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पश्चिम बंगाल: जहां रक्तरंजित राजनीति दशकों से चला आ रहा रिवाज है

देश में राजनीतिक हिंसा की सबसे खतरनाक घटनाएं पश्चिम बंगाल में ही होती हैं. नक्सल आंदोलन के समय से ही ये सिलसिला चला आ रहा है और अब तक जारी है.

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पश्चिम बंगाल में हमेशा राजनीतिक वजहों से होती रही है हिंसा (प्रतीकात्मक फोटो)
पश्चिम बंगाल में हमेशा राजनीतिक वजहों से होती रही है हिंसा (प्रतीकात्मक फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • बंगाल में दिखती रही है राजनीतिक हिंसा
  • नक्सल आंदोलन के समय शुरू हुई थी हिंसा
  • टीएमसी और माकपा कार्यकर्ताओं में झड़प

पश्चिम बंगाल की राजनीतिक संस्कृति हमेशा टकराव और हिंसा के रंग में रंगी रहती है. कोई छोटी रैली हो, बैठकें हों या विशाल मार्च, किसी भी प्रदर्शन के दौरान राज्य के किसी भी हिस्से में हिंसा भड़क सकती है. राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर खतरनाक हमले, आपसी संघर्ष, प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें यहां आम बात हैं. इतना तय है कि राजनीतिक हिंसा की सबसे खतरनाक घटनाएं यहीं पर होती हैं और खूब होती हैं. 

पश्चिम बंगाल में टकराव की वजहें हमेशा राजनीतिक ही रही हैं क्योंकि जातीय या सांप्रदायिक तनाव यहां नहीं है. राजनीतिक रूप से जागरूक इस राज्य की प्रतिष्ठा रक्तरंजि‍त है. 

1967 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से प्रभावित नक्सलबाड़ी आंदोलन चला और इसने माओत्से तुंग का नारा अपनाया कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है. इस आंदोलन ने पश्चि‍म बंगाल की राजनीति में हिंसा की संस्कृति को एक साधन के रूप में स्थापित कर दिया. कुछ घटनाएं और आंदोलन ऐसे रहे जिन्होंने बाद में बहुत गहरा प्रभाव डाला. 

तेभागा आंदोलन 

तेभागा आंदोलन 1946-48 में हुआ एक किसान आंदोलन था जिसमें बटाईदार किसानों की मांग थी कि उन्हें उपज का दो-तिहाई हिस्सा दिया जाए. ये आंदोलन अविभाजित दिनाजपुर में शुरू हुआ और पूरे राज्य में फैल गया. किसान और जमीन मालिकों के बीच खूनी टकराव हुआ और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस ने भी हिंसक कार्रवाई की. हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया. यह भू-स्वामी वर्ग और भूमिहीन बटाईदार किसानों के बीच टकराव था, जिसमें एक तरफ कांग्रेस थी और दूसरी तरफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित विपक्ष.

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तेभागा आंदोलन: किसान स्वयंसेवक, बंगाल

 

एक पैसा आंदोलन 

एक पैसा आंदोलन

 

1953 में कोलकाता में ट्राम सेवाओं का किराया एक पैसा बढ़ गया जिसकी वजह से शहर में दंगे भड़क गए. इस आंदोलन का असर काफी दूरगामी साबित हुआ. शहर में ट्राम जलाए गए, पटरियां उखाड़ दी गईं, सार्वजनिक संपत्ति‍यों को नष्ट किया गया, बम फेंके गए, ईंट-पत्थर चले, पुलिस ने गोलियां चलाईं और कई लोग मारे गए. 4,000 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था. इन दंगों में छात्रों की उल्लेखनीय भागीदारी थी. एक पैसा आंदोलन ने बंगाल की सड़कों को युद्ध के मैदान में बदल दिया था. इस आंदोलन ने सत्तारूढ़ कांग्रेस को कटघरे में खड़ा किया और युवाओं की राजनीतिक चेतना और कोलकाता की मेहनतकश आबादी के बीच कम्युनिस्ट आंदोलन के पैठ बनाने में मदद की. 

खाद्य आंदोलन 

कोलकाता के वेलिंगटन स्क्वायर में फूड मूवमेंट शहीदों का स्मारक (स्क्रॉल के लिए शोएब दानियाल)

1959 में पश्चि‍म बंगाल में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये पर्याप्त और रियायती अनाज वितरण को लेकर आंदोलन हुआ. इस आंदोलन में पुलिस के साथ प्रदर्शनकारियों का संघर्ष हुआ और कई लोग मारे गए. बाद में इस आंदोलन में मारे गए या गिरफ्तार किए गए लोगों की स्मृति में कोलकाता के सुबोध मलिक चौक पर एक शहीद स्तंभ बनाया गया.

