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‘अब हिंदी फिल्मों में रेप विक्टिम को सुसाइड नहीं करना पड़ता, यह बहुत बड़ा बदलाव’

लोकप्रिय धारा की सैकड़ों फिल्मों में पर्दे पर रेप विक्टिम महिला चरित्रों को पुरुषवादी सोच के अनुरूप पेश किया गया. जहां रेप की यातना को किसी पुरुष की पारिवारिक 'इज्जत' या सम्मान लुटने के तौर पर दिखाया जाता रहा.

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आखिरी रास्ता के एक सीन में जया प्रदा और सदाशिव अमरापुराकरम
आखिरी रास्ता के एक सीन में जया प्रदा और सदाशिव अमरापुराकरम

हिंदी के पॉपुलर सिनेमा में महिला कैरेक्टर्स का फिल्मांकन हमेशा से बहस का मुद्दा रहा है. लोकप्रिय यानी कॉमर्शियल सिनेमा के लिए महिलाएं महज एक प्रोडक्ट भर करार दी जाती रही हैं. कहा गया कि फिल्म में किसी नायिका की उपस्थिति एक तरह से उसकी देह की उपस्थिति भर है. अगर पिछली हजारों फिल्मों पर नजर दौडाएं तो एक हद तक ऐसा सही भी लगता है. एक साल में अमेरिका से कई गुना ज्यादा फ़िल्में बनाने वाले भारत में ऐसा यूं ही नहीं है. इसकी वजह समाज में हमेशा से मौजूद वह सोच है जिसे पुरुषसत्तात्मक माना जाता है.  .

हालांकि समय-समय पर समानांतर सिनेमा में महिलाओं का चित्रण बेहतर नजर आया है. लेकिन व्यापक स्तर पर इस श्रेणी की फिल्में न तो आम दर्शकों तक पहुंच पाई और व्यापक जनमानस के विचार निर्धारण में भी उनकी कोई भूमिका नहीं दिखी. मसाला ही सही इस लिहाज से मॉस फिल्में अहम हो जाती हैं. पिछले कुछ सालों में महिलाओं के चित्रण और उनकी प्रस्तुति को लेकर मॉस यानी कॉमर्शियल सिनेमा का रूप बदला है. हिंदी सिनेमा जिसे बॉलीवुड कहा जाता है उसमें यह बदलाव बहुत अहम है.

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पहले रेप के नाम पर थी दकियानूस 'इज्जत थियरी' की स्थापना

बॉलीवुड की फिल्मों को अगर गौर से देखें तो महिलाओं को लेकर दशकों तक एक ख़ास दकियानूसी सोच की स्थापना की गई. लोकप्रिय धारा की सैकड़ों फिल्मों में पर्दे पर रेप विक्टिम महिला चरित्रों को पुरुषवादी सोच के अनुरूप पेश किया गया. जहां रेप की यातना को किसी पुरुष की पारिवारिक 'इज्जत' या सम्मान लुटने के तौर पर दिखाया जाता रहा. नायिका पर रेप के बाद उसके पिता, परिजन या प्रेमी को शर्मसार होता दिखाया जाता रहा. ऐसी सैकड़ों फिल्मों में रेप विक्टिम चरित्र को सुसाइड करना पड़ा. क्या ये सुसाइड जरूरी था? इन फिल्मों की नायिकाएं या तो हीरो की बहन होती थीं, या प्रेमिकाएं. जिन फिल्मों में रेप विक्टिम महिला चरित्रों ने सुसाइड नहीं किए उसमें उनके पिता/पति/प्रेमी को सुसाइड करते दिखाया गया.

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उदाहरण के लिए 1986 में आई अमिताभ बच्चन की फिल्म 'आख़िरी रास्ता' में ऐसी ही स्थापना है. अपने नेता से बेहद प्यार करने वाला एक भोला-भाला कार्यकर्ता डेविड (अमिताभ) जेल चला जाता है. पति के जेल जाने के बाद नेता के पास मदद के लिए आई मैरी (जया प्रदा) का रेप होता है. वो एक चिट्ठी लिखकर आत्महत्या कर लेती है. मैरी का चरित्र ऐसा है जो अपनी जिंदगी से बेहद प्यार करती है. पति और बेटा ही उसकी जिंदगी है. लेकिन रेप से उसे जलालत महसूस होती है. ये जलालत पितृसत्तात्मक है. मैरी सुसाइड कर लेती हैं. और फिर फिल्म में आगे मैरी के गुनाहगारों से डेविड के प्रतिशोध की कहानी दिखती है.

