निर्देशकः नील माधव पंडा
कलाकारः हर्ष मायर, गुलशन ग्रोवर
यह ढाबे पर काम करने वाले तमाम छोटुओं में से एक (हर्ष) की कहानी है. टीवी पर एक दिन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के गरीबी से निकलकर राष्ट्रपति बनने की खबर सुनकर वह अपना नाम कलाम रख लेता है.
ढाबा मालिक भाटी (ग्रोवर) की प्रसिद्धि की चाह और 'सीनियर' वेटर (पीटोबास त्रिपाठी) की प्रतिद्वंद्विता के बीच खिलंदड़े अंदाज में जीते-पलते कलाम की जिंदगी राज परिवार के बालक रणविजय से दोस्ती के बाद बड़ा मोड़ लेती है.
यथार्थ का परीकथा से गठजोड़. इधर फटी शर्ट, टूटी खाट, रूखी रोटी, उधर शास्त्रीय सिंगार, शाही जामा और 56 भोग. विपन्न की तालीम के लिए हाथ बढ़ाता संपन्न. इसी मोड़ पर फिल्म का लैंडस्केप कलात्मक सौंदर्य से सज उठता है.
रेतीले मरूथल की पिलछौंहीं पृष्ठभूमि, सजे ऊंटडे, नक्काशीदार छतरियां. नीचे खनकता राजस्थानी लोकसंगीत. भाटी के बेसन के गट्टों की दीवानी मेम लूसी को कलाम के साथ राजस्थान घुमाने के क्रम में निर्देशक फिल्म की खूबसूरती में और इजाफा करता है.
डेढ़ घंटे के इस किस्से में दर्शक कलाम के साथ सहानुभूति रखते हुए लगातार यह जानने को जिज्ञासु रहता है कि फिर क्या हुआ. सब कुछ प्रत्याशित नहीं है यहां. एक अच्छे माहौल में हर्ष और दूसरे छोटे-बड़े कलाकारों का खुशनुमा अभिनय काफी राहत देता है.