राजनीति में दोस्त को दुश्मन और दुश्मन को दोस्त बनने में ज्यादा देर नहीं लगती. लेकिन कभी-कभी दुश्मनी खूनी जंग में बदल जाती है. दोनों पक्ष अपना बहुत कुछ खो देते हैं. जिद और अंहकार की लड़ाई का नुकसान जब तक समझ में आता है, तब तक कई अपने गोलियों की भेंट चढ़ चुके होते हैं. कुछ ऐसी ही कहानी है शेखपुरा के कांग्रेस नेता राजो सिंह और महावीर चौधरी के परिवारों की. दोनों दोस्त थे लेकिन दोनों के बेटे एक-दूसरे के दुश्मन बन गए. महावीर चौधरी के बेटे के काफिले पर हमला हुआ जिसमें 8 लोग मारे गए. इसके प्रतिशोध में कई लाशें गिरीं. राजो सिंह की भी हत्या कर दी गई जब वो अपने दफ्तर में बैठे थे.
यह कहानी मामूली कहासुनी से शुरू हुई थी जो खूनी जंग में बदल गई. 26 दिसंबर 2001 को शेखपुरा जिला परिषद की बैठक चल रही थी. इसमें जिले के दोनों कांग्रेसी विधायक अशोक चौधरी और संजय सिंह जो आरजेडी सरकार में मंत्री थे, शामिल हुए. वहीं पर किसी मुद्दे पर दोनों में तनातनी हो गई. हालांकि वहां मौजूद अफसरों और दूसरे लोगों ने बीच-बचाव कर माहौल शांत करा दिया. इसी दिन शाम को अशोक चौधरी का काफिला बरबिघा की ओर निकला, शेखपुरा शहर से थोड़ा आगे टाटी नदी पर बने पुल पर पहुंचते ही हथियारबंद बदमाशों ने काफिले पर फायरिंग झोंक दी. अशोक चौधरी की गाड़ी तो आगे निकल गई लेकिन दूसरी गाड़ी में बैठे 8 लोगों की गोली लगने ने मौत हो गई.
मरने वालों में आरजेडी के तत्कालीन जिला अध्यक्ष काशी नाथ यादव ऊर्फ काशी पहलवान, जिला परिषद सदस्य अनिल महतो, कुसुंबा पंचायत के मुखिया अबोध कुमार भी शामिल थे. ये सभी पिछड़ी जाति के थे. काशी पहलवान लालू के करीबी माने जाते थे. इस मामले में बेगूसराय के तत्कालीन कांग्रेस सांसद राजो सिंह, उनके मंत्री पुत्र संजय सिंह रिश्तेदार कृष्णनंदन सिंह, श्यामनंदन सिंह, अरुण सिंह, मृत्युंजय सिंह, उदय शंकर सिंह, दिवाकर सिंह और कन्हैया सिंह समेत 10 लोगों को नामजद किया गया था. आरजेडी सरकार ने किरकिरी से बचने के लिये इस मुकदमे को विशेष अदालत को सौंप दिया.
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सजा सुनते ही संजय सिंह को कोर्ट में ही आया अटैक, हो गई मौत
ये मुकदमा चल ही रहा था तभी 9 सितंबर, 2005 की शाम शेखपुरा के कांग्रेस दफ्तर में पूर्व सांसद राजो सिंह की हत्या कर दी गई. इसमें अन्य लोगों के साथ पूर्व मंत्री अशोक चौधरी को भी नामजद किया गया था लेकिन बाद में पटना हाई कोर्ट के आदेश पर उनका नाम केस से हटा दिया गया. 25 अक्टूबर 2010 को मुंगेर की विशेष अदालत टाटी हत्याकांड में पूर्व मंत्री संजय सिंह समेत उनके 8 रिश्तेदारों को सजा सुना दी जबकि 2 लोगों को बरी कर दिया. फैसला सुनते ही राजो सिंह के बेटे संजय सिंह को हार्ट अटैक आया और उनकी मौत हो गई. राजो सिंह का 2005 में मर्डर कर दिया गया था.
कौन हैं ये दोनों सियासी परिवार
एक के मुखिया थे दलित नेता महावीर चौधरी तो दूसरे के राजो सिंह. महावीर चौधरी बरबिघा विधानसभा क्षेत्र (आरक्षित) से 1980 से 2000 तक लगातार 4 बार विधायक रहे. कई बार राज्य सरकार में मंत्री भी रहे. जबकि राजो सिंह कांग्रेस के टिकट पर बरबिघा और शेखपुरा से (एक अवसर को छोड़कर) 1972 से 2000 तक विधायक रहे. एक बार राज्यमंत्री भी बने. लेकिन सत्ता में दबदबा राजो सिंह का ही रहता था.
कहा जाता था कि वह उगते सूरज को सलाम करते थे. सीएम कोई भी हो उनका काम नहीं रुकता था. आरजेडी के शासन काल में उनके ही प्रयास से शेखपुरा जिला बना था. महावीर चौधरी और राजो सिंह लंबे अर्से तक विधानसभा में रहे. पड़ोसी होने के नाते भी दोनों में गहरी दोस्ती थी. पटना के पत्रकार राहुल का कहना है कि आलम ये था कि बरबिघा के लोग महावीर चौधरी को ताना मारा करते थे वो इलाके में उतना ही काम करते थे जितना राजो सिंह कहते थे. खैर दोनों में निभ गई.
