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भारत के ज्यादातर पड़ोसी देशों में उठापटक,फिर भूटान अब तक कैसे बचा हुआ है प्रोटेस्ट कल्चर से?

नेपाल में Gen-Z प्रदर्शन के बाद सरकार गिर गई. अब सुशीला कार्की अंतरिम पीएम हैं लेकिन खदबदाहट अब भी है. चिंता है कि अगले चुनाव तक देश कहीं फिर अस्थिर न हो जाए. यही हाल पाकिस्तान-बांग्लादेश का रहा. श्रीलंका भी अलग नहीं, और न ही म्यांमार. कुल मिलाकर भारत के लगभग सारे पड़ोसी घरों में बर्तन झनझना रहे हैं, सिवाय इक्का-दुक्का के.

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भूटान में बौद्ध आबादी 75 प्रतिशत से ज्यादा है और यही सामाजिक प्रतिनिधित्व करती है. (Photo- Pexels)
भूटान में बौद्ध आबादी 75 प्रतिशत से ज्यादा है और यही सामाजिक प्रतिनिधित्व करती है. (Photo- Pexels)

भूटान का नाम अक्सर ही हैप्पीनेस इंडेक्स में ऊपर होने को लेकर चर्चा में रहा. ये हिमालयी देश छोटा है, लेकिन यहां के लोग खुश हैं. भूटान पर इससे ज्यादा बात शायद ही कभी हुई हो. खासकर जब भारत के तकरीबन सारे पड़ोसी अंदरुनी कलह से गुजर रहे हैं, तब भी यहां कोई आहट नहीं. न युवा गुस्सा सुनाई देते हैं, न पक्ष-विपक्ष लड़ते हुए दिखे. तो क्या भूटान में शांति इसलिए है कि वहां राजशाही और लोकतंत्र मिलकर काम करते रहे? या फिर सेंसरशिप इतनी तगड़ी है कि चीख-पुकार की आवाज बाहर नहीं पहुंचती?

राजा ने खुद सत्ता छोड़ दी थी

भूटान एक ऐसा देश है जहां आज से लगभग दो दशक पहले तक सब कुछ राजा के इशारे पर चलता था. राजा ही वहां राजनीति और फैसलों का केंद्र रहे. लेकिन साल 2008 में कुछ बदला. राजशाही ने खुद पहल करते हुए लोकतंत्र की पहल की. इसके लिए उनपर कोई दबाव नहीं था, न ही देश में कोई सैन्य या जन आंदोलन हो रहा था. दरअसल, भूटान के चौथे राजा, जिग्मे सिंगये वांगचुक ने हालात भांप लिए थे. 

वे समझ गए थे कि अगर पूरा शासन एक परिवार के हाथ में रहेगा तो भविष्य में खतरनाक हालात बन सकते हैं. नेपाल में इसके लिए कत्लेआम मचने लगा था. बाकी देशों में रॉयल परिवार का कब्जा तो नहीं था, लेकिन तब भी राजनीतिक उठापटक चलने लगी थी. ग्लोबल बाजार खुल गए थे और बाहरी ताकतों की आवाजाही बढ़ रही थी. अब देश संभालने का जिम्मा बांटने की जरूरत थी.

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तो समझदार बुजुर्ग मुखिया की तरह राजा ने नया संविधान बनाने की प्रोसेस शुरू की, जिसमें साफ लिखा गया कि देश को लोकतांत्रिक संवैधानिक राजशाही बनाया जाए. 

National Assembly of Bhutan (Photo- Facebook)

हर चुनाव में विपक्ष ही बना रहा सरकार 

साल 2008 में देश में पहला संसदीय चुनाव हुआ. मतदाताओं के लिए ये सब बिल्कुल नया था, मतदान बूथ, चुनाव प्रचार, घोषणापत्र और आपसी टक्कर. चुनाव खत्म हुए और भूटान पीपल्स यूनाइटेड पार्टी ने जीत हासिल की. राजा अब भी देश के संवैधानिक प्रमुख थे, लेकिन फैसले जनता की चुनी सरकार लेने लगी. तब से अब तक तीन और चुनाव हो चुके, और हर बार शांतिपूर्ण तरीके से नई सरकारें बनती रहीं. 

राजशाही और डेमोक्रेसी का अनोखा मेलजोल

राजा अब भी उतने ही लोकप्रिय हैं. उनका महल है. वे राजसी तरीके से रहते हैं और देश की नैतिक ताकत भी माने जाते हैं. राजा असल में संविधान के तहत हेड ऑफ स्टेट हैं. पीएम समेत कई बड़े पदों के चुनाव में उनकी राय पूछी जाती है. वे संसद को बड़े मुद्दों पर सलाह भी देते हैं. लेकिन प्रैक्टिकल ताकत संसद के पास है. रोजमर्रा के मुद्दों पर सरकार ही फैसले लेती है. ये जरूर है कि संकट या बड़े निर्णय में जनता और सरकार दोनों ही राजा की तरफ देखते हैं. यानी अगर कभी सरकार चूके तो जनता तख्तापलट नहीं कर देगी, बल्कि आखिरी भरोसेमंद शख्स यानी राजा की तरफ देखेगी और उसके संकेत का इंतजार करेगी. 

