जमीन का महत्व हमेशा से जिंदगी से ज्यादा रहा है. इसे लेकर कोई दोराय नहीं है और पुराने समय से चला आ रहा यह ऐसा सच है जिस पर सभी एक साथ सहमत होते हैं. जमीन ही वह ठोस आधार है, जिस पर मानव सभ्यता का पूरा ढांचा खड़ा है. चाहे जीवन को ईश्वर की रचना मानें, विकास की प्रक्रिया का नतीजा समझें या किसी बुद्धिमान योजना का परिणाम... हर स्थिति में शुरुआत भूमि या जमीन से ही होती है.
भूमि ही इस नश्वर मानव जीवन को सबसे मजबूत सहारा देती है. आदिम शिकारी समाजों से लेकर बड़े-बड़े साम्राज्यों और आधुनिक दौर के शोषकों तक, मनुष्य की नजर हमेशा नई जमीन पर टिकी रही है. हिटलर का 'लेबेन्सराउम' यानी 'जीने की जगह' का सिद्धांत इसी लालसा की बीसवीं सदी की सबसे क्रूर अभिव्यक्ति था. आज एलन मस्क जैसे आधुनिक उद्योगपति धरती से आगे बढ़कर चांद और मंगल को भविष्य की संपत्ति के रूप में देख रहे हैं. असल बात यह है कि हर मानव प्रयास, हर विचारधारा और हर बड़ा सपना किसी न किसी जमीन से जुड़ा होता है.
संघर्ष की बड़ी वजह क्यों बनती है भूमि?
इसी वजह से भूमि ही संघर्ष की सबसे बड़ी वजह भी बनती है. वह देशों को बांटती है, पड़ोसियों को दुश्मन बनाती है, और कई बार परिवारों के बीच भी दीवार खड़ी कर देती है. इतिहास के ज्यादातर झगड़े जमीन को लेकर ही हुए हैं. धन भी आखिरकार जमीन, उसके संसाधनों और उस पर अधिकार का ही दूसरा नाम है. जियोपॉलिटिक्स मानव इतिहास का मूल स्वर रही है. समय के पन्ने छोटे-बड़े सीमा विवादों, बाड़ों और खून से सने मोर्चों से भरे पड़े हैं.
अब इस दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ भारत की ओर चलते हैं. आज की राजनीति में जो अंतहीन टकराव दिखाई देते हैं, उन्हें समझने के लिए हमें भारत को उसकी प्राचीन परिभाषाओं से देखना होगा. वेदों में भारत को 'सप्त सैंधव' यानी सात नदियों की भूमि कहा गया है, लेकिन भारत की सबसे व्यापक कल्पना हमें ‘संकल्प’ में मिलती है. संकल्प किसी भी धार्मिक कर्मकांड से पहले बोला जाने वाला प्रस्तावना-वाक्य यानी श्लोक है. इसमें भूगोल, ब्रह्मांड और मिथक एक साथ जुड़े होते हैं.
क्या है संकल्प, जो जमीन की अवधारणा को मजबूत करता है
संकल्प की पहली कड़ी है 'जम्बूद्वीप'. यह पृथ्वी के एक विशाल भूभाग का नाम है, जिसे कई लोग पूरे उत्तरी गोलार्ध के रूप में देखते हैं. लेकिन स्थानीय अर्थ में जम्बूद्वीप भारत ही माना गया- यानी जामुन फल की भूमि. सदियों तक यही इस उपमहाद्वीप का नाम रहा, खासकर दक्षिण-पूर्व एशिया में. बाद में यूरोप ने इस पर जबरन ‘इंडिया’ नाम चिपका दिया. चाहे इसे ब्रह्मांड का हिस्सा मानें या देश, हम सब जम्बूद्वीप के निवासी हैं.

इसके बाद आता है 'भारतवर्ष'. यह जम्बूद्वीप की विशाल कल्पना को ठोस जमीन पर उतारता है. यह नाम महान राजा भरत से जुड़ा है, जिन्होंने पूरे क्षेत्र को एक किया. हालांकि दक्षिण को लेकर मतभेद रहे हैं. भारतवर्ष की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे 'कर्मभूमि' कहा गया. यानी मोक्ष पाने के लिए कर्म करने की एकमात्र वैध भूमि. यह देवताओं द्वारा चुनी गई भूमि मानी गई.
