
ऋषभ शेट्टी ने अपनी पहली फिल्म 'रिक्की' और 'कांतारा' में जंगल बनाम इंसानों का जो कनफ्लिक्ट दिखाया, वो एक रियल घटना पर आधारित था. इंडस्ट्री लगाने के लिए जंगल की जमीनें लगा रही सरकार का, गांववालों ने तगड़ा विरोध किया था. चलिए बताते हैं क्या था वो पूरा विवाद...
डायरेक्टर-एक्टर 'कांतारा' ने 2022 में दर्शकों को एक ऐसी कहानी पर्दे पर दिखाई जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी. इस कहानी में लव स्टोरी थी, एक्शन था और माइथोलॉजी थी. मगर इसके सेंटर में एक ऐसी थीम थी जिसपर सिनेमा, खासकर मेनस्ट्रीम फिल्में बहुत ज्यादा बात नहीं करतीं. ये थीम थी इंसान बनाम प्रकृति.
'कांतारा' की कहानी जंगल में बसे एक गांव में घटती है. एक कड़क फॉरेस्ट ऑफिसर गांववालों की जमीन को रिजर्व फॉरेस्ट रिजर्व में शामिल करने के लिए कड़े कदम उठाने लगता है. उसका कहना है कि ये जमीन सरकार ने रिजर्व फॉरेस्ट बनाने के लिए चिह्नित की है और इसपर गांव के लोगों का होना प्रकृति को नुकसान पहुंचा रहा है. इस फॉरेस्ट ऑफिसर और गांव वालों का टकराव वो मोमेंट है, जहां से फिल्म की कहानी में ट्विस्ट आने शुरू होते हैं.

मगर क्या आप जानते हैं कि फॉरेस्ट ऑफिसर बनाम जंगल के लोग वाला ये प्लॉट ऋषभ ने एक रियल घटना से इंस्पायर होकर लिया है? इस कहानी की प्रेरणा उन्होंने दक्षिण कर्नाटक में हुए रियल कनफ्लिक्ट से ली थी, जहां से वो खुद आते हैं. इस घटना में जंगल के गांवों में रहने वाले लोग सरकार के सामने खड़े हो गए थे. इस कनफ्लिक्ट ने सिर्फ 'कांतारा' ही नहीं, ऋषभ की पहली फिल्म को भी इंस्पायर किया था. चलिए बताते हैं क्या था ये मामला...
जमीनें बचाने के लिए सरकार के सामने अड़ गए थे गांववाले
2010 में कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले की एक घटना सिर्फ कर्नाटक ही नहीं, देशभर की खबरों में रही थी. 1996 में कर्नाटक इंडस्ट्रियल एरियाज डेवलपमेंट बोर्ड ने, मैंगलोर तालुका के कलावारु गांव में जमीन का एक बड़ा हिस्सा इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के लिए लेने की नोटिफिकेशन जारी की थी. बाद में इस जमीन को मैंगलोर रिफाइनरी एंड पेट्रोकेमिकल्स प्रोजेक्ट लिमिटेड प्रोजेक्ट के लिए इस्तेमाल किया गया.
इसमें एक किसान ग्रेगरी पटराव की 14.27 एकड़ जमीन भी थी. उनका घर, पशुओं को रखने की जगह और एक छोटा सा जंगल भ इसी जमीन पर था. जमीन के बदले मुआवजा और उन जमीनों पर लगने वाली इंडस्ट्री में नौकरी देने का वादा, बोर्ड की तरफ से किया गया था. मगर ग्रेगरी अपनी जमीन ना देने पर अड़े हुए थे, उनके लिए ये सिर्फ जमीन नहीं, उनकी पूरी विरासत थी. सरकार की तरफ से ग्रेगरी और उनके परिवार के खिलाफ इस मामले में कई क्रिमिनल केस फाइल किए गए.
ग्रेगरी ने भी कोर्ट में सरकार के खिलाफ केस किया, मगर नतीजा उनके पक्ष में नहीं रहा. आखिरकार सरकारी बलों की निगरानी में ग्रेगरी की जमीन पर बुलडोजर चला. इस घटना का वीडियो यूट्यूब पर आज भी है, जिसमें ग्रेगरी और उनके परिवार का दुख साफ दिखता है. सरकार के खिलाफ ग्रेगरी का ये प्रतिरोध उस समय बहुत चर्चा में रहा था.
कैसे ऋषभ की पहली फिल्म में उतरी जमीन की लड़ाई?
