scorecardresearch
 

इतिहास और मौत को चुनौती देने वाले 6 घंटे... पढ़ें पहली बार माउंट एवरेस्ट फतह की पूरी कहानी

26 मई को इंसान की पकड़ से इतिहास फिसल गया था, जब साथी पर्वतारोही चार्ल्स इवांस और टॉम बॉर्डिलन चोटी के 300 फीट करीब पहुंच गए थे, लेकिन थकावट और खराब डिवाइस की वजह से उन्हें वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ा.

Advertisement
X
एवरेस्ट फतह की कहानी
एवरेस्ट फतह की कहानी

मार्च 1953 में करीब 400 पर्वतारोही, गाइड और कुली दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर विजय पाने के मकसद से नेपाल के काठमांडू में जमा हुए. मई की शुरुआत में ब्रिटिश कर्नल जॉन हंट की अगुवाई में ग्रुप ने 8848 मीटर (29,032 फीट) ऊंचे शिखर पर चढ़ना शुरू किया. हिमालय की तलहटी से यह कैंपेन 25,938 फीट की ऊंचाई पर स्थित दक्षिण दर्रे तक पहुंचा, जहां पर्वतारोहियों ने अपनी आखिरी कोशिश शुरू की.

पहले ग्रुप के टॉप पर पहुंचने में फेल होने के बाद, एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे को अंतिम कोशिश करने का काम सौंपा गया. न्यूजीलैंड के 33 वर्षीय दुबले-पतले मधुमक्खी पालक हिलेरी और नेपाल की खुंबू घाटी के 39 वर्षीय कुशल शेरपा तेनजिंग नोर्गे की जोड़ी असंभावित थी. लेकिन उनकी हिम्मत और साहसिक भावना ने उन्हें इतिहास की बाधाओं को पार करते हुए दुनिया की सबसे ऊंची चोटी को चुनौती देने वाली कमाल की जोड़ी बना दिया.

यह माउंट एवरेस्ट पर उनके आखिरी 6 घंटे की कहानी है.

29 मई, 1953, सुबह 6:00 बजे, कैम्प IX
माउंट एवरेस्ट, 27,900 फीट

'डेथ ज़ोन' के बीच में अपने टू-मैन टैंट से हिलेरी माउंट एवरेस्ट की दक्षिणी चोटी को घूर रहे थे. सूरज की पहली किरणें बर्फ की ढलानों पर नाचती हुई शिखर की ओर बढ़ रही थीं, जिससे सफेद, भूरे, नारंगी और सुनहरे रंग का एक कैलिडोस्कोप बन रहा था. 30 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से बह रही ठंडी हवा, भेड़ियों के एक गुस्सैल झुंड की तरह चिल्ला रही थी, जिसने हिलेरी की पसलियों में तीखे झोंकों से वार किया.

Advertisement

दो दिन पहले शेरपाओं और पर्वतारोहियों की ब्रिटिश कैंपेन ने एक संकरी चट्टान पर तम्बू लगाया था और उसे अस्थिर बर्फ में टिका दिया था. हिलेरी और उनके शेरपा नोर्गे ने करवटें बदलते हुए रात बिताई थी. चिंता और -25 डिग्री सेल्सियस से नीचे के तापमान के कारण जागते रहने वाले दोनों पर्वतारोही सुबह तक काफी थक चुके थे. लेकिन वे वहां सफल होने के पक्के इरादे से आए थे, जहां बाकी सभी विफल हो गए थे.

ये भी पढ़ें: लगातार ऊपर उठ रहा Everest... वजह भारत की जमीन या नेपाल की एक 'विचित्र' नदी

26 मई को इंसान की पकड़ से इतिहास फिसल गया था, जब साथी पर्वतारोही चार्ल्स इवांस और टॉम बॉर्डिलन चोटी के 300 फीट करीब पहुंच गए थे, लेकिन थकावट और खराब डिवाइस की वजह से उन्हें वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ा. दांतेदार चट्टानों और खड़ी ढलानों के बंजर दृश्य को देखते हुए, हिलेरी ने अपनी मुट्ठी भींच ली. 'हम इतनी दूर आ गए हैं, चलो इसे एक और बार जोर लगाते हैं', उन्होंने मजबूत आवाज में अपने शेरपा से कहा, 'अब या कभी नहीं'. हल्के नाश्ते और गर्म नींबू पानी के बाद इतिहास और मौत को चुनौती देते हुए दोनों अपनी अंतिम यात्रा के लिए तैयार थे. 

