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बिहार की नालंदा यून‍िवर्स‍िटी जो ऑक्सफोर्ड-हार्वर्ड से पहले बनी ज्ञान का गढ़, मिलती थी इन 64 विषयों की श‍िक्षा

ऑक्सफोर्ड या हार्वर्ड की स्थापना से करीब 700 साल पहले बिहार की धरती पर ऐसी यूनिवर्सिटी थी जहां दुनिया के कोने-कोने से छात्र ज्ञान लेने आते थे. ये थी नालंदा यूनिवर्सिटी जो सिर्फ एक शिक्षण संस्थान नहीं थी. ये विचार, तर्क और दर्शन की प्रयोगशाला भी थी जहां गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, दर्शन, व्याकरण से लेकर मनोविज्ञान तक 64 विषय पढ़ाए जाते थे.

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बौद्ध मठ नहीं, ग्लोबल यूनिवर्सिटी थी नालंदा (Gen AI : Vani Gupta)
बौद्ध मठ नहीं, ग्लोबल यूनिवर्सिटी थी नालंदा (Gen AI : Vani Gupta)

बिहार की धरती पर आज भी लाल ईंटों के खंडहर धूप में चुपचाप सोए हैं. इन पर कभी विचारों का एक शहर खड़ा था. नाम था नालंदा. ये ये ऑक्सफोर्ड या हार्वर्ड बनने से कई सदियों पहले की बात है जब भारत ने दुनिया की पहली आवासीय यूनिवर्सिटी बना ली थी. यहां 10,000 छात्र और 2,000 शिक्षक बोधि वृक्षों की छांव में खगोलशास्त्र से लेकर व्याकरण तक पर बहस किया करते थे.

ये सिर्फ एक बौद्ध मठ नहीं था बल्कि एक बहुविषयी विश्वविद्यालय था. ये व‍िश्वव‍िद्यालय ज्ञान का वैश्विक केंद्र तो था ही, साथ ही भारत के बौद्धिक स्वर्ण युग का प्रतीक भी था. आइए जानते हैं नालंदा की अनसुनी विरासत की दास्तान जिसने सदियों पहले ही बिहार को ज्ञान का गढ़ बना दिया था. 

अपने समय से बहुत आगे की यूनिवर्सिटी

नालंदा की स्थापना 5वीं सदी ईस्वी में गुप्त वंश के सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने की थी. लगभग 700 साल तक ये राजाओं के संरक्षण में फली-फूली. यहां चीन, तिब्बत, कोरिया, इंडोनेशिया और श्रीलंका तक से विद्वान आते थे. इसे इतिहास की पहली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी कहा जाए तो अतिश्योक्त‍ि नहीं होगी.

7वीं सदी में चीन के भिक्षु ह्वेनसांग (Xuanzang) और इत्सिंग (Yijing) ने यहां पढ़ाई की और नालंदा की भव्यता का विस्तार से वर्णन किया. उनके अनुसार नालंदा में 8 बड़े परिसर, 427 हॉल, 72 लेक्चर रूम और 3 विशाल पुस्तकालय रत्नसागर, रत्नोदधी और रत्नरंजक, थे जिनकी पांडुलिपियां रत्नों की तरह चमकती थीं. इत्सिंग ने लिखा था कि यहां दूर-दूर से छात्र तर्कशास्त्र, दर्शन, चिकित्सा और भाषा सीखने आते थे.

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नालंदा के वो 64 विषय

नालंदा की सबसे खास बात उसका करिकुलम था. यहां सिर्फ धर्म ही नहीं, बल्कि कुल 64 विषय पढ़ाए जाते थे. ह्वेनसांग के अनुसार छात्र जिनन विषयों में विशेषज्ञता ले सकते थे, वो इस प्रकार थे. 

व्याकरण और भाषा विज्ञान (व्याकरण)
तर्कशास्त्र (हेतुविद्या)
आयुर्वेद (चिकित्सा)
गणित (गणिता)
खगोलशास्त्र और ज्योतिष (ज्योतिष)
दर्शन और अध्यात्त्म (माध्यमक, योगाचार)
राजनीति और अर्थशास्त्र (अर्थशास्त्र)
कला, मूर्तिकला और वास्तुकला

ये संयोजन दिखाता है कि भारत में उस समय ज्ञान को आपस में जुड़ा हुआ माना जाता था यानी तर्क, भाषा, चिकित्सा और नीति सभी एक ही बौद्धिक यात्रा के हिस्से थे.

