बिहार में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है, लेकिन 79 साल बाद भी लोगों के मुद्दे वही हैं. नेता वादे करते हैं, लेकिन प्रवासी मजदूरों की व्यथा अनसुनी रहती है. ये मजदूर अपने बच्चों के भविष्य के लिए दूसरे राज्यों में मेहनत करते हैं, मगर सम्मान और सुरक्षा के लिए तरसते हैं.
महाराष्ट्र से त्योहारों और बिहार चुनाव के लिए 1700 स्पेशल ट्रेनें चल रही हैं. प्रवासी मजदूर इन ट्रेनों से अपने गांव लौट रहे हैं, लेकिन उनकी पीड़ा कम नहीं हुई. कोरोना काल में हजारों किलोमीटर नंगे पांव अपने घर लौटे मजदूरों का दर्द आज भी बरकरार है. वे बताते हैं कि उन्हें 'बिहारी' या 'भैया' कहकर अपमानित किया जाता है, और मारपीट का डर सताता है.
शहरों में मिलती है अपमान और अनदेखी
इन मजदूरों को कोई नाम से नहीं जानता, बस 'मजदूर' कहकर पुकारता है. शहर की सड़कों, इमारतों, और पुलों में इनका खून-पसीना और मेहनत शामिल है. मगर इन्हें न सम्मान मिलता है, न इन इमारतों में जगह. ये लोग धूप, बारिश, और ठंड में मेहनत करते हैं, लेकिन बदले में सिर्फ अपमान और अनदेखी मिलती है.
आजादी के 79 साल बाद भी इनकी एकमात्र मांग है- अपने राज्य में सम्मान और रोजगार. महात्मा गांधी ने जिस सम्मान के लिए अंग्रेजों से लड़ा, वही सम्मान इन मजदूरों को आज भी नहीं मिला. जब कोरोना महामारी आई, तो सब कुछ रुक गया. फैक्ट्रियां बंद हुईं, काम छिन गया, और ये मजदूर अचानक अपने ही देश में प्रवासी बन गए. हजारों किलोमीटर तक नंगे पांव, भूखे पेट, सिर पर बच्चों को उठाए- वे अपने गांवों को लौटे.
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भाषा के नाम पर प्रताड़ना झेलते हैं प्रवासी
उनके पैरों में छाले थे, मगर दिल में उम्मीद थी, कि घर पहुंचना है. वह सफर सिर्फ एक यात्रा नहीं थी, वह इंसानियत की परीक्षा थी. कोरोना महामारी का वह भयावह दौर भी बीत गया, लेकिन इन मजदूरों की परीक्षा आज भी जारी है. कभी मराठी भाषा नहीं आने पर इनके साथ मारपीट होती है, कभी कन्नड़ तो कभी तमिन नहीं आने पर प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. पर क्या हमने कभी सोचा है कि उन्हीं मजदूरों के बिना ये शहर चल भी सकते हैं क्या?
जवाब है नहीं! क्योंकि इन शहरों के हर कोने, हर दीवार, हर सड़क पर उनकी मेहनत की मुहर लगी है. सुबह से शाम तक धूप में झुलसते हुए, बारिश में भीगते हुए और ठंड में कांपते हुए ये लोग इमारतें, फुल, फैक्ट्रियां बनाते हैं. आजादी के 79 साल बाद भी इन मजदूरों की एक ही अपेक्षा है कि इन्हें सम्मान मिले. अगर हम सच में विकसित भारत की बात करते हैं, तो हमें यह याद रखना होगा कि विकास उन हाथों से शुरू होता है जो ईंटें उठाते हैं, और उन कंधों से जो बोझ ढोते हैं.