दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में दो ही ताकतें थीं- अमेरिका और सोवियत संघ (USSR). एक-दूसरे के पछाड़ने के क्रम में दोनों परमाणु हथियार बनाने लगे, जासूसी करने लगे, और देशों को अपने-अपने पाले में लेने लगे. ये शीत युद्ध का दौर था. इसके खत्म होते-होते सोवियत संघ 15 आजाद देशों में बंट गया. अब अमेरिका के सामने कमजोर प्रतिद्वंद्वी होना था, लेकिन बंटवारे के बाद भी रूस उस हद तक कमजोर नहीं पड़ा, बल्कि यूएस को ललकारता ही रहा.
किसी देश के बंटने को किसी घर के बंटवारे की तरह देख सकते हैं. घर बंटेंगे तो जमीनें बंटेंगी, संसाधन बंटेंगे. इससे जाहिर तौर पर हिस्सा तो सबको मिलता है लेकिन कमजोर होते हुए. यही बात देश पर लागू होती है. देश के बंटने पर आबादी, संसाधन, सेना, बिजनेस, राजस्व और भूगोल सब बंट जाते हैं. नई सीमाएं बनती हैं. नई सरकार आती है. इससे अस्थिरता बढ़ती है और पुरानी ताकत हल्की पड़ जाती है.
यूगोस्लाविया को ही लें तो नब्बे के दौर में यह देश टूटकर 7 छोटे देशों में बंट गया. बंटवारे से पहले यूगोस्लाविया एक मजबूत सैन्य शक्ति था, जिसकी यूरोप में पूछ थी. विभाजन के बाद सारे ही देशों की इकनॉमी सिकुड़ गई. सिविल वॉर चलने लगा और अंतरराष्ट्रीय असर कई गुना कम हो गया. 35 साल से ज्यादा वक्त बाद भी टूटे हुए देशों की ताकत वैसी नहीं, जैसी यूगोस्लाविया की थी.

माना गया था कि सोवियत का बंटवारा भी यही करेगा. 15 हिस्सों में बड़े देश में रूस सबसे बड़ा था और यही विरासत संभाल रहा था. अमेरिका की नजर थी कि अब ये भी मुकाबले से जाएगा और वो अकेली ताकत बाकी रहेगा. यही वो वक्त था जिसे यूनिपोलर मूमेंट भी कहा गया. इसके बावजूद रूस पूरी तरह नहीं टूटा, बल्कि आने वाले दशकों में वह मजूबत आर्थिक और सैन्य शक्ति ही दिखा.
यह कैसे हुआ
- USSR के बंटवारे के बाद 15 देशों में से सबसे बड़ा हिस्सा रूस को मिला. यह आकार में ही बड़ा नहीं था, बल्कि सोवियत विरासत का सबसे बड़ा हिस्सा यहीं था. जैसे न्यूक्लियर स्टॉक, सैन्य उपकरण, एनर्जी रिसोर्स और उद्योग. इसी विरासत ने उसे तुरंत गिरने से बचाया.
- उसके पास कुदरती संसाधन भी ढेर के ढेर थे. जैसे तेल भंडार, हीरे, निकल, टाइटेनियम, कोबाल्ट के अलावा कई दुर्लभ चीजें. यूरोप और एशिया में फैली जमीन. यूरोप रूस की गैस पर काफी हद तक निर्भर था, यही रूस की ताकत बना.
- सोवियत के बिखरने के बाद भी रूस के पास लगभग 15 करोड़ की आबादी बची थी, जो उस समय यूरोप में किसी भी देश से कहीं ज्यादा थी. इससे उसकी सेना, डिफेंस इंडस्ट्री बाकी उद्योग चलते रहे.

बंटवारे के तुरंत बाद वैसे रूस भी कमजोर हुआ था. लगभग एक दशक तक ऐसी गिरावट आई जिसे रूसी डिप्रेशन भी कहा गया. सोवियत मॉडल काम नहीं कर पा रहा था. रूबल की वैल्यू घट गई थी. लोग परेशान थे. इसी दौरान ओलिगार्क्स यानी बड़े उद्योगपतियों ने सस्ते दामों में देश की बड़ी कंपनियां खरीद लीं, जिससे असमानता बढ़ गई थी. नब्बे का दशक खत्म होते हुए देश डिफॉल्ट की कगार पर था. लेकिन फिर वक्त बदला. ऊर्जा की जरूरत बढ़ने से कीमत भी बढ़ी और रूस हाथोहाथ लिया जाने लगा. कुल मिलाकर, एक छोटे वक्त के लिए रूस कमजोर पड़ा था, लेकिन वह गिरावट अस्थायी रही.
इसके अलावा उसकी इंटरनेशनल बार्गेनिंग पावर कई ठोस वजहों से बनी रही.
- परमाणु हथियारों की सबसे बड़ी विरासत का होना एक कारण था. अमेरिका उसे नजरअंदाज नहीं कर सकता था.
- विशाल गैस और तेल भंडार ने उसे यूरोप की जरूरत बना दिया. कमजोर इकनॉमी के बावजूद यह कार्ड उसे ऊपर रखता रहा.
- रूस UN सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य था. वीटो पावर के चलते वो ग्लोबल तस्वीर से कभी गायब नहीं हुआ.
- लाख विरोध के बावजूद अमेरिका भी चाहता था कि रूस पूरी तरह न टूटे, वरना उसके परमाणु हथियार गलत हाथों में जा सकते थे.