेकर केंद्र पर हमलावर हैं. (Photo- PTI)

भारत ने मानवीय आधार पर उन्हें रहने दिया. लेकिन वो केस दर केस अलग नीति भी अपनाता रहा. जैसे तिब्बतियों को पूरा प्रशासनिक ढांचा दिया गया, जिसमें स्कूल से लेकर सेटलमेंट भी शामिल हैं. श्रीलंकाई तमिलों को तमिलनाडु में कैंप दिए गए. वहीं म्यांमार और बांग्लादेश के नागरिकों के लिए अलग तरीका अपनाया गया. उन्हें UNHCR द्वारा जारी शरणार्थी कार्ड के आधार पर रहने की इजाजत मिली. यह कार्ड एक तरह की आइडेंटिटी है, जो बताता है कि किसी शख्स को अपने देश में खतरा है और वह सुरक्षा पाने के लिए किसी और देश में रह रहा है. इसमें उससे जुड़ी सारी डिटेल्स दर्झ होती हैं ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में न आए. 

कुल मिलाकर, भारत बगैर संधि का हिस्सा बने लचीले मॉडल पर काम कर रहा है. 

ये तो हुआ, शरण मांग रहे लोगों को मानवीय आधार पर रहने की इजाजत देना, लेकिन अगर यही आबादी ज्यादा हो जाए, तो देश में ऐसे कानून भी हैं, जो उनपर रोक लगा सकते हैं. मसलन, फॉरेनर्स एक्ट और पासपोर्ट एक्ट,सरकार को  अधिकार देते हैं कि कौन देश में रह सकता है, कितने समय तक रह सकता है, किस शर्त पर रह सकता है, और जरूरत पड़ने पर किसे बाहर भेजा जा सकता है. इसके तहत कोई भी गैर-भारतीय नागरिक फॉरेनर माना जाता है. यानी उसके पास नागरिक अधिकार नहीं होते. साथ ही उसे किसी खास जगह जाने से भी रोका जा सकता है.

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