सिर्फ रटने की नहीं, मिलती थी सोचने की शिक्षा

नालंदा में पढ़ाई सिर्फ किताबों से नहीं, बल्कि संवाद और बहस पर आधारित थी. यहां छात्रों को खुली चौपालों में शिक्षकों से सवाल करने और अपने विचारों का बचाव करने की आजादी थी. यहां दाखिला भी आसान नहीं था. ह्वेनसांग लिखते हैं कि गेट पर द्वारपालक विद्वान होते थे जो प्रवेश से पहले छात्रों से सवाल पूछते थे. हर 5 में से सिर्फ 1 छात्र को ही प्रवेश मिलता था. ये व्यवस्था दिखाती है कि नालंदा में वंश या धन नहीं बल्कि बुद्धि और योग्यता का महत्व था.

राजाओं ने किया फंड, भिक्षुओं ने चलाई व्यवस्था

इस व‍िश्वव‍िद्यालय में आज की यूनिवर्सिटीज की तरह फीस नहीं ली जाती थी. नालंदा को गुप्त, हर्षवर्धन और पाल वंश के राजाओं से जमीन और अनुदान मिलते थे. कैंपस में हॉस्टल, क्लासरूम, मंदिर, झीलें और ध्यान उद्यान थे जिनका संचालन भिक्षुओं और कर्मियों की संगठित टीम करती थी. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के अनुसार, कई विदेशी शासकों ने भी नालंदा को दान दिया था जो इसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा का सबूत है.

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ग्लोबल एजुकेशन का केंद्र था नालंदा

ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे सैकड़ों विदेशी विद्वान यहां पढ़ते या पढ़ाते थे. नालंदा महायान बौद्ध दर्शन और शिक्षा का केंद्र बन गया था जिसने तिब्बत, चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया तक शिक्षा प्रणाली को प्रभावित किया. 

जब 12वीं सदी में बख्तियार खिलजी के हमले में नालंदा जल गई तो कुछ भिक्षु पांडुलिपियां लेकर तिब्बत भाग गए. वहीं से आगे चलकर तिब्बती बौद्ध शिक्षा और कई प्रसिद्ध मठों (जैसे सामये, ताशिल्हुंपो) की बुनियाद पड़ी. बाद में इन पांडुलिपियों के अंश ल्हासा और दुनहुआंग की गुफाओं में मिले जिससे नालंदा की दूरगामी विरासत साबित हुई.

वो आग जो महीनों तक जलती रही...

नालंदा की कहानी का सबसे दुखद अध्याय 1193 ईस्वी में आया जब बख्तियार खिलजी की सेना ने यहां हमला कर दिया. इतिहासकारों के अनुसार नालंदा का विशाल पुस्तकालय धर्मगंज महीनों तक जलता रहा. कुछ लेखों में तो यहां तक कहा गया है कि ये आग इतनी बड़ी थी कि छह महीने तक बुझी ही नहीं. इतिहासकार जॉन की ने लिखा कि नालंदा की लाइब्रेरी की आग ने सदियों तक भारतीय ज्ञान का उजाला मंद कर दिया.

क्या बचा नालंदा से

वैसे ये विनाश बहुत बड़ा था, लेकिन नालंदा की आत्मा बची रही. इसके विद्वान जैसे धर्मपाल, शीलभद्र और अतीश दीपंकर तिब्बत और दूसरे देशों में ज्ञान का प्रसार करते रहे. 19वीं सदी में पुरातत्वविद अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने ह्वेनसांग की यात्रा पुस्तिका के आधार पर नालंदा के अवशेषों को फिर खोज निकाला.  2016 में यूनेस्को ने इसे भारत के प्राचीन वैश्विक ज्ञान आदान-प्रदान का प्रतीक बताते हुए विश्व धरोहर स्थल घोषित किया. 

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नालंदा 2.0 यानी ज्ञान का पुनर्जागरण

इतिहास ने एक खूबसूरत करवट ली जब 2014 में नालंदा यूनिवर्सिटी को फिर से जीवित किया गया. वो भी ठीक उसी जगह के पास जहां इसके खंडहर हैं. इस नई यूनिवर्सिटी को फिर से बनाने में जापान, चीन, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया समेत 17 देशों ने भागीदारी की. इसका डिजाइन मंडल की संरचना पर आधारित है जो ज्ञान और ब्रह्मांडीय संतुलन का प्रतीक है.

नालंदा की विरासत

एक हजार साल पहले जब दुनिया के बाकी ज्ञान केंद्र बनने बाकी थे, भारत ने नालंदा के रूप में उच्च शिक्षा का खाका तैयार कर लिया था . ऐसा खाका जिसमें तर्क, जिज्ञासा और सीखने की आजादी को सबसे ऊपर माना जाता था.
 

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