
बस कुछ देर और... फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आ जाएंगे. लेकिन उससे पहले आए एग्जिट पोल में तीसरी बार मोदी सरकार बनने का अनुमान लगाया गया है. एग्जिट पोल में महाराष्ट्र में भी एनडीए को बड़ी सफलता मिलती दिख रही है. लेकिन सवाल ये है कि एनसीपी में हुई टूट के बाद जनता ने अजित पवार और शरद पवार गुट में से किसे चुना है?
इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया के एग्जिट पोल में महाराष्ट्र की 48 सीटों में से बीजेपी को 20-22, कांग्रेस को 3-4, शिवसेना (ठाकरे गुट) को 9-11, शिवसेना (शिंदे गुट) को 8-10, एनसीपी (शरद पवार) को 4-5 और एनसीपी (अजित पवार) को 1-2 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है.
इस चुनाव में शरद पवार की एनसीपी ने 10 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसमें से 5 जीतती दिख रही है. दूसरी ओर, अजित पवार की एनसीपी ने 4 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से उसे 2 सीटों पर जीत मिलने का अनुमान है. इस हिसाब से दोनों गुटों का सक्सेस रेट 50 फीसदी हो सकता है.
...तो दोनों गुटों की जीत में फर्क क्या?
शरद पवार ने जिन 10 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें बारामती भी थी, जहां से उनकी बेटी सुप्रिया सुले उम्मीदवार हैं. इसके अलावा वेस्टर्न महाराष्ट्र, विदर्भ, उत्तरी महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में भी शरद पवार ने अपने उम्मीदवार उतारे थे.
दूसरी ओर, अजित पवार ने बारामती में अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार को मैदान में उतारा था. धाराशिव सीट पर सुनेत्रा पवार के भांजे और बीजेपी नेता राणा जगजीत सिंह की पत्नी को टिकट दिया गया. यानी, दो सीटों पर उनके परिवार के लोग ही मैदान में थे. तीसरी सीट शिरूर से अजित पवार ने शिंदे गुट से पूर्व सांसद रहे शिवाजीराव आढलराव को उतारा तो चौथी सीट से प्रदेश अध्यक्ष सुनील तटकरे मैदान में थे.

इस चुनाव में शरद पवार के मुकाबले अजित पवार ने कम उम्मीदवार उतारे. माना जा रहा है कि उन्हें ज्यादा ताकत दिखाने का मौका भी नहीं मिला. इसलिए जमीनी स्तर पर इस चुनाव में शरद पवार के कार्यकर्ता ज्यादा एक्टिव दिखे और बीजेपी के खिलाफ मैदान में डटकर खड़े रहे. उनके पास लड़ने का एजेंडा भी था.
दोनों के चुनाव लड़ने के तरीके पर नजर डालें तो पता चलता है कि अजित पवार की तुलना में 84 साल के शरद पवार ने ज्यादा एग्रेसिव होकर चुनाव लड़ा.
अजित पवार और शरद पवार का प्रचार
अजित पवार के लिए बारामती सीट काफी प्रतिष्ठा का मामला बनी. क्योंकि, इस सीट से उनकी पत्नी सुनेत्रा उम्मीदवार हैं और सामने शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले हैं. शरद पवार ने सुप्रिया सुले के लिए तो ताकत लगाई ही, साथ ही साथ बाकी उम्मीदवारों के लिए भी उन्होंने जोरदार प्रचार किया. इतना ही नहीं, महाविकास अघाड़ी के शिवसेना और कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए भी उन्होंने प्रचार किया.
शरद पवार विदर्भ, मराठवाड़ा, उत्तर महाराष्ट्र, पश्चिम महाराष्ट्र और मुंबई में प्रचार करते दिखे. लेकिन अजित पवार का 90 फीसदी प्रचार बारामती में ही हुआ. इसकी दो वजहें हैं. पहली- इस चुनाव में अजित पवार ने काफी कम उम्मीदवार मैदान में उतारे. और दूसरी- बारामती से हार का मतलब पार्टी पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने का खतरा हो सकता है.
इतना ही नहीं, बीजेपी ने भी उन्हें अपने उम्मीदवारों के लिए बहुत ज्यादा प्रचार करने नहीं दिया. क्योंकि इंडिया ब्लॉक ने इस बात का खूब प्रचार किया कि जिस अजित पवार पर भ्रष्टाचार का आरोप था, वो बीजेपी की वॉशिंग मशीन में जाकर साफ हो गए. इसलिए प्रचार हो या फिर लोकप्रियता दोनों मामलों में इस चुनाव मे अजित पवार की तुलना मे शरद पवार ही बाजी मारते दिखे.