दोनों के बेटे बने विधायक, मंत्री
महावीर चौधरी अस्वस्थ रहने लगे. उन्होंने बेटे अशोक चौधरी को विरासत सौंप दी. उधर 1998 और 1999 में राजो सिंह बेगूसराय से सांसद बने तो शेखपुरा विधानसभा सीट बेटे संजय सिंह के हवाले कर दिया. साल 2000 में विधानसभा चुनाव हुआ तो कांग्रेस के टिकट पर बरबिघा से अशोक चौधरी और शेखपुरा से संजय सिंह चुनाव जीते. इस बार आरजेडी को बहुमत नहीं मिला तो लालू प्रसाद ने कांग्रेस से समर्थन ले लिया. इसके एवज में कांग्रेस को कई मंत्री पद मिले जिनमें अशोक चौधरी और संजय सिंह भी शामिल थे.
यहां बिगड़ी बात
कहा जाता है कि संजय सिंह विधायक और मंत्री तो बन गए थे लेकिन राजनीति में नए थे. वह पटना में अपने पिता से अलग रहते थे. उधर अशोक चौधरी पिता के साथ चुनाव क्षेत्र में सक्रिय रहते थे. वह छात्र राजनीति में भी आए थे इसलिए जनता उन्हें पहचानती थी, जबकि संजय सिंह के साथ ऐसे नहीं था. लेकिन संजय सिंह चाहते थे कि जैसे उनके पिता राजो सिंह के कहने पर महावीर चौधरी चलते थे उसी तरह उनके कहने पर अशोक चौधरी चलें. लेकिन अशोक चौधरी को यह मंजूर नहीं था.
यहीं से दोनों में दरार पैदा हुई जो गुटबाजी में बदल गई. पिछ़ड़ी राजनीति का उभार हो चुका था. अगड़ी जातियों के अगुवा बने संजय सिंह. जबकि पिछड़ी जाति के नेताओं की अगुवाई करने लगे अशोक चौधरी.
कहानी के दूसरे किरदार
इस कहानी में दो और किरदार हैं सरगना अशोक महतो और अखिलेश सिंह. दोनों शेखपुरा से सटे जिले नवादा में वारसलीगंज से वास्ता रखते हैं. दोनों के बीच गैंगवार जगजाहिर है लेकिन शह मिलने पर दोनों शेखपुरा में भी आमने-सामने होने लगे. राजो सिंह हत्याकांड में तो अशोक महतो को नामजद भी किया गया था लेकिन साक्ष्य के अभाव में उसे बरी कर दिया गया. दोनों राजनीति में भी दखल रखते हैं.
अशोक महतों के रिश्तेदार प्रदीप कुमार 2005 से 2015 तक वारसलीगंज के विधायक रहे. जबिक अखिलेश सिंह की पत्नी अरुणा देवी 2015 में बीजेपी प्रत्याशी के रूप में उनको मात देने में कामयाब रहीं. उधर, 2005 में संजय की पत्नी और राजो सिंह की बहू सुनीला देवी शेखपुरा से विधायक बनीं. लेकिन बरबिघा में अशोक चौधरी को हार का सामना करना पड़ा. 2010 का चुनाव आते-आते दोनों ही सीट की तस्वीर बदल चुकी थी.
बरबिघा आरक्षित से सामान्य सीट हो चुकी थी. अशोक चौधरी ने यहां से फिर किस्मत आजमाई लेकिन वो जेडीयू प्रत्याशी से मात खा गये. इसके बाद वो बरबिघा से दूर चले गये. उधर, शेखपुरा में भी राजो सिंह के परिवार का दबदबा खत्म हो चुका था. 2010 में यहां से जीत मिली जेडीयू के रणधीर कुमार सोनी को. राजो सिंह हत्याकांड में सोनी का भी नाम शामिल था लेकिन हाईकोर्ट के आदेश पर केस से उनका नाम हटा दिया गया था.
ऐसे बढ़ा अशोक चौधरी का कद
बरबीघा से चुनाव हारने के बावजूद कांग्रेस में अशोक चौधरी का कद बढ़ गया. साल 2013 में उनको बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया. 2015 के विधानसभा चुनाव के पहले महागठबंधन बना जिसमें कांग्रेस भी शामिल थी. सीटों का बंटवारा हुआ तो ये सीट कांग्रेस के खाते में गई. पार्टी अध्यक्ष के नाते टिकट बांटने की जिम्मेदारी अशोक चौधरी की थी. उन्होंने बरबीघा से राजो सिंह के पौत्र सुदर्शन कुमार को टिकट देकर सबको चौंका दिया. यानि ये साफ हो चुका था दोनों परिवार ने पुरानी बातों को भुला दिया था. वैसे ये बात भी सामने आई थी कि सुदर्शन को टिकट लालू यादव की सिफारिश पर मिला था.
अशोक चौधरी राजो सिंह के पौत्र का नामांकन कराने पहुंचे
उधर, पार्टी में गुटबाजी और नेताओं के मुखालफ से त्रस्त होकर अशोक चौधरी ने जेडीयू का रुख कर लिया और साथ ही पार्टी के कुछ MLC को भी साथ ले गए. नीतीश ने उनको मंत्री पद से नवाजा और 2020 में हो रहे विधानसभा चुनाव के दौरान ही बिहार जेडीयू का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया. वहीं, हवा के रुख को भांप कर चुनाव से पहले सुदर्शन भी अशोक चौधरी की शरण में आ गए.
चौधरी के कहने पर उन्होंने जेडीयू का दामन थाम लिया और पार्टी ने उनको बरबीघा का टिकट थमा दिया. साथ ही अशोक चौधरी उनका नामांकन कराने शेखपुरा भी गये थे. ऐसा माना गया कि इसके बाद दोनों की पारिवारिक दुश्मनी खत्म हो गई. सुदर्शन कुमार इस बार भी शेखपुरा से जदयू के प्रत्याशी हैं और प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते उन्हें जिताने की जिम्मेदारी अशोक चौधरी की है.