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टेस्ट बैन संधि पर दस्तखत करने वाला अमेरिका खुद क्यों न्यूक्लियर टेस्ट करने जा रहा, क्या है रूस से कनेक्शन?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेंटागन को निर्देश दिया कि वो परमाणु हथियारों की टेस्टिंग दोबारा शुरू कर दे. अपने इस फैसले के लिए ट्रंप रूस और चीन जैसे देशों की आड़ ले रहे हैं, जबकि सच तो ये है कि परमाणु अप्रसार संधि में वॉशिंगटन कभी ठीक से शामिल ही नहीं हुआ, बल्कि बहुत चालाकी से दूरी बनाए रखी.

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अमेरिका ने न्यूक्लियर टेस्ट बैन संधि पर संसद में मंजूरी नहीं ली. (Photo- AP)
अमेरिका ने न्यूक्लियर टेस्ट बैन संधि पर संसद में मंजूरी नहीं ली. (Photo- AP)

इस वक्त जब दुनिया के कई देश आपस में लड़-भिड़ रहे हैं और डोनाल्ड ट्रंप उनमें दोस्ती कराने के दावे कर रहा है, इसी बीच एक अजब बात हुई. ट्रंप ने गुरुवार को रक्षा मंत्रालय से कहा कि वो न्यूक्लियर टेस्टिंग दोबारा शुरू कर दे. ये फैसला ऐसे समय में आया है जबकि रूस के नेता व्लादिमीर  पुतिन से यूक्रेन को लेकर उनकी पीस डील लगभग बेकार हो चुकी. तीन दशक बाद यूएस का दोबारा परमाणु परीक्षण शुरू करना क्या किसी खतरे का संकेत है?

ट्रंप ने अपनी सोशल मीडिया साइट पर लिखा कि दूसरे देशों के टेस्टिंग प्रोग्राम को देखते हुए मैंने डिपार्टमेंट ऑफ वॉर को निर्देश दिया कि वो हमारे परमाणु हथियारों की टेस्टिंग तुरंत शुरू करे, ताकि हम बराबरी पर रहें. उन्होंने यह भी कहा कि फिलहाल अमेरिका के पास दुनिया में सबसे ज्यादा न्यूक्स हैं, लेकिन चीन अगले 5 साल में बराबरी पर आ जाएगा. 

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि ट्रंप प्रशासन ने डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस को डिपार्टमेंट ऑफ वॉर कहना शुरू कर दिया है. यानी कहीं तो चिंगारी है, जो आग पकड़ सकती है. लेकिन वहां तक पहुंचने से पहले ये समझते चलें कि परमाणु टेस्टिंग क्या है, और क्यों तीन दशक तक यूएस ने रोके रखी. 

परमाणु टेस्टिंग का मतलब है, परमाणु हथियार का प्रयोग करके उसकी ताकत, असर और तकनीक को परखना कि वो कितनी असरदार है. जब कोई देश यह देखना चाहे कि उसका परमाणु हथियार ठीक से काम करेगा या नहीं और कितनी तबाही मचा सकता है तो वह उसका टेस्ट करता है. 

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nuclear testing (Photo- Pixabay)
साठ के दशक में परमाणु हथियारों पर रोक के लिए पहले पार्शियल टेस्ट बैन ट्रीटी बनी. (Photo- Pixabay)

पुराने दौर में देश खुले इलाकों, समुद्र या रेगिस्तान में टेस्ट करते थे, जैसे अमेरिका ने नेवादा और प्रशांत महासागर में किया था. फिर पता लगा कि इससे रेडिएशन फैलकर इंसानों तक पहुंच सकता है तो अंडरग्राउंड टेस्ट शुरू हुए. लेकिन ये भी सेफ नहीं. 

देखादेखी परमाणु टेस्ट की होड़ लगने लगी. साठ के दशक में सोवियत संघ और यूएस जमकर टेस्टिंग कर रहे थे. इससे कई द्वीपों और इलाकों में रेडिएशन फैलने लगा. हजारों लोग बीमार हुए. लेकिन एक खतरा और बड़ा था. हथियार होंगे तो आजमाने की इच्छा भी देर-सवेर आ जाएगी. ये वैसा ही है, जैसे बंदूक होने पर उसे चलाने के मौके तलाशना. इसी वजह से देशों ने तय किया कि ऐसे टेस्ट बंद करने चाहिए. 

