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राजीव गांधी के लाए इस कानून के कारण नहीं बच सकी येदियुरप्पा की सरकार

कांग्रेस-जेडीएस के विधायकों को बीजेपी ने अपने खेमे में लाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी. उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय बना 'दल बदल निषेध कानून' रहा, जिसके चलते येदियुरप्पा को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा.

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राजीव गांधी और बीएस येदियुरप्पा
राजीव गांधी और बीएस येदियुरप्पा

कर्नाटक में बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा बहुमत के जादुई आंकड़े से 7 सीटें कम होने के बावजूद 104 विधायकों के दम पर मुख्यमंत्री बने. लेकिन शपथ लेने के 55 घंटे के बाद ही उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ गई. कांग्रेस-जेडीएस के विधायकों को बीजेपी ने अपने खेमे में लाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी. उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय बना 'दल बदल निषेध कानून' रहा, जिसके चलते येदियुरप्पा को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा.

बता दें कि बीएस येदियुरप्पा को अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए 111 विधायकों की जरूरत थी. जबकि बीजेपी से 104 विधायक थे. ऐसे में 7 अन्य विधायकों की उन्हें दरकार थी. इसके लिए कांग्रेस और जेडीएस से 7 विधायक नाता तोड़कर आते तो दलबदल निषेध कानून के तहत उनकी सदस्यता रद्द हो जाती. ये तभी हो सकता था जब आधे से ज्यादा विधायक पार्टी से नाता तोड़कर आते, तब उनकी सदस्यता बरकरार रहती. बीजेपी के लिए ये काम नामुमकिन था.

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'दल बदल निषेध कानून' लाने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जाता है. 1967 से1983 के बीच दल-बदल का खेल जमकर खेला गया. कांग्रेस से समाजवादी नेताओं ने जहां नाता तोड़ अलग हुए, तो वहीं कांग्रेस ने कई राज्यों में इसका जमकर फायदा उठाया और अपनी सरकार बनाई.

1966 में पंजाब से अलग हरियाणा नया राज्य बना. एक साल बाद 1967 में चुनाव हुए. राज्य के 81 सीटों में से कांग्रेस को 48, जनसंघ को 12 और 16 विधायक निर्दलीय चुने गए. इसके अलावा स्वतंत्र पार्टी के 3 और रिपब्लिकन आर्मी ऑफ़ इंडिया के 2 विधायक जीत कर आए.

कांग्रेस ने भगवती दयाल शर्मा को सीएम पद की कुर्सी सौंपी गई, लेकिन जल्द ही पार्टी के भीतर फूट पड़ गई. दक्षिणी हरियाणा के राव बिरेंदर सिंह ने कांग्रेस में बगावत कर दी. वो कांग्रेस के 37 विधायक लेकर पार्टी से अलग हो गए. स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ का समर्थन और 16 निर्दलीय विधायकों से मिलकर सरकार बनाई. और यहीं से शुरू हुआ दल-बदल का खेल.

आठ महीने चली इस विधानसभा में 44 विधायकों ने अपनी वफादारी बदली. एक सदस्य ने पांच बार, दो सदस्यों ने चार बार पार्टी बदली. तीन विधायकों ने तीन बार, चार विधायकों ने दो बार और 34 विधायकों ने 1 बार अपना खेमा बदला. 1967 में पलवल की हसनपुर सीट से विधायक बने गया लाल ने 9 घंटे में तीन बार पार्टी बदली. हरियाणा की राजनीति में सत्ता बनाए रखने के लिए इसका खूब इस्तेमाल हुआ. यहीं ये 'आया राम, गया राम' मुहावरा बन गया.  

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पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 197 सांसदों के साथ 1969 में कांग्रेस को तोड़कर अलग पार्टी बना ली थी. इस विवाद के चलते 1973 में इंदिरा गांधी विधान संशोधन विधेयक पेश किया था. इसी के दो साल बाद आपातकाल लगा दिया गया. 1980 के दौर में दल-बदल का चलन इतना ज्यादा बढ़ गया कि संसद को '52वां संविधान संशोधन एक्ट' के जरिए संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ना पड़ा. हालांकि दल-बदल का ज्यादातर फायदा कांग्रेस ने उठाया.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिसंबर1984 में लोकसभा चुनाव हुए कांग्रेस अपने नए नवेले नेता राजीव गांधी के साथ मैदान में उतरी. उन्होंने चुनाव में दल-बदल कानून लाने का वादा किया था. कांग्रेस सत्ता में आई 8 सप्ताह के अंदर ही तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में दलबदल के रोग को समाप्त करने के लिए दल बदल विरोधी कानून संसद से दोनों सदन से पारित कराया. इस कानून में सबसे बड़ी कमजोरी या विसंगति यह थी कि व्यक्तिगत स्तर पर दलबदल पर तो रोक लगाई गई किंतु थोक में ऐसा करने को कानूनी मान्यता दे दी गई.

दरअसल उस समय 11 राज्यों में चुनाव होने थे ऐसे में कहा गया था कि राजीव गांधी अपनी छवि को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने ये कदम उठाया था.

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अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के शासनकाल 2003 में यह तय किया गया कि सिर्फ एक व्यक्ति ही नहीं, अगर सामूहिक रूप से भी दल बदला जाता है तो उसे भी असंवैधानिक करार दिया जाएगा. संविधान में 91वां संशोधन कर सदस्यों की संख्या एक तिहाई से बढ़ा कर दो-तिहाई कर दी गई. इसी संशोधन में धारा 3 को भी खत्म कर दिया गया, जिसके तहत एक तिहाई पार्टी सदस्यों को लेकर दल बदला जा सकता था.

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