जाने-माने निर्देशक प्रकाश झा की सीरीज आश्रम के रिलीज होते ही इसके चौथे सीजन को लेकर चर्चा चल रही है. प्रकाश न केवल इसपर अपना पक्ष रखा बल्कि बदलते सिनेमा के दौर, प्रोपेगेंडा फिल्में, साउथ वर्सेज बॉलीवुड जैसी कई मुद्दों पर Aajtak.in खुलकर बातचीत की.
खबर है कि आश्रम का चौथा सीजन भी आने वाला है?
- ये खबर मुझे नहीं पता है. चौथे सीजन के बारे में बाबा ही बता पाएंगे. थर्ड के रिस्पॉन्स के हिसाब से ही चौथे सीजन की तैयारी की जाएगी. तो यह अब बाबा और दर्शकों पर पूरी तरह निर्भर करता है.
आपने सिनेमा और उसकी मेकिंग के बदलते हुए दौर को देखा है. आप इस बदलाव पर कैसे रिस्पॉन्स करते हैं?
- देखें, जब आपकी उम्र बढ़ती है, तो आप पहले जैसे कहां रह पाते हो. आपका अनुभव बढ़ता है, रेफरेंसेस बढ़ते हैं, आपकी लाइब्रेरी व संबंध सबकुछ ग्रो करता जाता है. उसी तरह से सिनेमा भी बढ़ रहा है. हम टेक्नॉलजी के पैमाने में आगे बढ़े हैं लेकिन कंटेंट तो वही है न. कंटेंट आपको इंगेज नहीं करता है, तो सबकुछ बेमानी सा नजर आता है. कंटेंट को इंगेज करने के लिए हम एक ही तरह की चीजें नहीं इस्तेमाल कर सकते हैं. जब हम हल्ला, हाय तौबा मचाते हैं कि सेक्स बहुत है, वायलेंस बहुत है, तो क्या चीजें उसी से केवल चलती हैं. नहीं न. सबसे जरूरी बात यही है कि कहानी हम कैसे पेश करते हैं और दर्शक उससे कैसे जुड़ते हैं. अब सारा फोकस उसी पर होगा. सिनेमा टेक्नॉलजी पर ग्रो कर भी जाए, प्लैटफॉर्म के ढेर सारे ऑप्शन मिल जाएं लेकिन कहानी जरूरी है. आदमी कहानियों के जरिए ही एंटरटेन होना चाहता है.
फिल्मों में कई बार बॉक्स ऑफिस का प्रेशर डायरेक्टर्स की क्रिएटिविटी पर भी डाला जाता है. आप मानते हैं ओटीटी ने उन्हें क्रिएटिव फ्रीडम दी है?
- दो तरीके हैं, एक तो हम सिनेमा देखते हैं सामुहिक रूप से और जब एकांत देखते हैं, तो भाषा अलग सी होती है. हमारी ट्रेनिंग भी उसी हिसाब से की जाती है. हम एक मर्यादा और शऊर में ग्रुप में बैठे सिनेमा का लुत्फ उठाते हैं. हमें लिबर्टी तो उतनी ही दी जाती है न. हम दायरे में रहकर ही अपनी बात करते हैं.लिबर्टी को जिम्मेदारी के साथ निभाई जाए, तो बेहतर है. जो इस परवरिश से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं, तो वो औंधे मुंह भी गिरते हैं. हमारे समाज की ये बात है कि हम जल्दी ऑफेडेंड हो जाते हैं. कोई लड़की जींस पहन कर निकल जाए, तो हमें बुरा लग जाता है. जल्द ही किसी बात का बुरा मानना जैसे हमारे समाज का जन्मसिद्ध अधिकार बन गया हो. इसी में नेगोशियेट कर रहना पड़ता है हमें.
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आश्रम ने कई सारे विवाद झेले हैं. आपको लगता है कि सीरीज की सक्सेस ने इन जख्मों को कम किया है?
- ऐसा है कि जब भी सामाजिक विषयों पर बातचीत होगी, तो निगेटिव लोग होंगे. हमारा समाज ही ऐसा है, कई बार लगता है कि वक्त के साथ चीजें ठीक हो जाएंगी. नहीं हो पाती हैं, और जब सामने आती हैं, तो बर्दाश्त करना पड़ता है. ये सच्चाई है, हमारे समाज का विहेवियर ऐसा ही है. हम कहां लड़ते रहें जिंदगीभर. संवाद की स्थिति कभी रही नहीं. तो ऐसे में बर्दाश्त करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है.
बॉक्स ऑफिस की बात करें, तो कई स्टार पावर भी इसके सामने फेल हुए हैं. आप मानते हैं दर्शक अब समझदार हो गए हैं?
-ये कोई आज की बात नहीं है. दर्शक हमेशा से समझदार थे. वे स्टार्स को थोड़ी बहुत लिबर्टी दे देते हैं, दो चार दिन दिनों की लेकिन उनकी फिल्म डूब ही जाती है. ये दर्शक बड़े-बड़े स्टार्स को समझा देते हैं कि वे जबरदस्ती ठूंसी हुई फिल्में नहीं बर्दाश्त करेंगे. वहीं अगर कहानी अच्छी हो, तो वे एक दूसरे की सुनकर आना शुरू करते हैं. वर्ड ऑफ माउथ पर फिल्में जबरदस्त तरीके से चल जाती हैं.