Advertisement

डेथ जोन, सुबह 6:30 से 8:00 बजे तक

26,000 फीट से ज़्यादा की ऊंचाई को डेथ ज़ोन कहा जाता है क्योंकि इस ऊंचाई पर लंबे समय तक जिंदा रहना असंभव है. हवा का दबाव समुद्र तल का एक तिहाई होने के कारण हाइपोक्सिया जल्दी शुरू हो जाता है. दिमाग में हलचल होने लगती है. ऑक्सीजन फ्लो को चालू करने जैसी सामान्य गतिविधियां ऊर्जा को खत्म कर देती हैं, जिससे थकावट और तेज दर्द होता है. सिर्फ मजबूत इरादे वाले और साहसी ही यहां जिंदा रह सकते हैं.

जैसे ही हिलेरी और नोर्गे टेंट से बाहर निकले, उनकी मांसपेशियां चीख उठीं, फेफड़े हांफने लगे और दिमाग लड़खड़ा गया. 30 पाउंड के ऑक्सीजन सिलेंडर, कुल्हाड़ी और रस्सियों को अपने कंधों पर ढोते हुए उन्होंने दक्षिणी शिखर की ओर 850 फीट की चढ़ाई पर अपना पहला कदम बढ़ाया, जो कि टॉप पर अंतिम चढ़ाई से पहले अंतिम रेस्ट पॉइंट था.

संकरी, फिसलन भरी पहाड़ी पर घुटनों तक गहरी मुलायम बर्फ में रखा हर कदम जानलेवा हो सकता था. अक्सर पर्वतारोहियों के वजन के कारण कॉर्निस ढह जाती थी. पूर्वी भाग 10,000 फीट और पश्चिमी भाग 4,000 फीट की ऊंचाई पर गिरने से मौत तुरंत हो सकती थी.

बिना किसी डर के पर्वतारोही आगे बढ़ते रहे. सीमित ऑक्सीजन सप्लाई के साथ उनके पास ऊपर चढ़ने और कैंप में लौटने के लिए छह घंटे थे. लगभग 8 बजे बर्फ में घिसटते हुए हिलेरी और नोर्गे दक्षिणी चोटी पर पहुंच गए. धरती के सबसे ऊंचे इस शिखर से माउंट एवरेस्ट की चोटी 300 फीट से भी कम दूरी पर थी. लेकिन उनकी खुशी कुछ ही देर तक टिकी, क्योंकि उन्हें मौत के एक जाल तक जाना था जिसे इतिहास में किसी भी इंसान ने नहीं पार किया था.

Advertisement

28,800 फीट, हिलेरी स्टेप, सुबह 8 बजे से 10 बजे तक

यात्रा शुरू करने से पहले हंट की टीम ने माउंट एवरेस्ट की दक्षिण-पूर्वी रिज की सैकड़ों तस्वीरें देखी थीं. लेकिन वे अंतिम और सबसे कठिन चुनौती के लिए तैयार नहीं थे. 28,800 फीट की ऊंचाई पर 40 फीट की खड़ी चढ़ाई जो दक्षिणी शिखर और शिखर के बीच थी.

बिना किसी दरार या सहारे के खड़ी चट्टान पर चढ़ना असंभव लग रहा था. एक भी चूक उन्हें तिब्बत में 10,000 फीट की जानलेवा खाई में गिरा सकती थी और देरी से उनके ऑक्सीजन के डिब्बे खाली हो जाते, जिससे उनकी दर्दनाक मौत हो जाती. लेकिन नियति ने हिलेरी और नोर्गे को एक रास्ता दे दिया.

ये भी पढ़ें: Mount Everest पर चले लात-घूंसे, सेल्फी के चक्कर में आपस में भिड़े टूरिस्ट

खड़ी चट्टान और बर्फ का कॉर्निस के बीच एक दरार को देखते हुए हिलेरी ने खुद को उसमें फंसा लिया. 40 फीट की रस्सी लेकर, हिलेरी दरार पर चढ़ गए और अपने क्रैम्पन (पकड़ने वाले हुक) को बर्फ में गड़ा दिया. नीचे जमीन पर नोर्गे ने रस्सी को घबराहट के साथ पकड़ रखा था.

एक के बाद एक थका देने वाली खींचतान के साथ संकरी जगहों पर संतुलन बनाते और सांस लेने के लिए हांफते हुए हिलेरी ने खुद को ऊपर खींच लिया. दो घंटे बाद जब उनका हाथ आखिरकार शीर्ष पर एक काठी को पकड़ पाया, तो हिलेरी को एक जंगली दहाड़ लगाने का मन हुआ. लेकिन वह जानते थे कि समय खत्म हो रहा था और साथ में उनकी ऑक्सीजन भी. अपने पैरों को कीचड़ भरी जमीन पर टिकाकर, एक चट्टान के सहारे झुकते हुए उन्होंने रस्सी से नोर्गे को ऊपर खींच लिया.

