
निशानेबाजी में भारत के लिए सोना जीत चुकीं जमुई से बीजेपी कैंडिडेट श्रेयसी सिंह अपने क्षेत्र के तूफानी दौरे पर हैं. गांव-गली-मोहल्ला वार्ड हर क्षेत्र में घूम रही एथलीट श्रेयसी को भी समझ आ गया है कि राजनीति 'खेल' नहीं है. चुनाव प्रचार के 6 दिन बचे हैं और इस निशानेबाज के निशाने पर एक एक मतदाता है, जिससे वो मिलती हैं और जीतने पर एक बदले हुए जमुई का वादा करती हैं. उनकी प्राथमिकता की सूची में शिक्षा, खेल, कृषि और रोजगार शामिल है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार के दिग्गज नेता रहे स्वर्गीय दिग्विजय सिंह की बेटी श्रेयसी का अपने दम पर सियासत में यह पहला एक्सपोजर है. श्रेयसी का जन्म भले ही राजनीतिक परिवार में हुआ, लेकिन उनका रुझान अपने पापा की तरह ही निशानेबाजी में था. अपने जुनून को सही साबित करते हुए श्रेयसी 2014 कॉमनवेल्थ गेम्स के निशानेबाजी में वूमन्स डबल ट्रैप में सिल्वर जीतीं, 2018 आते-आते उन्होंने अपने आप को तराशा और इस बार कॉमनवेल्थ गेम्स शूटिंग में गोल्ड जीता.
आरडेजी के कद्दावर नेता से श्रेयसी की टक्कर
श्रेयसी कुछ भी दिन पहले भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुईं और पार्टी ने उन्हें जमुई सीट से चुनाव लड़ने की जिम्मेदारी सौंपी. इससे पहले श्रेयसी के पिता दिग्विजय सिंह बांका सीट से चुनाव लड़ते थे. वे यहां से तीन बार चुनाव जीते.
2015 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के तहत जमुई सीट राष्ट्रीय जनता दल के खाते में चली गई थी. तब इस सीट से आरजेडी के टिकट पर जयप्रकाश नारायण यादव के भाई विजय प्रकाश चुनाव लड़े और जीते थे. इस बार एक बार फिर वे चुनाव मैदान में हैं और श्रेयसी सिंह को सीधी टक्कर दे रहे हैं. इसी सीट पर रालोसपा के टिकट पर अजय प्रताप चुनाव लड़ रहे हैं. अजय प्रताप बिहार के पूर्व कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह के बेटे हैं. जेडीयू से टिकट न मिलने के बाद नरेंद्र सिंह नीतीश कुमार को धोखेबाज बता चुके हैं.
नीतीश का वोटर किसको वोट देगा
जमुई में बिछी सियासत के इस शतरंज के बीच जबर्दस्त चुनावी गहमागहमी है. aajtak.in से बातचीत में श्रेयसी सिंह ने कहा कि उन्हें जनता का बेहद प्यार मिल रहा है. श्रेयसी ने कहा कि वे मतदाताओं के हर वर्ग से संवाद स्थापित करने में कामयाब रही हैं. महिलाओं, युवा, कॉलेज जाने वाली लड़कियों उन्हें काफी सपोर्ट दे रही है.
अब सवाल ये है कि इस उलझे समीकरण के बीच नीतीश का वोटर किसे वोट देगा. 2015 में जब लालू-नीतीश साथ थे तो जेडीयू-आरजेडी का वोट एक कैंडिडेट को जाना लाजिमी था, लेकिन इस बार हालात अलग हैं.

इस बार बीजेपी-जेडीयू साथ है. इस लिहाज से नीतीश के मतदाताओं को श्रेयसी के साथ जाना चाहिए. लेकिन राजनीति के जानकार आपको बताएंगे कि बिहार की राजनीति में 2005 से 2009 के बीच ऐसा वक्त था जब नीतीश कुमार और दिग्विजय सिंह के बीच एक पार्टी में रहते हुए भी जबर्दस्त प्रतिद्वंदिता थी. इधर जेडीयू के नेता रहे नरेंद्र सिंह ने अपने बेटे को जमुई से उतारकर मुकाबला और रोमांचक कर दिया है.
तो क्या इस बार नीतीश का वोटर श्रेयसी को वोट देगा? इस बाबत हमने बीजेपी कैंडिडेट श्रेयसी सिंह से इशारों-इशारों में सवाल भी पूछा.
क्या नीतीश ने दी चुनाव की शुभकामनाएं?
aajtak.in ने श्रेयसी सिंह से पूछा कि क्या इस चुनाव के लिए उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शुभकामनाएं दी हैं? इस पर श्रेयसी ने सीधे न कहने की बजाय कहा कि आजकल सोशल मीडिया का जमाना है लोग ट्विटर से बधाइयां और शुभकामनाएं देते हैं लेकिन चुनाव कार्यों में व्यस्त रहने की वजह से वे अपना ट्विटर अकाउंट नहीं देख पाई हैं.
बता दें कि जब 2018 में श्रेयसी सिंह ने कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मेडल जीता था तो सीएम नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री कार्यालय से प्रेस विज्ञप्ति जारी कर उन्हें बधाई दी थी.