साउथ इंडस्ट्री और बॉलीवुड में चल रहे विवाद पर आप क्या कहना चाहेंगे?
ये इमानदारी की बात है कि कहीं कोई विवाद नहीं हुआ है. हम तो अब भी आपस में मिल जुलकर काम कर ही रहे हैं. देखिए बात सिंपल है, जो फिल्में अच्छी हैं वो चलेंगी और नहीं अच्छी वो नहीं चलेगी. फिल्में थोड़ी न लैंग्वेज देखती है.
आपने आश्रम से बॉबी देओल के करियर को एक नई दिशा दी है. सीजन के साथ आपके रिश्ते में कितना बदलाव आया है. वो डायरेक्टर के एक्टर हैं?
कमाल का एक्टर है. इंसान भी कमाल का है. वो जिस तरह से काम में डूबता है, वो बयां नहीं किया जा सकता है. मैं तो हमेशा से उसका कायल रहा हूं. आश्रम के जरिए मौका मिला है. हमारे लिए बहुत सौभाग्य की बात है कि इस सीरीज में एक से बढ़कर एक एक्टर्स जुड़े हैं.
अब आश्रम तो आपके लिए इमोशन बन गया होगा?
ऐसा कुछ नहीं है, आश्रम मेरे लिए इमोशन नहीं है. हम एक दूसरे से दोस्त के तौर पर मिलते हैं. अब आश्रम हो या न हो, कोई फर्क नहीं पड़ता है. अपने काम से इमोशनली जुड़ना बहुत गलत बात है. बहुत ऑब्जेक्टिव रहना पड़ता है. हम तो सीन शूट करते हैं और सीन नहीं जंचता है, तो काटकर फेंक देते हैं. वहां इमोशन काम नहीं करता है. अब चाहे कितनी भी ठंड रातों में शूट हुआ हो या बिना सोए शूट किया गया हो. अगर वो सीन की जरूरत नहीं है, तो निकाल फेंकने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है.
फिल्मों को लेकर इन दिनों प्रोपेगैंडा टर्म का इस्तेमाल किया जाता है? आप इस टर्म पर क्या कहना चाहेंगे?
ये तो होता है. जो सत्ता में काबिज रहेगा, वो अपनी छवि के बारे में निश्चित ही सोचेगा. जब मैंने राजनिति बनाई थी, तो पूरे देश पर यह चर्चा चली थी कि सोनिया गांधी पर कैटरीना कैफ का किरदार तैयार किया गया है. दुनियाभर में उस फिल्म पर सवाल खड़े कर दिए थे. जब फिल्म सेंसर पर गई, तो कांग्रेस ने सवाल खड़े कर दिए थे. जिसकी भी सत्ता होती है, वो अपनी छवि को लेकर चिंतत रहता है. ये स्वाभाविक भी है. फिल्मकार होने के नाते हमें इन सब चीजों से नेगोशियेट करना पड़ता है. अब इससे बचा भी नहीं सकता है न.
हमारा देश धर्म को लेकर खासा सेंसेटिव रहा है. आश्रम कहीं न कहीं अंधभक्त कल्चर पर एक तमाचा है? कितना रिस्क लेना पड़ता है?
अगर आपको इन सब चीजों से बचना हो, तो बच्चों की कहानियां या किताबें लिखें. अब ऐसा काम करेंगे, जिसमें समाज, धर्म, प्रचारक आदि की विवेचना होगी, तो जाहिर है लोगों के व्यूज होंगे. आप तैयार रहें उनका सामना करने के लिए. मैं हमेशा सोचता हूं कि निगेटिविटी खड़ी होती है, तो हजारों पॉजिटिव चीजें भी आती हैं. आपको अपने विश्वास व जिम्मेदारी में खुद को कायम रखने की जरूरत है. संवाद जब भी होगा, उसे करने को तैयार हैं हम. अब आप संवाद ही नहीं करेंगे और हड़कंप करेंगे, तो वो भी झेला ही है. जैसा कि भोपाल में लोगों ने मेरे साथ किया, लोग लाठी लेकर आए, शीशे तोड़ दिए, स्याही फेंक दी. बिना किसी संवाद के चले गए. लेकिन मैं कहां डरा, अपना काम तो कर लिया है. ये ही सच है हमारे समाज का, अब क्यों होता है और क्या होता है, इस डिबेट में नहीं पड़ सकता. ये जवाब ढूंढता रहता, तो फिल्में थोड़ी ही बना पाता. मेरी जितनी भी फिल्में बनी हैं, सब में कोई न कोई विवाद रहा है. उस चैप्टर को बंद कर आगे बढ़े. ऐसा नहीं है कि दुख नहीं होता, तकलीफ नहीं होती या डर नहीं लगता, लेकिन इन तकलीफों के बावजूद हमें जो कहना है, वो तो कहेंगे ही न.