आगे चलकर 'भरत खंड' जैसे शब्द मिलते हैं, जो एक बड़े, शक्तिशाली भूभाग की याद दिलाते हैं, कुछ हद तक आज की ‘अखंड भारत’ की अवधारणा की तरह...
संकल्प में और भी बारीकी है, जैसे 'मेरोर् दक्षिणे पार्श्वे', यानी पौराणिक मेरु पर्वत के दक्षिण का क्षेत्र. इसमें गोदावरी नदी और दंडकारण्य के जंगलों का का जिक्र आता है. इस तरह संकल्प एक तरह का प्राचीन जीपीएस बन जाता है, जो हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक पूरे भूभाग को एक इकाई में जोड़ देता है. तो सवाल उठता है, इतनी गहरी और आदर्श कल्पना आज इतनी बुरी तरह कैसे टूट गई?
संकल्प में नहीं है आर्यावर्त शब्द
लेकिन संकल्प 'आर्यावर्त' शब्द नहीं है. मनुस्मृति के अनुसार आर्यावर्त वह भूमि है, जो उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैली है. यानी दक्षिण भारत इससे बाहर हो जाता है. यहीं से शामिल और बाहर किए जाने की राजनीति शुरू होती है. उत्तर भारत के कई विद्वानों, नेताओं और विचारकों ने पूरे भारत को ही आर्यावर्त मान लिया, जबकि स्वयं मनु ने उसकी सीमा तय कर दी थी. इस सोच में पूरा भारत ‘आर्य’ पहचान का जन्मस्थान बना दिया गया. इससे सांस्कृतिक श्रेष्ठता का भाव पैदा हुआ और विंध्य के दक्षिण में रहने वाले लोगों को धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिया गया.
विंध्य पर्वत को पार करना तक धार्मिक अपराध समझा जाता था और उसके लिए शुद्धिकरण की जरूरत पड़ती थी. आज भले ही ये नियम खुले तौर पर न दिखें, लेकिन उनकी छाया अब भी हमारे समाज और सोच में मौजूद है. यही उत्तर–दक्षिण टकराव की सबसे बड़ी जड़ है.
मनु के बताए हुए आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा विंध्य पर्वत थी. प्राचीन ग्रंथों में बार-बार यही विंध्य पर्वत द्रविड़ देश की उत्तरी सीमा के रूप में भी पहचाना गया है.
आर्यावर्त की सीमा को लेकर विवाद
आज उत्तर भारत के कई विद्वान यह दावा करते हैं कि आर्यावर्त पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला हुआ था. उनके अनुसार आर्य ही हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक के मूल निवासी थे, और यह क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ था, लेकिन यहां एक अहम विरोधाभास सामने आता है. जिन विद्वानों के तर्कों का आधार अक्सर प्राचीन संस्कृत परंपरा होती है, वे उसी परंपरा के सबसे बड़े व्याकरणाचार्य पाणिनि को नजरअंदाज कर देते हैं. पाणिनि साफ तौर पर पूरे दक्षिण भारत को आर्यावर्त से बाहर मानते हैं.
दूसरी ओर, दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु में लंबे समय से यह धारणा रही है कि पूरा भारतीय भूभाग मूल रूप से द्रविड़ों का था. इस विचार के अनुसार, बाहर से आए आर्यों ने धीरे-धीरे द्रविड़ों को दक्षिण की ओर धकेल दिया. इस सिद्धांत में एक पीड़ा भी छिपी है, क्योंकि यह द्रविड़ों को एक ‘पराजित जाति’ के रूप में दिखाता है, जो आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है. इसके बावजूद यह विचार दक्षिण में मजबूत रहा है.
