
सोनी लिव की एक कमाल की आदत है, बिना किसी शोर-शराबे के बेहतरीन शोज रिलीज करके चुप बैठ जाने की. फिर जनता बैठकर इन्हें खुद डिस्कवर करती रहती है और हैरान होती रहती है. इसबार उन्होंने ये कमाल किया है 'ब्लैक वाइट एंड ग्रे' के साथ.
पुष्कर सुनील महाबल के डायरेक्शन में बनी ये 6 एपिसोड की सीरीज, पहले ही एपिसोड से आपका अटेंशन कब्जा लेती है. लगभग हर 10 मिनट बाद नैरेटिव पलटता हुआ लगता है. आप की सहानुभूति एक किरदार के साथ जुड़ने लगती है तभी कुछ ऐसा सामने आता है कि आप उस किरदार पर सवाल करने लगते हैं. मगर कुछ देर बाद ये शो फिर से आपको अपनी सहानुभूति का कांटा एडजस्ट करने को कहता है.
ये खेल अंत तक जारी रहता है और कांटा बदलते इमोशंस के लिए एक ठिकाना खोजते हुए आप अंत तक उस एक ठौर की तलाश में रहते हैं जिसे 'सच' मानकर तसल्ली पा सकें. लेकिन क्या इस कहानी में 'सच' जैसा कुछ है? या फिर ये शो सिर्फ एक जाल है जो आपको केवल और केवल वो एक चीज डिलीवर करने के लिए बनाया गया है जो किसी भी कंटेंट का सबसे पहला मकसद होता है- एंटरटेनमेंट. दिमाग को उलझाए रखने वाला दमदार एंटरटेनमेंट!
कहानी की कहानी
एक यंग लड़का बेहद घबराया हुआ एक बड़ी सी गाड़ी से उतरकर, कांपते हाथों से दुकान पर सिगरेट खरीद रहा है. उसके हाथों पर खून है, गाड़ी के गेट के हैंडल पर खून है. आपकी आंखें लड़के के पहनावे को जज कर रही हैं, उसे देखकर तो नहीं लगता कि वो ऐसी गाड़ी का मालिक खुद हो सकता है. फिर कहानी में कुछ 'रियल' पुलिसवालों की डाक्यूमेंट्री फुटेज आती है, जो आपको बताते हैं कि जब उन्हें ये 'रियल' सीरियल-किलर का केस मिला था तो इसके डिटेल्स कितने चौंकाने वाले थे. यहीं से आप फंसने लगते हैं.
आगे आप देखते हैं कि ये गाड़ी एक पॉलिटिशियन की है, जिसकी बेटी के साथ ये लड़का रिलेशनशिप में है. लड़का, पॉलिटिशियन के ड्राईवर का बेटा है. लड़की ने ये स्पष्ट कर दिया है कि इसमें प्यार-व्यार जैसा कुछ नहीं है, सब सिर्फ फन के लिए है. इस फन में दोनों एक होटल जाने का प्लान बना रहे हैं. 'विवाद के बाद प्रेमी ने की प्रेमिका की हत्या' वाली लाइनें आपके दिमाग में चलने लगती हैं. आपको पता चलता है कि घटना की उस रात सिर्फ एक लड़की की ही हत्या नहीं हुई, तीन और हत्याएं हुई हैं. जिनमें एक सीनियर पुलिस ऑफिसर, एक टीनेजर और एक कैब ड्राईवर भी शामिल है.
आप अंदाजा लगाने लगते हैं कि क्या हुआ होगा और लड़के को भयानक सीरियल किलर मानने लगते हैं. मगर तभी डॉक्यूमेंट्री फुटेज में 'रियल' लड़का भी आ जाता है और कहता है कि जब वो पूरे केस की 'सच्चाई' बताएगा तो सब बदल जाएगा. अभी तो आपने इस लड़के का खूनी होना स्वीकार किया था. पर अब आपकी जिज्ञासा कुलबुलाने लगती है और प्रेमियों को खूठे केस में फंसाने जाने की कहानियां भी याद आने लगती हैं.
अब आपके सामने दो हिस्सों में कहानी चलने लगती है- एक तरफ 'रियल' लोग मामले का घटनाक्रम बता रहे हैं, दूसरी तरफ पूरी कहानी ड्रामेटिक तरीके से री-क्रिएट हो रही है. जो रहस्य खुलते हैं, जो बातें डॉक्यूमेंट्री फुटेज में सामने आती हैं उनसे ना सिर्फ आपका मुंह खुला रह जाता है बल्कि आपका शॉक और सरप्राइज बढ़ता भी रहता है. हर नए ट्विस्ट के साथ आपकी संवेदना, सहानुभूति और नैतिकता कांटा बदलने लगती है.
ब्लैक-वाइट का खेल और ग्रे लकीर
ओटीटी पर पिछले कुछ समय में डॉक्यू-ड्रामा क्राइम स्टोरीज बहुत पॉपुलर हुई हैं. शायद इंसानी तौर पर कोई गूढ़ सत्य खोज लेने की हमारी भूख इसकी वजह है. या शायद हमें व्यक्तिगत मूल्यों की संतुष्टि के लिए स्पष्ट नजर आ रहे यथार्थ से अलग, अपनी कल्पनाओं के तंतुओं से एक सुविधाजनक और सुलभ सत्य बुन लेने की कोई बीमारी है. 'ब्लैक वाइट एंड ग्रे' आपकी कल्पना के इन्हीं कीड़ों को चारा डालकर आपको फंसाता है.