कर्नाटक के उडुपी जिले की कुंडापुर तालुका से आने वाले ऋषभ खुद बंट समुदाय से आते हैं. ये ऐतिहासिक रूप से जंगल पर निर्भर वारियर समुदाय रहा है और इन्हें प्रकृति के बहुत करीब माना जाता है. और शायद इसीलिए प्रकृति के करीब रहने वाले लोगों का, अपनी जमीनों के लिए संघर्ष ऋषभ के दिल में घर कर गया.
इस घटना ने ऋषभ को इतना प्रभावित किया था कि उन्होंने ग्रेगरी का घर ढहाए जाने का सीन अपनी, बतौर डायरेक्टर अपनी पहली फिल्म 'रिक्की' में रीक्रिएट किया था. ये फिल्म नक्सलवाद के बैकग्राउंड पर सेट एक लव स्टोरी थी. फिल्म का हीरो अपनी प्रेमिका को छोड़कर, नौकरी करने एक साल के लिए बाहर जाता है. लौटने पर उसे पता चलता है कि उसकी प्रेमिका नक्सलवादी बन चुकी है. उस लड़की ने ऐसा कदम क्यों उठाया? वो क्या परिस्थितियां थी? इन्हीं सवालों को सहानुभूति की नजर से दिखाने के लिए ही शायद ऋषभ ने 'रिक्की' को एक लव स्टोरी बनाया था.
उस समय ऋषभ का ये मानना था कि लोग बहुत गंभीर सिचुएशन में आने के बाद ही लोग नक्सली बनते हैं. द हिंदू को दिए एक पुराने इंटरव्यू में ऋषभ ने बताया था, 'ग्रेगरी वाली घटना को हमने उस एक्सट्रीम घटना के तौर पर दिखाया है जिसकी वजह से हमारी हीरोइन नक्सलवाद का हिस्सा बन जाती है.' उन्होंने कहा था कि इस घटना के जरिए उनकी फिल्म, उपजाऊ जमीनों पर ऐसी इंडस्ट्री सेट करने पर सवाल उठाती है, जो अनउपजाऊ जमीनों पर भी लगाई जा सकती थीं.

जंगल-जमीन के सवाल से कैसे निकली 'कांतारा' की कहानी
कर्नाटक इंडस्ट्रियल एरियाज डेवलपमेंट बोर्ड ने 90s के दशक में, दक्षिण कर्नाटक में इसी तरह कई जमीनों का अधिग्रहण किया था. तब भी ग्रेगरी जैसे मामले सामने आते रहे. कई लोगों ने खुद को विरासत में मिली जमीनें देने से इनकार किया, सरकार और सुरक्षा बलों का प्रतिरोध किया. मगर ग्रेगरी की तरह ही वे भी नाकाम रहे.
'कांतारा' के प्रमोशन के समय ऋषभ ने कई इंटरव्यूज में बताया था कि ऐसी ही एक कहानी उनके एक कजिन ने उन्हें सुनाई थी. उनका ये कजिन बहुत किस्सेबाज था तो अक्सर उसकी कहानियों में अतिशयोक्ति भी होती थी. तो उसने ऋषभ से जो बात कही उसका अंदाज कुछ यूं था कि 'पिताजी को फॉरेस्ट ऑफिसर की गोली लग ही जाती मगर पंजुरली देव ने आकर बचा लिया.' कजिन की इस एक लाइन ने ऋषभ को आईडिया दिया कि अपने जंगलों में चली आ रही देव-वंदना की परंपराओं को जोड़कर प्रकृति बनाम मनुष्य की कहानी कही जा सकती है.
ऋषभ अब 'कांतारा चैप्टर 1' में जो कहानी लेकर आ रहे हैं, उसमें भी यही थीम है. मगर इस बार कहानी करीब 1500 साल पहले की है. रेलर देखकर अनुमान लगाने की कोशिश करें तो कुछ ऐसा लगता है कि ये कहानी वो पहली कोशिश दिखाती है जब राजा ने जंगल को अपने अधीन करने की कोशिश की थी और जंगल के देव इस दुस्साहस के लिए उसपर कुपित हुए थे. 'कांतारा चैप्टर 1' के ट्रेलर को तो दर्शकों से काफी पॉजिटिव रिस्पॉन्स मिला है. अब देखना है कि ऋषभ के अपने इलाकों और जंगलों से निकली हुई ये कहानी इस बार थिएटर्स में क्या कमाल करती है.