हाल के पुरातात्विक शोधों ने इस सोच को और धार दी है. सिंधु घाटी और तमिलनाडु की वैगई नदी घाटी के बीच सांस्कृतिक निरंतरता के संकेत मिले हैं, ऐसे प्रमाण, जो वैदिक काल से भी पहले के बताए जाते हैं. हालांकि तमिल संगम साहित्य का एक हिस्सा यह भी कहता है कि तमिलकम की उत्तरी सीमा वेंकट पहाड़ियां थीं, यानी आज का तिरुपति क्षेत्र और इस तरह आर्यावर्त तमिल भूभाग से बाहर ही रहता है.
आर्य बनाम द्रविड़ का यह बंटवारा ही उन तमाम उत्तर–दक्षिण टकरावों की जड़ है, जो अलग-अलग युगों में सामने आते रहे हैं यह आज सोशल मीडिया और यूट्यूब तक पहुंच गए हैं. एक तरफ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, तो दूसरी तरफ तर्कवाद, जो कई बार जरूरत से ज्यादा उग्र और चुनिंदा तथ्यों पर आधारित होता है. ऐसे माहौल में शब्दों की जंग और तेज होती जा रही है, और चुनाव आते ही यह टकराव और धार पकड़ लेता है.

शुरुआती ग्रंथों में द्रविड़ का उल्लेख बहुत सामान्य तरीके से मिलता है. वेदों में द्रविड़ शब्द का सीधा उल्लेख नहीं है, लेकिन वे विंध्य पर्वत के दक्षिण में रहने वालों को 'दक्षिणपथ' के निवासी बताते हैं. उत्तर वैदिक काल में दक्षिणपथ को धीरे-धीरे भारतवर्ष की दक्षिणी सीमा के रूप में स्वीकार किया जाने लगा. एक के बाद एक गैर-आर्य क्षेत्र उत्तर भारत के लेखकों की जानकारी में आते गए, हर क्षेत्र की अपनी भाषा, अपने देवता और अपनी परंपराएं थीं.
यह सब एक बाहरी नजर से देखा गया विवरण था. कुछ वैसा ही, जैसा कोलंबस ने कैरिबियन द्वीपों को देखकर अनुभव किया होगा... उसे लगा कि उसने अमेरिका खोज लिया, जबकि वह पहले से बसे हुए समाजों की भूमि थी.जहां वैदिक साहित्य में द्रविड़ का उल्लेख कम है, वहीं रामायण, पुराणों और जैन-बौद्ध ग्रंथों में द्रविड़ की मौजूदगी कहीं ज्यादा स्पष्ट है.
वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में द्रविड़ का उल्लेख दंडकारण्य के दक्षिण में किया गया है. सीता की खोज में राम की वानर सेना चोल और केरल (चेर) क्षेत्रों से गुजरती है और फिर समृद्ध पांड्य देश तक पहुंचती है. कावेरी नदी और मलय पर्वत, जो संभवतः पश्चिमी घाट हैं, द्रविड़ के प्रमुख स्थलचिह्न के रूप में सामने आते हैं. पांड्य तट से ही हनुमान एक छलांग में लंका पहुंचते हैं.
महाभारत में द्रविड़ का उल्लेख
महाभारत में द्रविड़ का उल्लेख और भी अधिक है. भीष्म पर्व में द्रविड़, केरल, वनवासी और पर्वतीय जनजातियों को भारतवर्ष का हिस्सा बताया गया है. युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के लिए सहदेव दक्षिण की ओर जाकर इन क्षेत्रों से कर एकत्र करते हैं. नकुल भी यहां अभियान चलाते हैं. अर्जुन का प्रसंग और भी रोचक है. कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद वे द्रविड़ क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, वहां अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं और स्थानीय योद्धाओं को अपनी सेना में शामिल करते हैं.
लोककथाओं के अनुसार अर्जुन ने यहां पांड्य राजकुमारी से विवाह भी किया. कुछ परंपराएं यह भी कहती हैं कि पांड्य राजा महाभारत युद्ध में शामिल थे. पुराणों में द्रविड़ अब 'द्रविड़ देश' बन जाता है यानी एक स्पष्ट भौगोलिक इकाई. 'पंच द्रविड़' की अवधारणा में आंध्र, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और द्रविड़ शामिल हैं. हालांकि द्रविड़ शब्द मूल रूप से तमिलकम के लिए ही इस्तेमाल होता था. यह एक ऐसी भाषाई उलझन, जो आज भी बनी हुई है.