शरद पवार ने अपने गुट मे खींचे दो मोहरे
चुनाव से पहले अजित पवार के साथ 40 विधायक जुड़े हुए थे. लेकिन कुछ विधायक बाद में शरद पवार के साथ चले गए. उनमें से एक थे दक्षिण नगर के उम्मीदवार नीलेश लंके और दूसरे थे बीजेपी नेता धैर्यशील मोहिते पाटिल, जिन्हें शरद पवार ने माढ़ा सीट से मैदान में उतारा है.
पार्टी टूटने और ज्यादातर विधायक अजित पवार के साथ होने का असर शरद पवार की राजनीति पर पड़ता नहीं दिखा. बल्कि, अजित पवार के लिए शरद पवार ने दक्षिण नगर और माढ़ा में एक नई चुनौती खड़ी कर दी. क्योंकि, माढ़ा सीट पर बीजेपी उम्मीदवार के खिलाफ अजित पवार के साथ आए नेता रामराजे निंबालकर ने खुलेआम प्रचार किया. माढ़ा सीट से आने वाले अजित पवार गुट के विधायकों का वोट अगर ट्रांसफर नहीं हुआ तो इससे उनके लिए नया संकट खड़ा हो सकता है.
शिरूर लोकसभा सीट पर भी बीमार होने के कारण दिलीप वाल्से पाटिल ने प्रचार में हिस्सा नहीं लिया. खेड़ के दूसरे विधायक दिलीप मोहिते ने भी जब खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर की, तो उन्हें मनाने में भी अजित पवार को काफी मशक्कत करनी पड़ी.
क्या अजित पवार के वोटों का बीजेपी को फायदा हुआ?
एग्जिट पोल का अनुमान बताता है कि बीजेपी और महायुति को जितनी सीटों पर जीतने की उम्मीद थी, वो पूरी होती नहीं दिख रही है. क्योंकि एग्जिट पोल के मुताबिक, महाविकास अघाड़ी अगर 20 सीटें जीतती है तो पिछले चुनाव की तुलना में उसकी 4 सीटें बढ़ रही हैं. जबकि, महायुति की कम से कम 10 सीटें कम होती दिखाई दे रही हैं. इसमें अजित पवार की एनसीपी का योगदान दो सीटों का होगा.
जहां शिवसेना (शिंदे गुट) या बीजेपी के उम्मीदवार मैदान में हैं, वहां अजित पवार गुट के नेताओं को अपना वोट महायुति के लिए डलवाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी. और नतीजों में अगर इसका असर नहीं दिखा तो बीजेपी आने वाले समय विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन पर विचार भी कर सकती है.
...तो असली एनसीपी जनता किसे मानती है?
असली एनसीपी किसकी है? इसका फैसला तो सुप्रीम कोर्ट में ही हो पाएगा. लेकिन जनता की अदालत में इस चुनाव में अजित पवार के मुकाबले शरद पवार ने ज्यादा मेहनत की. नेताओं को एकजुट करना, लोगों के बीच जाना, उनके मुद्दे उठाना और बीजेपी के खिलाफ डटकर खड़े रहने में शरद पवार और उनकी पार्टी के नेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी.
शरद पवार गुट के नेताओं के पास इस बात का जवाब था कि वो बीजेपी के खिलाफ क्यों हैं? लेकिन अजित पवार के गुट के पास जनता को ये बात समझाना मुश्किल था कि वो बीजेपी के साथ क्यों हैं? उनके लिए ये समझाना भी मुश्किल था कि बीजेपी अगर उन्हें हिंदुत्ववादी पार्टी मानती है तो अजित पवार की एनसीपी सेक्युलर विचारधारा का बचाव कैसे कर पाएगी? सीधे तौर पर पिछले 25 साल से एनसीपी के साथ जो मराठा, ओबीसी और दलित-मुस्लिम वोटबैंक रहा है, उसे अपने साथ रखना अजित पवार के लिए बड़ी चुनौती थी.
अगर इस चुनाव में अजित पवार अपने वोट बीजेपी को ट्रांसफर कराने में कामयाब रहे तो वो महायुति में दूध में शक्कर की तरह घुल जाएंगे. लेकिन अगर उनका ये प्रयोग फेल हुआ तो इसका सीधा-सीधा फायदा शरद पवार की एनसीपी को होगा. इसलिए लोकसभा चुनाव के रिजल्ट न सिर्फ असली एनसीपी का फैसला करेंगे, बल्कि आने वाले विधानसभा चुनाव के समीकरण भी तय करेंगे.