पहली संधि बनी साल 1963 में, जिसका नाम था पार्शियल टेस्ट बैन ट्रीटी. बाद में इसे पूरी तरह रोकने के लिए कॉम्प्रिहेंसिव न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीटी बनी, जिसे नब्बे के आखिर में यूएन में मंजूरी मिली. जिसके बाद देश इसपर दस्तखत करने लगे. 

रूस ने भी हामी भरते हुए इसपर हस्ताक्षर कर दिए. लेकिन अमेरिका ने यहां एक खेल खेला. उसने साइन तो कर दिया लेकिन अब तक इसे मंजूरी नहीं दी है. इसे डिटेल में समझते हैं. किसी भी इंटरनेशनल संधि के दो स्टेप होते हैं

- हस्ताक्षर करना यानी समझौते से सहमत होना. 

- मंजूरी यानी सरकार इसे औपचारिक रूप से कानून मान ले. 

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अमेरिका ने सितंबर 1996 में संधि पर साइन तो किए, यानी उसने कहा कि वह इसके मकसद पर सहमत है लेकिन उसे अपनी सीनेट में पास नहीं किया. कुल मिलाकर, अमेरिका पर इस संधि को मानने की कानूनी जिम्मेदारी नहीं. वो चाहे तो कभी भी परमाणु परीक्षण दोबारा शुरू कर सकता है, और कोई देश उसे कानून के तहत रोक नहीं सकता.

 white house (Photo- Pexels)
अमेरिका इन दिनों रूस की लीडरशिप पर बौखलाया हुआ है. (Photo- Pexels)

दिलचस्प  ये है कि रूस ने दोनों स्टेप पार कर लिए लेकिन यूएस की देखादेखी उसने भी अपनी मंजूरी वापस ले ली. यूक्रेन से जंग शुरू होने के बाद ही उसने ऐसा कदम उठाया. अब उसके पास भी टेस्टिंग का विकल्प खुल चुका. 

क्या ट्रंप का फैसला दुनिया को खतरे में ला देगा

अगर इतिहास को देखें तो हां. ऐसा पहले भी हो चुका है. जब परमाणु दौर की शुरुआत हुई थी, तब अमेरिका के परमाणु कार्यक्रम ने सोवियत को बेचैन कर दिया था. दोनों के बीच हथियारों की होड़ शुरू हुई. वॉशिंगटन के बाद मॉस्को ने भी फटाफट पहली न्यूक टेस्टिंग की. इसके बाद ब्रिटेन ने साल 1952 में और फ्रांस ने साल 1960 में परमाणु बम बनाया. साठ के दशक में जब चीन और सोवियत के रिश्ते बिगड़े, तो चीन को भी डर हुआ कि रूस हमला कर सकता है. उसने भी साल 1964 में पहला परमाणु परीक्षण किया. फिर एशिया में को देखें तो भारत के बाद पाकिस्तान भी कतार में आ गया. 

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स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में फिर से परमाणु हथियारों की दौड़ शुरू हो सकती है. 

वैसे भी परमाणु हथियारों को सीमित करने वाले नियम और समझौते कमजोर पड़ते जा रहे हैं. मसलन, ईरान बार-बार धमकी दे रहा है कि वह परमाणु अप्रसार संधि से बाहर हो जाएगा. जून में इजरायल के साथ हुए संघर्ष के बीच भी ईरान ने यह कहकर तूफान खड़ा कर दिया था. इस संधि का मकसद है कि जिन देशों के पास पहले से हथियार हैं, वे इन्हें किसी और देश को दे नहीं सकते या बनाने में मदद नहीं कर सकते. और जिनके पास परमाणु हथियार नहीं हैं, वे इन्हें बनाने या हासिल करने की कोशिश नहीं करेंगे. लेकिन अब जैसे-जैसे बड़े देश पुराने समझौतों से पीछे हट रहे हैं, दुनिया फिर एक बार खतरे की तरफ जा रही है.

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