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नेपाल में क्यों नहीं चल सकता था ये मॉडल

भूटान में राजशाही और लोकतंत्र साथ मिलकर चल रहा है लेकिन नेपाल जैसे देशों में यह प्रयोग नहीं हो सका. इसके पीछे भी कारण है. भूटान में राज परिवार ने खुद पहल की और लोकतंत्र लेकर आए. सत्ता स्वेच्छा से सरकार को दे दी गई. वहीं नेपाल में इसके उलट, जनता ने लंबे समय तक लोकतंत्र की मांग की और राजशाही ने देर तक विरोध किया. इससे राजशाही की इमेज खराब होती गई. लोगों को लगा कि राजा अपनी ताकत और विलासिता के लिए उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. ये नैरेटिव मजबूत होता चला गया और आखिरकार राजशाही भरभराकर गिर गई, और सरकार आ गई. 

bhutan Buddhist population (Photo- Pexels)

बौद्ध आबादी ही सबसे ज्यादा

भूटान के साथ एक खास बात और है. यहां सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से ज्यादातर आबादी एक जैसी है. छोटी आबादी है और सभी बौद्ध हैं. वे एक-सी सोच रखते हैं और अलग भी हों तो शांति से एक राय पर पहुंच पाते हैं. इससे अलग, नेपाल में डायवर्सिटी है. ऐसे माहौल में साझा संतुलन बनाना मुश्किल रहा. एक गड़बड़ ये भी हो गई कि नेपाल विकास के नाम पर चीन के करीब आने लगा और असंतोष बढ़ता चला गया. जबकि भूटान लो प्रोफाइल रहते हुए अपने मॉडल को बाहरी दबाव से दूर रख पाया. 

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मतलब, इस देश में जनता को कभी सड़कों पर नहीं आना पड़ा कि हमें ये नहीं, वो चाहिए. असंतोष से पहले ही राजा ने खुद गद्दी छोड़ दी. वहां के राजा जनता के बीच जाते हैं, गांवों में रहते हैं, मुश्किल वक्त पर लोगों से सीधे मिलते-जुलते हैं. इससे उनके पास भले ही एब्सॉल्यूट पावर न हो, लेकिन जनता के पास उम्मीद जरूर है. 

एक कारण और भी रहा

भूटान में प्रेस सेंसरशिप काफी सख्त रही. वहां का संविधान भले ही प्रेस की आजादी को मान्यता देता है, लेकिन असल में सरकार और राजशाही की आलोचना करना आसान नहीं. वहां का मीडिया भी छोटा है और कामकाज के लिए राजा और सरकारी मदद पर निर्भर है, ऐसे में वो भी खास असहमति नहीं जता सकता. आमतौर पर यहां विदेशी पत्रकार काफी सीमित दायरे में रह या बात कर सकते हैं. संवेदनशील मुद्दों को वे नहीं छू सकते. 

bhutan flag (Photo- Pixabay)

अब बात रही सोशल मीडिया की, जिसे कई देशों में वेपन बना लिया गया तो भूटान में उसपर भी निगरानी है. कोई भी कुछ बोल-लिखकर बच नहीं सकता. उसपर कानूनी कार्रवाई तो बाद में होगी, पहले सामाजिक दबाव ही रहेगा कि वो राजा या सरकार के खिलाफ न कहे. इन वजहों से वहां प्रोटेस्ट कल्चर पनप ही नहीं सका. 

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आवाज दबाने का भी लगा आरोप

मीडिया सेंसरशिप को लेकर कई इंटरनेशनल संस्थाओं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल और रिपोर्टर्स विदाउड बॉर्डर्स ने बार-बार कहा है कि भूटान का प्रेस आंशिक तौर पर आजाद है. कई मामलों का हवाला देते हुए आरोप लगा कि देश में रिफ्यूजी मुद्दों को दबाया गया. मसलन, दक्षिणी भूटान के नेपाली मूल के लोगों का मामला कुछ-कुछ चर्चा में आ गया था. उन्हें बाकियों से अलग होने की वजह से देश से भगाया गया था. नेपाल ने भी उन्हें अपनाने से मना कर दिया.

आज भी ये समुदाय शरणार्थियों की तरह यहां-वहां रह रहा है. इस त्रासदी को भीतर सख्ती से दबाया गया ताकि कोई मानवाधिकार संगठन विद्रोह न उकसाए. तब इंटरनेशनल मीडिया में हल्की-फुल्की बात हुई थी कि भूटान उतना भी खुश नहीं, जितना दिखता है, बल्कि सेंसरशिप से वहां की नाखुशी पर पर्दा डाला गया है.

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