बिहार की जातिगत जनगणना का मामला सुप्रीम कोर्ट में है. इसे लेकर वहां सुनवाई चल रही है. इस बीच अदालत में केंद्र सरकार के हलफनामे को लेकर कन्फ्यूजन पैदा हो गया है. दरअसल, केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर घंटेभर में ही दो अलग-अलग एफिडेविट जमा कर दिए. इन दोनों में ही अलग-अलग बातें कही गईं हैं.
घंटेभर में ही जातिगत जनगणना के मसले पर केंद्र के यू-टर्न पर नई बहस छिड़ गई है. ऐसे में जानते हैं कि केंद्र ने दो अलग-अलग हलफनामों में क्या कहा? जनगणना करवाने का अधिकार किसके पास है? संविधान क्या कहता है?
केंद्र ने क्या कहा?
- दरअसल, सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में बिहार की जातिगत जनगणना के मसले पर सुनवाई हुई. इस दौरान केंद्र सरकार ने दो अलग-अलग हलफनामे दायर किए.
- पहले हलफनामे में केंद्र ने कहा कि जनगणना या जनगणना जैसी किसी भी प्रक्रिया करवाने का अधिकार सिर्फ उसी के पास है.
- पहले हलफनामे के पैरा 5 में लिखा था कि केंद्र के अलावा और कोई संस्था जनगणना या जनगणना जैसी प्रक्रिया नहीं करवा सकती.
- लेकिन इस हलफनामे के कुछ घंटे बाद ही केंद्र सरकार ने दूसरा हलफनामा दायर किया. इस हलफनामे में सरकार ने पैरा 5 को ही हटा दिया.
- नए हलफनामे में केंद्र ने ये तो जरूर कहा कि जनगणना अधिनियम 1948 के तहत, सिर्फ केंद्र के पास ही जनगणना करवाने का अधिकार है. लेकिन इसमें 'जनगणना जैसी कोई अन्य प्रक्रिया' शब्द को हटा लिया गया था.
जनगणना का पावर किसके पास?
- संविधान के तहत, जनगणना करवाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है. जनगणना करवाने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. जनणना का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची की लिस्ट-1 में आता है.
- इतना ही नहीं, 1948 का जनगणना एक्ट भी यही कहता है कि इससे जुड़े नियम बनाने, जनगणना कर्मचारी नियुक्त करने और जनगणना की जानकारी इकट्ठा करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है.
- संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत, जनगणना को संघ सूची का विषय बना लिया गया था. ये संविधान की सातवीं अनुसूची की एंट्री 69 में लिस्टेड है.
- दरअसल, संविधान में संघ, राज्य और समवर्ती सूची है. इसमें बताया गया है कि केंद्र और राज्य सरकार के अधिकार में कौन-कौन से विषय आते हैं. सातवीं अनुसूची में इस बारे में बताया गया है.
- संघ सूची में उन विषयों को शामिल किया गया है जिनमें कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद को है. इसमें रक्षा, विदेश मामले, जनगणना, रेल जैसे 100 विषय शामिल हैं.
- राज्य सूची में शामिल विषयों पर कानून बनाने का अधिकार सिर्फ राज्य सरकार को है. इसमें कोर्ट, पुलिस, स्वास्थ्य, वन, सड़क, पंचायती राज जैसे 61 विषय हैं.
- वहीं, समवर्ती सूची में उन विषयों को शामिल किया गया है जिन पर केंद्र और राज्य, दोनों कानून बना सकतीं हैं. अगर केंद्र किसी विषय पर कानून बना लेता है तो राज्य को उसे मानना होगा. इसमें शिक्षा, बिजली, जनसंख्या नियंत्रण, कारखाने जैसे 52 विषय आते हैं.
तो क्या बिहार सरकार नहीं करवा सकती जनगणना?
- अब सारी दिक्कत शुरू यहां से होती है कि विपक्ष और तमाम जानकार इसे जातिगत जनगणना मान रहे हैं. जबकि, बिहार सरकार इसे सर्वे बता रही है.
- कानून के जानकार बताते हैं कि कोई राज्य सरकार अपने यहां किसी भी तरह का सर्वेक्षण करा सकती है. किसी सर्वेक्षण या आंकड़े जुटाने की गरज से कोई कमेटी या आयोग बना सकती है. इसी अधिकार के तहत तो उत्तराखंड ने यूसीसी के लिए कमेटी बनाई और सर्वेक्षण करवाकर आंकड़े जुटाए.
- बिहार सरकार इस तर्क पर इसकी इजाजत मांग रही है कि वो जनगणना नहीं करवा रही है, बल्कि सर्वे करवा रही है.
अब जातीय जनगणना की जरूरत है?
- जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में ये तर्क है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों का डेटा जारी होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों के आंकड़े नहीं आते. इस कारण ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल है.
- 1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों को लागू किया था. इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं. इसने देश में ओबीसी की 52 फीसदी आबादी होने का अनुमान लगाया था.
- हालांकि, मंडल आयोग ने ओबीसी आबादी का जो अनुमान लगाया था उसका आधार 1931 की जनगणना ही थी. मंडल आयोग की सिफारिश पर ही ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया जाता है.
- जानकारों का कहना है कि एससी और एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है. लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है.
तो बिहार में जातियों का सर्वे हुआ या नहीं?
- बिहार सरकार 18 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातिगत सर्वे का प्रस्ताव विधानसभा और विधान परिषद से पास करा चुकी है.
- बिहार में जातिगत सर्वे दो चरणों में हुआ है. बिहार सरकार ने अदालत में बताया कि 6 अगस्त को जातिगत सर्वे पूरा हो चुका है. जबकि, इसका डेटा 12 अगस्त को अपलोड कर दिया गया है.
- बिहार सरकार के मुताबिक, इस सर्वे के दौरान जो डेटा जुटाया गया है, उसे BIJAGA (बिहार जाति आधारित गणना) ऐप पर अपलोड किया गया है. ये डेटा सिर्फ सरकारी विभाग ही एक्सेस कर सकते हैं.
आखिर क्यों नहीं होती जातियों की गिनती?
- 1881 में देश में पहली बार जनगणना हुई थी. तब से ही हर 10 साल में जनगणना होती है. 1931 में आखिरी बार जातिगत जनगणना हुई थी.
- आजादी के बाद से देश में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की ही गिनती होती है. अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी की जातियों को नहीं गिना जाता.
- 2011 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम यादव ने जातिगत जनगणना की मांग उठाई थी. इसके बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना करवाने का फैसला लिया था.
- 2016 में मोदी सरकार ने जातियों को छोड़कर बाकी सारा डेटा सार्वजनिक कर दिया था. केंद्र का कहना था कि 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना हुई थी, उसमें कई खामियां थीं.
- 2021 में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि 1931 में जब जातिगत जनगणना हुई थी, तब जातियों की संख्या 4,147 थी. लेकिन 2011 में जातियों की संख्या बढ़कर 46 लाख से भी ज्यादा हो गई थी.
(इनपुटः संजय शर्मा)