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खाद्य आंदोलन एक ऐतिहासिक विरोध-प्रदर्शन था जो कई वर्षों तक जारी रहा. इस आंदोलन ने पश्चिम बंगाल और देश में मौजूद खाद्य असुरक्षा की ओर ध्यान खींचा. उस समय सत्ता में कांग्रेस थी जिसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य पार्टियों ने सस्ते अनाज उपलब्ध कराने में विफल रहने के लिए दोषी ठहराया. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बाद में विभाजित हो गई और भारतीय  कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की स्थापना हुई. 

ये टकराव ऐतिहासिक हैं जिन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी की नीतियों और कार्यों के खि‍लाफ हिंसक प्रतिरोध की संस्कृति की परिभाषा लिखी और समय के साथ यह हिंसा राजनीतिक दलों की दिनचर्या का हिस्सा बन गई.

नक्सल आंदोलन 

नक्सली माओवादी विद्रोह के बाद एक तस्वीर 1967 (Getty Images)

नक्सल आंदोलन शुरू होने के साथ यानी 1967 के बाद मार-पीट, बमबारी, कथित वर्गीय दुश्मनों की हत्याएं वगैरह आम बात थी. इसकी प्रतिक्रिोया में राज्य की कार्रवाई भी दमनकारी रही. पुलिस ने सैकड़ों की संख्या में छात्रों को उठाया. हिरासत, मुठभेड़ हत्या, कथित नक्सलियों की सामूहिक हत्याओं की बाढ़ आ गई. 

बारानगर, काशीपुर और बारासात हत्याकांड में पुलिस के हाथों लगभग 100 युवकों की हत्या कर दी गई थी. उस समय राज्य में कांग्रेस की सरकार थी. पुलित्जर पुरस्कार विजेता लेखक झुम्पा लाहिड़ी के उपन्यास ‘द लॉलैंड’ में नक्सली आंदोलन के परिदृश्य और मूर्खतापूर्ण हत्याओं की विस्तृत पड़ताल की गई है. 

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पुराना है हिंसा का सिलसिला 

अगर राजनीतिक हत्याओं की बड़ी घटनाओं की बात करें तो 1971 फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता हेमंत बसु की हत्या बड़ी और सनसनीखेज घटना थी. बसु सीपीआई (एम) और सत्तारूढ़ कांग्रेस के खि‍लाफ चुनाव लड़ रहे थे. इस घटना की जांच के पहले ही कांग्रेस ने सीपीआई (एम) पर उंगली उठा दी और ये कभी पता नहीं चल पाया कि हेमंत बसु की हत्या किसने की.  

हेमंत बसु की हत्या के बाद अजीत कुमार बिस्वास को नॉमिनेट किया गया और उनकी भी हत्या हो गई.  1970 के दशक में ये सबसे सनसनीखेज राजनीतिक हत्याएं थीं. सीपीआई (एम) के नतृत्व में वाम गठबंधन के चुनाव जीतने की उम्मीद थी लेकिन वह हार गया. 

1990 में ममता बनर्जी पर बड़ा एक हमला हुआ था, जब सीपीआई (एम)  के संगठन डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ़ इंडिया के सदस्यों ने उन्हें घेर लिया और रॉड व डंडों से मारा. इस हमले में ममता बनर्जी का सिर फट गया था. हाल के वर्षों में ये राजनीतिक हिंसा की सबसे बुरी घटनाओं में से एक है. सीपीआई (एम)  ने बहुत सफाई देने की कोशि‍श की लेकिन नाकाम रही क्योंकि इस घटना ने ममता को पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ लड़ाई की सबसे अगली पंक्ति में पहुंचा दिया. 

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इस हमले के बाद ममता वामपंथियों के खिलाफ कांग्रेस की लड़ाई का चेहरा बन गईं. इस घटना ने ममता को एक साहसी नेता के रूप में उभरने में मदद की. 

