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2019 के लिए आगरा से मोदी का मिशन शुरू, इस बार कितनी मुश्किल होगी राह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बुधवार आगरा से उत्तर प्रदेश में मिशन 2019 का आगाज करेंगे. हालांकि इस बार सपा-बसपा गठबंधन के चलते 2014 जैसे नतीजे दोहराना उनके लिए एक बड़ी चुनौती है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फोटो-BJP)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फोटो-BJP)

देश की सियासत में एक बात ये कही जाती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है और ये बड़ी हकीकत भी है. लोकसभा सीटों के लिहाज से देश की सबसे बड़े सूबे में जिस पार्टी का झंडा बुलंद होता है, उसकी गूंज दिल्ली तक सुनी जाती है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बुधवार आगरा से उत्तर प्रदेश में मिशन 2019 का आगाज करेंगे. हालांकि इस बार सपा-बसपा गठबंधन के चलते 2014 जैसे नतीजे दोहराना उनके लिए एक बड़ी चुनौती है.

बीजेपी पूरी तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों का दौर शुरू हो चुका है. इस कड़ी में पीएम मोदी यूपी के 2017 विधानसभा चुनाव की तरह 2019 के लोकसभा चुनाव का आगाज आगरा की सरजमी से करने जा रहे हैं. चुनाव से पहले पीएम यहां गंगाजल प्रोजेक्ट समेत करीब 4000 करोड़ की विकास परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकर्पण करेंगे.

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सत्ता विरोधी लहर का मिला था फायदा

2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान सूबे की सत्ता में सपा और केंद्र की सत्ता में कांग्रेस थी. ऐसे में नरेंद्र मोदी ने दोनों पार्टियों को खिलाफ जमकर तीर छोड़े थे. मोदी को केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर का फायदा मिला था. सूबे की 80 लोकसभा सीटों में से बीजेपी गठबंधन को 73 सीटें मिली थी. लेकिन इस बार परिस्थियां दूसरी हैं. केंद्र और राज्य दोनों जगह बीजेपी की सरकार हैं और विपक्ष एक साथ मिलकर घेरने में जुटा है.

खुद की परफॉर्मेंस दिखाना होगा

मौजूदा समय में केंद्र में नरेंद्र मोदी और सूबे में योगी आदित्यनाथ की सरकार है. ऐसे में खुद की परफॉर्मेंस के सहारे मतदातओं के दिल जीतना होगा और अपने काम पर वोट मांगने होंगे. जबकि विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ किसान, रोजगार, गाय के नाम पर हिंसा, हर खाते में 15 लाख, नोटबंदी और जीएसटी के मुद्दे पर घेर रहा है.

दो बड़े दुश्मन एक हो चुके हैं

सूबे में बीजेपी का मात देने के लिए 23 साल पुरानी दुश्मनी को भुलाकर अखिलेश यादव और मायावती ने आपस में हाथ मिलाने की तैयारी में है. सूबे में दोनों दलों के पास मजबूत वोट बैंक है. यूपी में 12 फीसदी यादव, 22 फीसदी दलित और 18 फीसदी मुस्लिम हैं, जो कुल मिलाकर आबादी का 52 फीसदी हिस्सा है. इन तीनों समुदाय के वोटबैंक पर सपा-बसपा की मजबूत पकड़ मानी जाती है. सूबे में 1993 के विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा ने गठबंधन कर इतिहास रच दिया था. ऐसे में बीजेपी के लिए 2014 के चुनाव नतीजे दोहराना एक बड़ी चुनौती है.

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उपचुनाव में हार मिली है

सूबे में 2017 विधानसभा चुनाव के बाद गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए. इन तीनों लोकसभा सीटों पर बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा है. इसके अलावा बिजनौर की नूरपुर विधानसभा सीटों पर भी बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा है. 2014 में बीजेपी 71 सीटें सूबे की जीती थी, लेकिन मौजूदा समय में 68 सीटें बची है. इन चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका था. दरअसल सत्ता में रहते हुए उपचुनाव में हार होना बेहतर नहीं माना जाता है. ऐसे ही वोटिंग पैटर्न लोकसभा चुनाव में भी रहा तो बीजेपी के मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.

बीजेपी के सहयोगी नाराज

यूपी में जहां एक तरफ विपक्ष एकजुट होने की कोशिशों में जुटा है. वहीं, बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के सहयोगी दल एक-एक छिटक रहे हैं. सूबे में एनडीए के सहयोगी सुहेलदेव समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर तो पहले से बीजेपी को कोस रहे हैं और अब अपना दल के बदले रुख से बीजेपी की चिंताएं भी बढ़ गई हैं. इतना ही नहीं माना जा रहा है कि अगर ये दोनों एनडीए से छिटकते हैं तो फिर बीजेपी के लिए सूबे में पिछले नतीजों को दोहराना आसान नहीं होगा.

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बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग बिखरी

नरेंद्र मोदी ने बीजेपी ने यूपी में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ मिलाकर सोशल इंजीनियरिंग का समीकरण बनाया था. इसका फायदा भी बीजेपी को लोकसभा 2014 और 2017 के विधानसभा चुनाव में मिला था. लेकिन फिलहाल बीजेपी के लिए इस सोशल इंजीनियरिंग को साधकर रखने की चुनौती है. इसके अलावा सूबे के मुख्यमंत्री पर एक जातीय विशेष के लोगों को खास तवज्जो देने का आरोप लगता रहा है.

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