बिहार चुनाव से पहले राजनीतिक दलों की ओर से चुनावी घोषणाओं, वादों की बहार है. विपक्षी महागठबंधन की अगुवाई कर रहे राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का फोकस एम-वाई (मुस्लिम यादव) समीकरण से आगे निकल वोट बैंक के विस्तार पर है. पार्टी की इस रणनीति के केंद्र में दलित और महादलित हैं. वहीं, सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने भी अब इसी वर्ग पर फोकस कर दिया है.
सवाल उठ रहे हैं कि क्या दलित-महादलित कार्ड से एनडीए लालू यादव के एम-वाई समीकरण को काउंटर कर पाएगा? दलित और महादलित मतदाताओं पर दोनों ही गठबंधनों का फोकस है. तेजस्वी यादव पहले ही आरजेडी को ए टू जेड की पार्टी बता BAAP (बैकवर्ड, अगड़ा, आधी आबादी और पुअर) का नया समीकरण दे चुके हैं.
तेजस्वी यादव की अगुवाई में चुनावी तैयारियों में जुटी आरजे़डी ने लालू यादव के जन्मदिन को भी दलित मतदाताओं को साधने, एक संदेश देने के मौके के तौर पर इस्तेमाल किया. वोट बैंक बढ़ाने की कोशिशों में जुटी आरजेडी के नेताओं को ऐसा लग रहा है कि उसके वोट बैंक में अगर कुछ छोटी पार्टियां भी जुड़ जाती हैं, तीन से चार फीसदी नया वोट भी जुड़ता है, तो उसके जीतने की संभावनाएं बढ़ सकती हैं.
कांग्रेस ने भी दलित चेहरे राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर दलित कार्ड खेल दिया है. लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी बिहार के दौरे कर दलित छात्रों से संवाद करने के साथ ही फूले फिल्म भी देख चुके हैं. चर्चा तो यह भी है कि चिराग के चाचा पशुपति पारस पर भी महागठबंधन की नजर है. यह सब एनडीए के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश के तौर पर ही देखे जा रहे हैं.
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विपक्षी खेमे के नेताओं को लग रहा है कि परंपरागत मतदाताओं के साथ नए वोट बेस का जुड़ना आरजेडी और महागठबंधन के लिए 'चेरी ऑन द केक' जैसा होगा. आरजेडी के बदले अप्रोच को लेकर एनडीए भी अलर्ट है. नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार अपने छोटे-छोटे वोट ब्लॉक को साधे रखने की कोशिश में विपक्ष के एक-एक दांव को काउंटर करती चल रही है. एनडीए का फोकस भी सबसे अधिक दलित-महादलित मतदाताओं पर ही है.
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दलित वोट पर मजबूत पकड़ रखने वाली लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के प्रमुख चिराग पासवान और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के प्रमुख जीतनराम मांझी अभी से ही मैदान में उतर गए हैं. लालू के जन्मदिन वाली तस्वीर को लेकर एनडीए का आंबेडकर के अपमान का आरोप लगा हमलावर होने का आरोप हो या अब भूमिहीनों को पट्टा देने का दांव, यह सब दलित-महादलित को अपने पाले में बनाए रखने की कवायद के तौर पर ही देखे जा रहे हैं.
क्या कहते हैं बिहार चुनाव के आंकड़े
बिहार चुनाव के आंकड़ों की बात करें तो साल 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन, दोनों को ही एक समान वोट मिले थे. एनडीए ने 37.9 फीसदी वोट शेयर के साथ 125 सीटें जीती थीं. महागठबंधन को भी एनडीए के ही बराबर 37.9 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन सीटों के लिहाज से आरजेडी की अगुवाई वाला गठबंधन 110 के साथ एनडीए से 15 सीट पीछे रह गया था.
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यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि तब चिराग पासवान की अगुवाई वाली पार्टी ने 137 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ा था और उसे 5.8 फीसदी वोट मिले थे. सीटों के लिहाज से देखें तो सूबे की 243 में से 38 विधानसभा सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं. इन आरक्षित सीटों में से 21 सीटों पर एनडीए और 17 पर आरजेडी की अगुवाई वाले विपक्षी महागठबंधन को जीत मिली थी.
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वोटिंग पैटर्न की बात करें तो दुसाध यानी पासवान एलजेपी के कोर वोटर माने जाते हैं. बाकी की दलित जातियां 2007 में महादलित के तौर पर वर्गीकृत किए जाने के बाद नीतीश कुमार के साथ हो ली थीं. हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (लोकतांत्रिक) के जीतनराम मांझी की पार्टी महादलित वोट बैंक पर दावा करती है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इनके वोट 2010 और इसके बाद के चुनावों में नीतीश कुमार के पक्ष में ही गए हैं.