1990 के दशक में ममता बनर्जी (Getty Images)

इसी तरह  21 जुलाई, 1996 को युवा कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए ममता ने राइटर्स बिल्डिंग की तरफ मार्च किया. पश्चिम बंगाल के राजनीतिक टकराव के लंबे इतिहास में यह दिन सबसे हिंसक दिनों में से एक है. धारा 144 तोड़कर आगे बढ़ने से रोकने के लिए  पुलिस ने पहले आंसू गैस का इस्तेमाल किया, फिर लाठी चार्ज की और आखिरकार पुलिस ने गोलियां चला दीं. कुछ ही मिनट की कार्रवाई में 13 लोग मारे गए थे. 

बाद में ममता बनर्जी कांग्रेस से अलग हो गईं और तृणमूल कांग्रेस का गठन किया.

हिंसा की डरावरी यादें 

2006 से 2008 के बीच सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण को लेकर सीपीआई (एम)  और तृणमूल कांग्रेस के बीच हिंसक टकराव हुआ. सिंगूर में टाटा मोटर्स नैनो कार कारखाने के लिए भूमि अधिग्रहण और मिदनापुर के नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण प्रस्ताव को लेकर दोनों पार्टियों के बीच हिंसक टकरावों की श्रृंखला चली. इसने बंगाल की राजनीति में 1970 के दशक की हिंसा की यादों को ताजा कर दिया. 

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तृणमूल कांग्रेस और माकपा कार्यकर्ताओं के बीच हिंसा की एक तस्वीर (Getty Images)

पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के प्रस्ताव पर सीपीआई (एम), तृणमूल कांग्रेस और पुलिस के बीच लंबे समय तक टकराव चलता रहा. इस टकराव में मारे गए लोगों की संख्या अलग-अलग बताई जाती है. तृणमूल कांग्रेस अलग संख्या बताती है, सीपीआई (एम) अलग. स्थानीय लोगों के साथ शामिल सामाजिक संगठनों की ओर से अलग संख्या बताई जाती है. जो भी हो, लेकि‍न ये इलाका एक तरह से रणभूमि बन गया था. बम और बंदूकें चलना, झड़पें होना रोज की घटनाएं थीं.

2009 में पश्चिमी मिदनापुर से सटे झारग्राम के लालगढ़ में यही हुआ, जब पूरा इलाका रणभूमि में बदल गया. यहां छत्रधर महतो (अब एक तृणमूल कांग्रेस नेता) के नेतृत्व में माओवादी समर्थित पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज़ ने सीपीआई (एम) और पुलिस पर कई हमले किए.

रिपोर्टों में अनुमान लगाया गया है कि कुछ ही महीनों में 70 लोग मारे गए और अक्सर निशाने पर सीपीआई (एम) के नेता होते थे, जो पंचायत सदस्य या पार्टी के आर्गेनाइजर थे. माओवादियों के पुनरुत्थान और पीपुल्स वार ग्रुप के नेता किशनजी के उभार ने उस दौर में नक्सली आंदोलन के दौरान पश्चिम बंगाल में फैले कहर की यादें ताजा कीं जब नक्सलियों, सीपीआई (एम) और कांग्रेस के बीच त्रिकोणीय हिंसक घटनाएं हुआ करती थीं. पुलिस से कानून-व्यवस्था बनाए रखने को कहा गया और जिसका नतीजा क्रूर हिंसा, हिरासत में यातना, हिरासत में मौतें और एनकाउंटर में हत्याओं के रूप में सामने आया.

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पश्चि‍म बंगाल में यात्रा कर रहे किसी वीआईपी के काफिले पर पत्थरबाजी करना एक मामूली घटना है. 2009 में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, निरुपम सेन और रामविलास पासवान एक यात्रा पर थे, जब पीपुल्स वॉर ग्रुप की तरफ से बारूदी सुरंग बिछाई गई  थी जो कि सफल नहीं रही. अगर ये कोशि‍श सफल होती तो यह बहुत बड़ी घटना होती, हालांकि ऐसा नहीं हुआ.

पश्चि‍म बंगाल की राजनीति में हिंसा एक बीमारी की तरह है जो दो विरोधी गुटों की बीच संघर्ष की तीव्रता को दर्शाती है. ये हिंसा यह भी संकेत देती है कि एक राजनीतिक सत्ता उभर रही है जो सत्तारूढ़ पार्टी को चुनौती दे रही है. हिंसा पश्चिम बंगाल की तनावपूर्ण और प्रतिस्पर्धी राजनीति का एक पैटर्न जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है.

(लेखिका शिखा मुखर्जी वरिष्ठ पत्रकार हैं और कोलकाता में रहती हैं) 


 

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