Advertisement

अंतिम 250 फीट, 10:00 AM-11:30 AM

आसमान की ओर फैली माउंट एवरेस्ट की चोटी उगते सूरज की रोशनी में चमक रही थी. अस्थिर कॉर्निस से सजी एक संकरी पहाड़ी पर्वतारोहियों को उनकी नियति से अलग कर रही थी, जो कि मात्र 250 फीट की दूरी पर थी. लेकिन हर कदम एक मील लंबा लग रहा था.

हिलेरी और नोर्गे ने अपनी एनर्जी का आखिरी स्टोरेज खर्च कर दिया था. उनके घुटने उनकी कोशिशों के बोझ तले दब रहे थे. हाइपोक्सिया से व्याकुल मन आगे का रास्ता तलाशने के लिए संघर्ष कर रहा था. लेकिन दिल एक आंतरिक आवाज की धड़कन पर धड़क रहा था- आगे बढ़ते रहो, हार मत मानो.

दोनों पर्वतारोहियों को बांधने वाली रस्सी को पकड़कर वे धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए. जब नोर्गे पीछे रह गए तो हिलेरी ने उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. जब कीवी को लगा कि वे हार मान लेंगे, तो शेरपा ने उन्हें अपना कंधा दिया. उनके पैर जम गए, जूते लगभग स्टील की बर्फ में प्लास्टर की तरह थे, दोनों व्यक्ति इंच-इंच आगे बढ़ते हुए कराहते रहे, जैसे कि वे अपने अंतिम गंतव्य की ओर एकजुट हों.

ये भी पढ़ें: एवरेस्ट पर कचरा हटाने पहुंची नेपाल की आर्मी, 4 डेड बॉडी, एक कंकाल और 11 टन कचरा मिला

Advertisement

लगभग 11:30 बजे हिलेरी ने एक छोटे से गोल प्लेटफॉर्म पर कदम रखा, जो पृथ्वी पर सबसे ऊंचा स्थान है. हवा के झोंकों ने उनके आने का जश्न मनाया. चोटी उनके लिए एक 10 से 20 फुट का बर्फ का कालीन बिछाती है. हिलेरी की नज़र एक खाई पर पड़ी, जो 8,848.86 मीटर (29,032 फीट) नीचे गिर रही थी. आसमान मानो उनकी ऐतिहासिक उपलब्धि की उम्मीद में बिल्कुल साफ था.

कुछ सेकंड बाद नोर्गे भी उनके साथ शामिल हो गए और शानदार दृश्य का आनंद लिया. अपना कैमरा खोलकर हिलेरी ने कई तस्वीरें खींचीं, चोटी और अपने साथी की. लेकिन नोर्गे, हिलेरी के लिए इस पल को कैद नहीं कर पाए क्योंकि शेरपा को कैमरा चलाना नहीं आता था.

नॉर्गे ने चोटी पर बिस्किट चढ़ाए, हिलेरी ने कैंपेन लीडर कर्नल हंट की ओर से दिया गया एक क्रॉस चोटी पर छोड़ा. साथ में उन्होंने बर्फ में संयुक्त राष्ट्र, ब्रिटेन, नेपाल और भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले चार झंडे लहराए. ऑक्सीजन की सिर्फ़ एक घंटे की सप्लाई के साथ उन्होंने सुबह 11:45 बजे चोटी से उतरना शुरू किया. कुछ ही घंटों में वे अपने बेस कैंप पर वापस आ गए, अपने पीछे पैरों के निशान छोड़ते हुए, जो हज़ारों लोगों को दुनिया के टॉप पॉइंट तक ले जाने वाले थे.

Advertisement

उपसंहार

अपने अंतिम पड़ाव साउथ कोल पर वापस आकर हिलेरी ने साथी पर्वतारोही जॉर्ज लोवे को विजयी भाव से कहा, 'हमने उसे हरा दिया.' अब दुनिया को खबर पहुंचाने का काम सौंपा गया, एक शेरपा धावक ने काठमांडू तक करीब 200 मील की दूरी तय की. विजय का वृत्तांत सबसे पहले द टाइम्स के संवाददाता जेम्स मॉरिस को सुनाया गया, जो कैंपेन के साथ थे. मॉरिस ने इसे एक कोडेड टेलीग्राम के जरिए लंदन भेजा. 2 जून, 1953 को संयोग से महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के राज्याभिषेक के साथ यह कहानी सामने आई. 

दुनिया आखिरकार मानवता के कदमों तले थी.

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement