बात 90 के दशक शुरू होने से कुछ पहले की है. पटना जिले में गंगा किनारे बसा है मोकामा. यहीं के कांग्रेस विधायक थे श्याम सुंदर सिंह 'धीरज'. इलाके में दबदबा जमाने के लिए दबंगों का सहारा लिया, जो मतदान के दिन पौ फटते ही उनके लिए बूथ कैप्चरिंग करने निकल जाते थे. श्याम सुंदर सिंह 'धीरज' बिहार सरकार में मंत्री बन गए थे. इलाके के जानकार बताते हैं कि एक बार एक शख्स उनसे पटना के सरकारी आवास में मिलने चला गया.
मंत्रीजी ने उस शख्स से साफ कह दिया कि दिन के वक्त मिलने मत आया करो...शरीफ आदमी या कोई अधिकारी तो हो नहीं. शाम होने के बाद आया करो...वो भी चुपके-चुपके. ये बात उस शख्स को चुभ गई. उसने आगामी विधानसभा चुनावों में मंत्री श्याम सुंदर धीरज के खिलाफ ही ताल ठोकने का फैसला किया और जीत हासिल की. ये शख्स कोई और नहीं बल्कि विधायक श्याम सुंदर के लिए बूथ कैप्चरिंग करने वाले बाहुबली और दिलीप सिंह थे, जो बाद में मंत्री भी बने. दिलीप सिंह बिहार के बाहुबली नेता अनंत सिंह के बड़े भाई थे.
लेकिन कहानी की शुरुआत ऐसे होती है
दिल्ली से हावड़ा के लिए ट्रेन पकड़ेंगे तो पटना से 40 मिनट बाद आएगा बाढ़. यहां दो अगड़ी जातियों राजपूत और भूमिहार की खूनी जंग का इतिहास रहा है. यहीं के लदमा गांव से दिलीप सिंह का परिवार ताल्लुक रखता है. पिता के पास ठीक-ठाक खेती थी और कम्युनिस्टों के बड़े समर्थक थे. उनके चार बेटे थे-बिरंची सिंह, फाजो सिंह, दिलीप सिंह और सबसे छोटे अनंत सिंह. बाद में बिरंची सिंह और फाजो सिंह की हत्या कर दी गई थी.
दिलीप सिंह कैसे बने दबंग
बात 80 के दशक की है. उस वक्त मध्य बिहार में एक तस्कर था कामदेव सिंह. हथियारों को छोड़कर हर तरह की तस्करी किया करता था. भारत-नेपाल सीमा पर कामकाज का इलाका था. चूंकि नेपाल के पास अपना बंदरगाह नहीं है इसलिए उसका सारा सामान पहले कोलकाता (तब कलकत्ता) पहुंचता था. वहां से बरौनी और फिर बरौनी की छोटी लाइन के जरिए नेपाल. कामदेव सिंह का गिरोह इसी सामान को बीच रास्ते में रेल से उतारकर अपने तरीके से नेपाल पहुंचाता था. गंगा नदी के जमीन बदलने वाले हिस्से में पड़ता है नदमा गांव, जिसे लदमा के नाम से भी पहचाना जाता है. 90 के दशक के अंत तक भी बाढ़ स्टेशन से सकसौरा तक टमटम इक्के ही आने-जाने का जरिया हुआ करते थे. क्योंकि तब तक भी वहां सड़क बनी नहीं थी.
दिलीप सिंह के पास नदमा में कई घोड़े थे. उन्होंने घोड़े पाले और टमटम चलवाने लगे. बाद में दिलीप सिंह को लगा कि रंगदारी में ज्यादा फायदा और पैसा है. उन्होंने कामदेव सिंह का हाथ थामा और उनके राइट हैंड बन गए. दिलीप सिंह ने कामदेव के धंधे को नहीं छुआ और हथियार और जमीन कब्जाने का काम शुरू किया.
बने नामी रंगदार
धीरे-धीरे दिलीप सिंह का रुतबा बढ़ने लगा. उनकी गिनती नामी रंगदारों में होने लगी. कहा तो ये भी जाता है कि एक मारवाड़ी परिवार ने इलाहाबाद में अपने घर पर कब्जा वापस पाने के लिए दिलीप सिंह का सहारा लिया था. यानी दिलीप सिंह की धमक उत्तर प्रदेश तक पहुंच चुकी थी.
इसी बीच कामदेव सिंह की हत्या हो गई और उसकी कुर्सी पर दिलीप सिंह ने कब्जा कर लिया. पहले कम्युनिस्ट पार्टियों ने दिलीप सिंह का इस्तेमाल किया लेकिन सबसे ज्यादा फायदा उठाया कांग्रेस के श्याम सुंदर सिंह 'धीरज' ने. उन्होंने मोकामा से चुनाव जीतने में उनका भरपूर इस्तेमाल किया. वे 1980-1990 तक मोकामा से विधायक रहे. ये बिहार का वही दौर था, जिसके बूथ लूट के किस्से आज तक बुजुर्ग लोग सुनाया करते हैं.
जब चुभी मंत्री की बात और उतरे राजनीति में
जब मंत्री श्याम सुंदर धीरज ने दिलीप सिंह से दिन में नहीं आने को कहा तो वे समझ गए कि भले ही मोकामा में लोग कहते हों कि चुनाव दिलीप सिंह ने जीता है लेकिन बाहर लोग उन्हें 'चोर' ही मानते हैं. उन्हें ये बात दिल पर लगी और उन्होंने मंत्री के खिलाफ ही 1990 के विधानसभा चुनावों में उतरने का फैसला किया.
उन्हें टिकट मिला जनता दल से. जिस मंत्री के लिए दिलीप सिंह बूथ कैप्चरिंग किया करते थे, उन्हें करारी शिकस्त दी. उस चुनाव में दिलीप सिंह को 52455 वोट मिले, जबकि श्याम सुंदर धीरज को 30349 वोटों से संतोष करना पड़ा. दिलीप सिंह बिहार की तत्कालीन लालू यादव की सरकार में मंत्री बन गए. इसके बाद 1995 के विधानसभा चुनावों में भी दिलीप सिंह की श्याम सुंदर धीरज से टक्कर हुई. इस बार भी जीत दिलीप सिंह के हाथ आई. जनता दल के चिह्न तले उतरे दिलीप सिंह को 38464 वोट मिले, जबकि श्याम सुंदर धीरज को 31517 वोट.
लेकिन उसी दौर में मोकामा का एक और बाहुबली तेजी से दबंगई की सीढ़ियां चढ़ रहा था, जिसका नाम है सूरजभान सिंह. निर्दलीय चुनाव लड़ते हुए उसने मोकामा सीट से साल 2000 के विधानसभा चुनावों में दिलीप सिंह को करारी शिकस्त दी. सूरजभान ने दिलीप सिंह को 70 हजार वोटों से हराया था. इसके बाद दिलीप सिंह राजनीतिक जीवन से दरकिनार होने लगे. साल 2003 में दिलीप सिंह को विधान परिषद के लिए चुना गया था. लेकिन अक्टूबर 2006 में दिलीप सिंह का पटना में हार्ट अटैक से निधन हो गया.