असल में ये कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं, मॉक्यूमेंट्री है. यानी इसमें डॉक्यू-ड्रामा स्टाइल की नकल उतारी गई है और कहानी फिक्शनल ही है. पहचान में आने वाले चेहरों के साथ घटनाओं का जो ड्रामेटिक री-क्रिएशन आप देख रहे हैं, वो तो फिल्मी है ही. जिसे आप रियल डॉक्यूमेंट्री फुटेज समझ रहे हैं वो भी ड्रामेटिक ही है, फिक्शनल कहानी पर बुनी गई. बस दोनों का ट्रीटमेंट अलग है, दोनों को शूट अलग-अलग तरीके से किया गया है.
'कोटा फैक्ट्री' में नजर आ चुके मयूर मोरे, 'क्रैकडाउन' में नजर आ चुकीं पलक जायसवाल, डायरेक्टर-एक्टर तिग्मांशु धूलिया और जानेमाने एक्टर देवेन भोजानी ड्रामेटिक री-क्रिएशन के कलाकार हैं. लेकिन डॉक्यूमेंट्री लगने वाले हिस्से में नजर आ रहे लोग भी एक्टर्स ही हैं. रियल आरोपी बने संजय कुमार साहू की कैमरा भेदने वाली नजरें, गर्दन की हरकतें और आवाज की टोन उन्हें, मयूर मोरे के मुकाबले एकदम रियल बना रही है. मगर 'ब्लैक वाइट एंड ग्रे' की ये भी खासियत है कि संजय के मुकाबले, कहानी के ड्रामेटिक वर्जन में यही किरदार प्ले कर रहे मयूर मोरे थोड़े ज्यादा फिल्मी लगते हैं. रील-रियल के अंतर में उन्हें ऐसा ही लगना भी था.
कुछ ऐसा ही मामला देवेन भोजानी और विनोद वानिकर का भी है. दोनों एक ही किरदार का ड्रामेटिक और डॉक्यूमेंट्री वाला वर्जन निभा रहे हैं. मगर दोनों की एक्टिंग इस फर्क को मजबूत करती है. हालांकि, इस शो का ब्लफ पहली बार पकड़ में भी इसी वजह से आता है कि पुलिस ऑफिसर का डॉक्यूमेंट्री वर्जन प्ले कर रहे एक्टर के एक्सप्रेशन थोड़े ज्यादा ड्रामेटिक लगते हैं. कहानी के कुछ ट्विस्ट बाकियों के मुकाबले थोड़े ढीले भी हैं, जैसे एक मरे हुए किरदार का अचानक जिंदा हो जाना. इस कलाकारी से शो का डॉक्यूमेंट्री वर्जन थोड़ा कम विश्वसनीय लगने लगता है और यहां दोनों वर्जन के बीच अंतर कम हो जाता है. ऐसे ही कुछ और मोमेंट्स भी हैं. मगर दमदार परफॉरमेंस के लिए तिग्मांशु का नाम अलग से लिया जाना जरूरी है. उनका काम देखने के बाद उन्हें और ज्यादा प्रोजेक्ट्स में देखने की तलब लगने लगती है.
'ब्लैक वाइट एंड ग्रे' में दो अलग-अलग रियलिटीज का ये खेल एक और लेवल पर दिलचस्प लगता है जब ये एक पॉपुलर जर्नलिस्ट के किरदार को सुविधाजनक स्टाइल से लालची दिखाने की कोशिश करता है. अभिनव गुप्ता का ये किरदार एक डायलॉग से ही इस जर्नलिस्ट की पहचान पर इशारा कर देता है. मगर इस किरदार की नैतिकता का कांटा जिस तरह डावांडोल है उसे देखकर कोई इन रियल लाइफ जर्नलिस्ट के एथिक्स पर भी सवाल उठा सकता है. मगर ये याद रखना जरूरी है कि 'ब्लैक वाइट एंड ग्रे' रियल-रील के इसी खेल में तो आपको उलझाने निकला है. यहां देखें 'ब्लैक वाइट एंड ग्रे' का ट्रेलर:
कुल मिलाकर 'ब्लैक वाइट एंड ग्रे' एक एंगेजिंग और दमदार शो है जिसे एक्टर्स की परफॉरमेंस ने शानदार बना दिया है. अपनी छोटी-छोटी कमियों के बावजूद ओवरऑल ये दिमाग को उलझाने वाला नैरेटिव का खेल लेकर आया है. ये खेल इतना दिलचस्प है कि इस बात पर बहुत बाद में ध्यान जाता है कि आपको लड़का-लड़की का नाम भी नहीं बताया गया है. ना ड्रामेटिक री-क्रिएशन में और ना डॉक्यूमेंट्री स्टाइल वाली कहानी में. स्क्रीन पर आपके सामने जो घट रहा है, उसके रिएक्शन में आपके दिमाग में जो कुछ चलता है वो इसे देखना मजेदार बना देता है.