डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने पिंजर और जेड प्लस जैसी सार्थक फिल्में बनाई हैं तो 'चाणक्य' के जरिए दूरदर्शन के जमाने में अपना लोहा मनवा चुके हैं. सेंसर बोर्ड के सदस्य डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने हाल ही में किसी भी तरह के प्रतिबंध के खिलाफ ठोस तथ्य पेश किए हैं. बॉलीवुड के गीतों में फूहड़ कहे जाने वाले शब्दों के बढ़ते दखल को लेकर उनसे हुई बातचीत के खास अंश:
सेंसर बोर्ड ने जब कुछ शब्दों की सूची जारी की थी तो आप कुछ किताबें लेकर अपनी बात को साबित करने के लिए बैठक में पहुंच गए थे.
हां, मराठी की चार किताबें थीं, जिसमें गालियों का कोश भी था. इसमें कहा गया कि यह असभ्य हैं पर अश्लील नहीं. यह भी सच है कि गालियां पुरुषों से कम, स्त्रियों से ज्यादा मिली हैं.
इन दिनों फिल्मों में बम और वोदका जैसे शब्द आ रहे हैं?
बम (नितंब) शब्द का इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन हमारे प्राचीन ग्रंथों में नितंब और स्तन शब्द का इस्तेमाल होता आया है. वह भी पार्वती और सरस्वती के संदर्भ में. पूरे प्राचीन ग्रंथ स्तन और नितंबों की तारीफ से भरे पड़े हैं. तो इसमें क्या अलग बात है? यहां तक कहा गया है कि देवताओं से अमृत मांगने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि चुंबन का रस ही पर्याप्त है.
तो जो कुछ लिखा जा रहा है, वह सही है?
मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं. मैं किसी भी चीज को उसके अतीत से जोड़कर देखता हूं, और जब मैं प्राचीन काल पर नजर डालता हूं तो देखता हूं कि समाज तब ज्यादा खुला था. आज संकुचित हो गया है.
इन दिनों शराब पर काफी गाने बन रहे हैं तो क्या सिनेमा को इससे बचना नहीं चाहिए?
शराब के विज्ञापन बताते हैं कि यह सेहत के लिए हानिकारक है लेकिन गानों में तो बात चार बोतल वोदका तक पहुंच गई है. या पार्टी यूं ही चालेगी...समाज इस तरह के गानों को स्वीकार कर रहा है. फिर सारी अच्छाई दिखाने का बीड़ा सिनेमा ने ही थोड़े उठा लिया है.
संगीत के क्षेत्र में जो हो रहा है, वह?
जो विचारधारा आज हमारी है, वह हम पर थोपी गई है. ऐसे में जहां तक फिल्मों का सवाल है तो यहां हर तरह की चीज है. लेकिन अब यह हम पर निर्भर करता है कि जिस तरह की शायरी हम कर रहे हैं, वह किस स्तर की है. क्या हमारा मुकाबला कालिदास से है? यह नए दौर के प्रतीकों का समय है.