इधर एलजेपी अध्यक्ष और जमुई सांसद चिराग पासवान का समर्थन श्रेयसी तक पहुंच गया है और श्रेयसी ने इसके लिए चिराग को बधाई भी दी है. बता दें कि जमुई के सांसद चिराग पासवान ने अपने समर्थकों से अपील की है कि एलजेपी के सभी कार्यकर्ता श्रेयसी की मदद करें.
कैसे थे नीतीश और दिग्विजय के रिश्ते?
बिहार की सियासत में दिग्विजय सिंह 'दादा' कहे जाते थे. पर इस दादा का वो मतलब नहीं है जो हमारे फिल्मों में बताया जाता है. बिहार में इस 'दादा' का मतलब है बड़े भाई. जो गांव-जवार में लोग अपने से बड़े को आदर-सम्मान से कहते हैं. नाम था दिग्विजय सिंह. बिहार के चोटी के नेता रहे और जबतक रहे दिग्विजय ही रहे.
दिग्विजय सिंह बिहार के गिधौर राज परिवार से आते थे, भले ही उनका ताल्लुक राजपरिवार से रहा हो, लेकिन मिजाज समाजवादी था. इसलिए जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार से पहले इनकी खूब छनी. 1994 में इस तिकड़ी ने समता पार्टी की स्थापना की जो 2003 आते आते जनता दल यूनाईटेड बन गई.

दिग्विजय सिंह को निशाना लगाने का शौक था. इस शूटर ने राजनीति में भी कई सटीक निशाने लगाए. कुछ इतने सटीक होते कि प्रतिद्वंदी तिलमिला उठते. 2009 में नीतीश और दिग्विजय सिंह की कटुता खुलकर सामने आ गई थी. दिग्विजय सिंह बांका से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे थे. इस सीट पर नीतीश कुमार ने अपने कैंडिडेट को उतारा था. लेकिन दिग्विजय सिंह ने अपनी ताकत दिखाई और निर्दलीय ही चुनाव जीत गए. हालांकि इसके कुछ ही दिन बाद 2010 में लंदन में दिग्विजय सिंह का ब्रेन हेमरेज की वजह से निधन हो गया. इसके साथ ही बिहार की राजनीति का एक अध्याय समाप्त हो गया. इसके बाद इस सीट से दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल कुमारी उपचुनाव लड़ीं और जीतीं.
जेडीयू में नीतीश के खिलाफ प्रेशर ग्रुप का काम करते थे दिग्विजय सिंह
पटना के वरिष्ठ पत्रकार सुनील पांडे कहते हैं कि दिग्विजय सिंह जेडीयू में रहते हुए भी नीतीश के खिलाफ प्रेशर ग्रुप का काम करते थे. नीतीश 2009 से पहले अपनी सभाओं में बंटाईदार बिल की चर्चा किया करते थे. इस बिल का मजमून ये था कि जमीन पर ज्यादा हक उसी का होगा जो उस पर खेती करता है, बिहार की मौजूदा व्यवस्था में कई भूस्वामियों को इस बिल की चर्चा ही नागवार गुजर रही थी, क्योंकि बिहार में सैकड़ों एकड़ जमीन के ऐसे मालिक थे जो बंटाईदारों से खेती करवाते और उपज के अधिकांश हिस्सा खुद ही रखते थे.

दिग्विजय और नीतीश के बीच तनाव की वजह चाहे जो भी रही हो, इस बिल के बहाने दिग्विजय सिंह ने ललन सिंह, प्रभुनाथ सिंह जैसे नेताओं को एक मंच पर किया और नीतीश का विरोध करने लगे. इसी सिलसिले में पटना में किसान महापंचायत रैली भी आयोजित की गई. इसी के साथ दिग्विजय सिंह और नीतीश के बीच एक रेखा खींच गई.
श्रेयसी से जब इस बाबत पूछा गया तो वे कहती हैं कि ये उस वक्त की राजनीति थी इसका वर्तमान से कोई लेना-देना नहीं है. श्रेयसी यह भी कहती हैं कि नीतीश कुमार से उनके पिता के रिश्ते वैसे तनावपूर्ण नहीं थे, जैसी चर्चा की जाती है. श्रेयसी कहती हैं कि बीजेपी की सदस्यता लेने के बाद पार्टी ने जेडीयू के साथ जो आधिकारिक रिश्ते तय किए हैं उसका वो पूरे सम्मान के साथ पालन कर रही हैं.