बिहार चुनाव पर हाल में महागठबंधन का घोषणा पत्र जारी हो चुका. आज एनडीए भी अपना चुनावी मेनिफेस्टो जारी करने वाला है. माना जा रहा है कि इसमें युवाओं को रोजगार से लेकर महिला मुद्दे टॉप पर रहेंगे. ये चुनावी वादे हैं, जिनका प्रचार सभी दल जोर-शोर से करते हैं. इन्हें दिखाकर मतदाताओं को अपनी तरफ खींचा जाता है. ऐसे में जीतने वाले दल की जवाबदेही होती है कि वो अपने वादे पूरे भी करे. लेकिन अगर वो ऐसा न करे तो क्या वादाखिलाफी को लेकर उसपर केस हो सकता है?
मेनिफेस्टो किसी राजनीतिक पार्टी का वो दस्तावेज होता है जो चुनाव से पहले जारी किया जाता है, ताकि लोगों को बताया जा सके कि पार्टी अगर जीतकर आई तो क्या-क्या काम करेगी. इसमें आमतौर पर नौकरी, सेहत और सुरक्षा जैसे बेसिक मुद्दे पूरे करने की बात होती है. कई पार्टियां अलग बातों को भी यूएसपी बनाते हुए नई चीजें भी जोड़ती हैं. कुल मिलाकर घोषणा पत्र को किसी दल का विजन डॉक्युमेंट भी कह सकते हैं.
वोटर इसी आधार पर अंदाजा लगाते हैं कि कौन सी पार्टी उनकी जरूरतों को बेहतर तरीके से पूरा कर सकती है. वैसे तो अधिकतर समय वोटर पहले से ही मन बना चुके होते हैं कि वे किसे वोट देंगे लेकिन कभी-कभार मेनिफेस्टो भी यू टर्न ले आते हैं.
हमारे यहां या पूरी दुनिया में कोई कानून या नियम ऐसा नहीं जो राजनीतिक पार्टियों को अपने मेनिफेस्टो के वादे पूरे करने के लिए कानूनी तौर पर मजबूर कर सके. दल इसके लिए फंडिंग की कमी से लेकर असहयोग जैसे तमाम बहाने बना सकते हैं. लेकिन कुछ गाइडलाइन्स जरूर हैं, जो जवाबदेही तय करती हैं.

कुछ मामलों में मेनिफेस्टो के अधूरे वादों को लेकर लोग कोर्ट तक पहुंचे, लेकिन किसी भी अदालत ने इसे कानून का उल्लंघन नहीं माना. दरअसल मेनिफेस्टो को राजनीतिक वादा माना जाता है. ये कोई कानूनी करार नहीं, जिसे तोड़ना सजा दे सकता है, या जुर्माना लगा सकता है.
ऐसा ही एक केस साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया. इसमें तमिलनाडु के याचिकाकर्ता ने कहा था कि चुनावों से पहले पार्टियां अपने मेनिफेस्टो में फ्री लैपटॉप, मिक्सर, ग्राइंडर, टीवी जैसी चीजें देने के वादे कर रही हैं. ये फ्रीबीज वोटरों पर असर डालते हैं. मांग थी कि ऐसे वादों को गलत प्रैक्टिस माना जाए और रोका जाए.
तब कोर्ट ने भी माना कि ऐसे वादे मतदाताओं को गलत दिशा में ले जाते हैं लेकिन ये गैरकानूनी नहीं क्योंकि इसमें कोई लीगल एग्रीमेंट कहीं नहीं है.
इस टिप्पणी के बाद भी कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह सभी राजनीतिक दलों से बात करके गाइडलाइन बनाए ताकि मेनिफेस्टो में किए गए वादे हवा-हवाई न दिखें.

ऐसे कई मामले बाद में भी आए. साल 2022 में भी एक पीआईएल दायर हुई, जिसमें याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि चुनाव से पहले या बाद में मुफ्त देने का चलन बिल्कुल बंद करा दिया जाए क्योंकि इन शॉर्ट टर्म फायदों के लिए वोटर गलत दल को भी चुन लेते हैं. हालांकि कोर्ट ने इसे कॉम्पलेक्स मसला कहते हुए दूरी बना ली.
अदालत के कई बार जोर देने के बाद चुनाव आयोग ने आचार संहिता में एक नया सेक्शन जोड़ा. इसके तहत पार्टियां अपने मेनिफेस्टो में बताएंगी कि हर वादे को पूरा करने के लिए फंडिंग कहां से आएगी. साथ ही ये भी पक्का करने को कहा गया कि वादे प्रैक्टिकल हों और लोगों के हित में हों.
क्यों पूरे नहीं होते वादे
जीतने के फेर में पार्टियां वादे तो कर देती हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद वे फंसा हुआ पाने लगती हैं और चुप साध जाती हैं.
किसानों की कर्ज माफी, बेरोजगारों को काम जैसे वादों को पूरा करने के लिए फंड चाहिए. राज्य या केंद्र के पास उतना बजट नहीं होता.
योजना बनाने और लागू करने में कई मंत्रालय, विभाग और बहुत से अधिकारी शामिल होते हैं. मंजूरी मिलते-मिलते वक्त निकल जाता है. कई बार इसमें असहमति भी होती है.
अक्सर ये भी देखा गया कि सत्ता में आने के बाद नए हालात या गठबंधन के दबाव में पार्टी अपनी प्राथमिकताएं बदल देती है.
कई वादे सिर्फ चुनाव प्रचार के लिए बनाए जाते हैं, जो प्रैक्टिकल तौर पर मुमकिन नहीं. ये वादे भी कागज तक ही अटककर रह जाते हैं.