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इस प्रसंग में 1995 में आई रेखा की एक फिल्म 'अब होगा इंसाफ' का भी उदाहरण दिया जा सकता है. गांव की भोली-भाली लड़की जानकी (रेखा) को स्कूल टीचर रामचरण (फारुख शेख) से प्यार हो जाता है. दोनों शादी कर लेते हैं. शादी से नाखुश बड़ा भाई रामचरण को घर से निकाल देता है. बाद में रामचरण को पैरालाइसिस हो जाता है और दोनों पति-पत्नी संघर्ष करते हुए शहर पहुंचते हैं. यहां एक सेठ जानकी के पति के इलाज के बदले उसके जिस्म मांग करता है. बाद में जानकी का रेप होता है. पत्नी के रेप से जलालत महसूस कर रहे राम चरण की हत्या कर दी जाती है. इसी कड़ी में 1993 में आई मिथुन चक्रवर्ती की भी एक फिल्म है 'फूल और अंगार'. प्रोफेसर के रोल में नजर आए मिथुन की बहन का रेप होता है, जिसके बाद वो सुसाइड कर लेती है.

दशकों से पुरुषवादी सोच पर ठहरा रहा सिनेमा

कहने का मतलब यह कि ऐसे दर्जनों उदाहरण भरे पड़े हैं. रेप विक्टिम महिला चरित्रों का सुसाइड करना दिखाता है कि सिनेमा में महिलाओं को लेकर किस तरह का नजरिया चलता आया है. ऐसा नहीं है कि रेप विक्टिम चरित्र को कहानी में सुसाइड करते न दिखाया जाता तो उसका असर कथानक पर पड़ता. ऐसा करने से नायक का प्रतिरोध कतई कमजोर नहीं होता. एक बड़ी अवधि तक हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं का सिनेमा इसी पुरुषवादी सोच पर ठहरा नजर आता है. लेकिन शुरुआत 90 के मध्य से इसके दरकने की शुरुआत भी होने लगी.

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गौर करें तो 1995 के बाद से ऐसी दर्जनों फ़िल्में बनीं जिसमें रेप विक्टिम को सुसाइड नहीं करना पड़ा. इस अवधि में मात्र, भूमि, पिंक, मॉम, जैसी दर्जनों फ़िल्में हैं. इसमें कई फिल्मों ने तो बॉक्स ऑफिस पर बेहद उम्दा प्रदर्शन भी किया. दरअसल, फिल्मों के कंटेंट में बदलाव की वजह समाज में धीरे-धीरे ही सही पर परंपरागत सोच के थोड़ा कमजोर होना है. 90 के बाद महिलाओं को लेकर जिस तरह से सामाजिक संगठनों, न्यायपालिका और मीडिया में कई पहल शुरू हुई उसने फिल्मों में इस संकीर्णता को काफी हद तक दरकाया है.

उदारीकरण के बाद मसाला फिल्मों की जो एक नई संस्कृति दिखी- जिसमें वर्जिनिटी, लिव इन जैसी बातों पर खुलकर चर्चा हुई. उन्होंने भी फ़िल्मी कंटेंट को एक अलग नजरिया दिया. देशभर में ‘निर्भया आंदोलन’ (2012) के बाद तो फ़िल्मी कंटेंट में महिलाओं के चित्रण को लेकर बहुत बेहतर बदलाव हुए. धीरे-धीरे हो रहे इस बदलाव के पीछे पिछले एक दशक में उन नायिकाओं की मौजूदगी भी है जिनमें विद्या बालन (डर्टी पिक्चर, कहानी, तुम्हारी), प्रियंका चोपड़ा (मैरी कॉम, बाजीराव मस्तानी), दीपिका पादुकोण (बाजीराव मस्तानी, पद्मावत) और कंगना रनौत (तनु वेड्स मनु, क्वीन, सिमरन) शामिल हैं.

इन नायिकाओं की फिल्मों ने भी कहानी के सिरे को बदला. यह बहुत बड़ी बात है कि अब फिल्मों की कहानियों में महिलाओं के चरित्र को उस तरह से नहीं लिखा जा रहा है, जैसा पहले होता था. अब फ़िल्मी पर्दे पर 'इज्जत थियरी' के लिए किसी रेप विक्टिम चरित्र को सुसाइड नहीं करना पड़ रहा है. पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा का श्रीदेवी की मॉम (2017)  तक पहुंचना बड़ी बात है. धीरे-धीरे ही सही.

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