scorecardresearch
 

Film Review: पूरी तरह से निराश करती है 'कागज के फूल्स'

मैं लेखक हूं, मैंने एक कहानी लिखी है, मेरी कहानी छपती नहीं, और इसी वजह से मैं सबकी नजर में नाकारा हूं क्योंकि मैं सच में विश्वास रखता हूं. इन्ही बातों को एक फिल्म के माध्यम से दर्शाने की पूर्ण कोशिश की है डायरेक्टर अनिल कुमार चौधरी ने.

Advertisement
X
Film Kaagaz ke fools poster
Film Kaagaz ke fools poster

फिल्म का नाम: कागज के फूल्स
डायरेक्टर: अनिल कुमार चौधरी
स्टार कास्ट: विनय पाठक, मुग्धा गोडसे ,रायमा सेन, सौरभ शुक्ला, अमित बहल ,राजेंद्र सेठी
अवधि: 109 मिनट
सर्टिफिकेट: U/A
रेटिंग: 1 स्टार

मैं लेखक हूं, मैंने एक कहानी लिखी है, मेरी कहानी छपती नहीं, और इसी वजह से मैं सबकी नजर में नाकारा हूं क्योंकि मैं सच में विश्वास रखता हूं. इन्ही बातों को एक फिल्म के माध्यम से दर्शाने की पूर्ण कोशिश की है डायरेक्टर अनिल कुमार चौधरी ने. 109 मिनट की यह फिल्म क्या आपका मनोरंजन करेगी? आइए जानते हैं:

कहानी
दिल्ली के मॉडल टाउन इलाके की कहानी है जहां रहने वाले पुरुषोत्तम त्रिपाठी (विनय पाठक ) एक लेखक है जिसकी किताब 'एक ठहरी सी जिंदगी' तैयार है लेकिन कोई उसे छापने को तैयार नहीं और उनकी पत्नी निक्की (मुग्धा गोडसे) को लगता है की पुरुषोत्तम ज्यादा कोशिश नहीं करते, आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति नहीं रखते इत्यादि. पुरुषोत्तम एक एड एजेंसी में काम करता है लेकिन किन्ही कारणों से नौकरी छोड़नी पड़ती है और आखिरकार एक ही मकसद रहता है खुद को, पत्नी और घरवालों की नजर में साबित करना. फिर धीरे-धीरे जिंदगी की आपाधापी में कभी नूडल्स और राजमा की लड़ाई तो कभी अंधविश्वास के लिए कलह. फिर निक्की का भाई (सौरभ शुक्ला) और कुकु सेठ (राजेंद्र सेठी) के बार में काम करने वाली रुबीना (राइमा सेन) के एंट्री और कहानी आगे बढ़ती जाती है.

Advertisement

विनय पाठक एक बार फिर से उसी अंदाज में हैं जो आपने उनकी पिछली फिल्मों में पहले से ही देख रखा है, इस बार एक पति और लेखक के रूप में अपने किरदार को निभा रहे हैं तो वहीं अभिनेता सौरभ शुक्ला का प्रयोग पूरी तरह से कर पाने में डायरेक्टर असफल रहे हैं. मुग्धा जो की एक पंजाबी परिवार का हिस्सा दिखाई गयी हैं लेकिन संवाद बोलते वक्त उनकी हिंदी भी बड़ी मुश्किल से निकलती है जिसकी वजह से उनके चेहरे और कहने के भाव बिल्कुल विपरीत से लगने लगते हैं, राइमा सेन ने अपने रुबीना के किरदार को एक हद तक जीवंत किया है लेकिन कुल मिलाकर यह फिल्म मनोरंजन के माध्यम से आपको संतुष्ट कर पाने में असमर्थ दिखती है.

फिल्म में एक भी गाने की जरूरत नहीं है क्योंकि जिस पल भी गीत आते हैं वो फिल्म की लय को खराब कर देते हैं अचानक से शान की आवाज में विनय पाठक आपको गीत गाते हुए नजर आते हैं और वहीं बैकग्राउंड में भी सीन के दौरान म्यूजिक आपको संतुष्ट नहीं करता है. फिल्म में कुछ संवाद हास्यप्रद हैं जैसे 'अंगूठी के नाग को नगीना कहते हैं, जो प्यार करके धोखा दे उसे कमीना कहते हैं ' तो कुछ ज्ञान से भरपूर - 'राइटर वही कहलाता है जिसका लिखा लोगों तक पहुंचे ' और 'कभी किसी के घर का इमोशनल डस्टबिन नहीं बनना चाहिए'. फिल्म 'विकी डोनर' जैसे सास बहु के सीन आपको इस फिल्म में भी नजर आते हैं.

Advertisement

यह फिल्म 109 मिनट की ही है लेकिन देखते-देखते काफी बड़ी लगने लगती है और पूरी फिल्म के दौरान शायद ही आप कभी 3-4 सेकंड के लिए हंसते हुए नजर आएं, तो इस हफ्ते अपने पैसे और वक्त को आप बचाकर किसी और काम में लगा सकते हैं.

क्यों देखें?
अगर आप अभिनेता विनय पाठक या मुग्धा गोडसे या राइमा सेन के बहुत बड़े दीवाने हैं तो ही ये फिल्म देखें.

Advertisement
Advertisement