इस मामले में एक रोचक भाषाई यात्रा भी सामने आती है. माना जाता है कि ‘तमिली’ शब्द तमिलकम से उत्तर गया, वहां ‘दमिली’, फिर ‘दमिल’, ‘द्रमिड़’ और अंततः संस्कृत में ‘द्रविड़’ बना, और फिर दक्षिण को लौटा दिया गया. यानी एक शब्द का पूरा चक्कर लगाकर बदल गया और अपने मूल स्थान पर पहुंच गया.
दक्षिण भारत में आज भी संस्कृत से आया ‘द्रविड़’ शब्द कई लोगों को खटकता है., लेकिन पुराणों में द्रविड़ को लेकर एक गर्व से भरा नजरिया भी मिलता है. एक कथा के अनुसार सातवें मनु, जो वर्तमान मानव जाति के पूर्वज माने जाते हैं, वह द्रविड़ के राजा थे.

राम सहित कई राजवंश अपनी वंशावली द्रविडेश्वर मनु से जोड़ते हैं. अगर इस तर्क को आगे बढ़ाया जाए, तो कोई शरारती सवाल भी पूछ सकता है, क्या आर्यों ने द्रविड़ पर आक्रमण किया, या उलटा हुआ? लेकिन यहीं चेतावनी जरूरी है. मिथकों को ज्यादा खींचने से इतिहास बिगड़ सकता है. इन्हें संकेत की तरह पढ़ना चाहिए, नक्शे की तरह नहीं.
जैन और बौद्ध धर्म जो उत्तर भारत में जन्मे वह दक्षिण के बारे में विस्तार से जानकारी देते हैं. प्राचीन जैन ग्रंथों में द्रविड़ का उल्लेख बार-बार मिलता है. मगध में पड़े अकाल के समय चंद्रगुप्त मौर्य का भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर जाना और श्रवणबेलगोला में संन्यास लेना, दक्षिण भारत में दिगंबर जैन परंपरा की शुरुआत मानी जाती है.
द्रविड़ भूमि और जैन धर्म
जैन धर्म यहां खूब फला-फूला और द्रविड़ भूमि जैन साधुओं के लिए एक पवित्र क्षेत्र बन गई. बौद्ध धर्म का प्रवेश अशोक के पुत्रों और भिक्षुओं के माध्यम से हुआ. दक्षिण और दक्कन की यात्राओं को बौद्ध ग्रंथों में ‘दक्षिण मार्ग’ कहा गया है. पाली साहित्य और जातक कथाओं में द्रविड़ का उल्लेख ‘दमिल’ नाम से मिलता है. अशोक के शिलालेखों में चोल, पांड्य, चेर और सत्यपुत्र जैसे राज्यों का जिक्र है. इन्हें मौर्य साम्राज्य से बाहर, लेकिन मित्र राज्य बताया गया है. यह भी साफ होता है कि मौर्य दरबार को दक्षिण की राजनीति, भूगोल और संस्कृति की पूरी जानकारी थी, जो एक विकसित तमिल सभ्यता का प्रमाण है.
जैन और बौद्ध धर्म का प्रसार युद्ध से नहीं, बल्कि प्रचार और संवाद से हुआ. दक्षिण के जंगल, पहाड़ और तट ध्यान और साधना के लिए अनुकूल थे. राजाओं के संरक्षण ने इन धर्मों को मजबूती दी. बौद्ध धर्म यहां से लंका तक पहुंचा, जहां वह आज भी जीवित है. हालांकि ये दोनों धर्म संस्कृत का इस्तेमाल करते थे, लेकिन वे वैदिक परंपरा की आलोचना से ही जन्मे थे.
द्रविड़ में इनका प्रसार सनातन धर्म के लिए सीधी चुनौती था. आज भी बौद्ध विचारधारा यहां जाति-आधारित व्यवस्था के खिलाफ एक वैकल्पिक आवाज बनी हुई है. फिर भी, समय के साथ सनातन परंपरा ने अपनी पकड़ दोबारा मजबूत कर ली और जैन-बौद्ध धर्म हाशिए पर चले गए.