हाल ही में बिजनौर जिले में थाने के निरीक्षण के दौरान पुलिसवालों की पोल खुल गई. ना वो हथियार चला पाए और ना ही उनके नाम बता पाए. लेकिन योगी जी ने उत्तर प्रदेश की कमान अपने हाथ में आते ही यूपी पुलिस को ऑपरेशन ''ठोक दो'' पर लगा दिया था. योगी जी के आदेश पर पुलिस धड़ाधड़ अपराधियों को ठोक भी रही थी. हैरानी की बात ये है कि एनकाउंटर करते वक्त यूपी के पुलिसवालों की ना तो बंदूक फंस रही थी और ना ही अपराधियों की जान बच रही थी.
बात पश्चिमी यूपी के बिजनौर ज़िले की है. जहां नजीबाबाद थाने में बिजनौर के सीओ अरुण कुमार पहुंचे थे. आने से काफी पहले ही उन्होंने सूचना भी भिजवा दी थी कि वो निरीक्षण करने आ रहे हैं. निरीक्षण की शुरुआत एक दरोगा जी से हुई. दरोगा जी को पैलेट गन दी गई और कहा चलाइए. अरे ये क्या ये मिस हो गई. सीओ साबह चिल्ला उठे. एक अर्से से सरकार ने ये पैलेट गन थाने को दी हुई है. थाने के दिवान साहब ने संभाल कर भी रखी. पर ना दीवान साहब से मतलब. ना इंस्पेक्टर साहब से मतलब. चल रही है नौकरी. चलने दीजिए. थानेदार ने चलाई, लेकिन ये क्या साहब फिर कह रहे हैं कि ओह माई गॉड. फिर मिस हो गई. मगर अब अगला फायर कैसे करें. गोली कहां लगेगी. कोई तो बता दो.
साहब थानेदार से बोले, अब बंदूक नीचे करो. गोली चेंज करो. वहां खड़े होकर ये सब देख रहे दीवान साहब की तो जैसे इज्जत पर बन आई. उन्होंने थानेदार से बंदूक छीनी और खुद निशाना लगाने लगे. मगर ये क्या दीवान ने गोली तो चलाई लेकिन फुस्स हो गई. ये ख़बर पुरानी है, पर समझने के लिए जरूरी है. ऐसा एक बार नहीं, बार-बार हुआ. जब मौका आया तो बंदूक चली ही नहीं.
हालांकि एनकाउंटर के लिए भी सरकारी बंदूकें ही इस्तेमाल की जाती हैं. जिनके बल पर ही यूपी पुलिस ने धड़ा-धड़ एनकाउंटर किए. कई बदमाश ढेर कर दिए. कईयों को घायल कर धर दबोचा. है ना कमाल? एक तरफ़ यूपी की सरकारी बंदूकें चलती ही नहीं थी, और अब अचानक वही बंदूकें दनादन गोलियां उगल रही थी. उगले भी क्यों ना? जब ट्रिगर पर ऊंगली योगी के फरमान की हो और एनकाउंटर सरकारी आदेश तो गोलियां तो चलेंगी ही.
सवाल ये है कि अचानक यूपी में एकाउंटर की झड़ी क्यों लग गई? क्या य़ूपी में क़ानून व्यवस्था इस कदर चरमरा गई है कि एनकाउंटर के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा? क्या यूपी में क्रिमिनल इस कदर बेलगाम हो चुके हैं कि अचानक पूरे सोसायटी के लिए खतरा बन गए? क्या यूपी की पुलिस इस कदर बेबस हो गई कि क्राइम पर कंट्रोल ही नहीं कर पा रही है? या फिर सरकार ने सबसे आसान रास्ता चुन लिया है कि क्राइम खत्म करना है, तो क्रिमिनल को ही खत्म कर दो. पर क्या ये रास्ता सही है? क्या यूपी की कानून व्यवस्था को सुधारने के लिए एनकाउंटर ही एकमात्र रास्ता और आखिरी हथियार है? अगर हां, तो फिर जब तक ये एनकाउंटर जारी है, तब तक के लिए क्यों ना यूपी की तमाम अदालतों पर ताला लगा देना चाहिए? वैसे भी अदालतों की जगह इंसाफ़ तो अब सड़क पर ही हो रहा है। वो भी गोलियों से.
एनकाउंटर यानी मुठभेड़ शब्द का इस्तेमाल हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बीसवीं सदी में शुरू हुआ. एनकाउंटर का सीधा सीधा मतलब होता है बदमाशों के साथ पुलिस की मुठभेड़. हालांकि बहुत से लोग एनकाउंटर को सरकारी क़त्ल भी कहते हैं. हिंदुस्तान में पहला एनकाउंटर 11 जनवरी 1982 को मुंबई के वडाला कॉलेज में हुआ था, जब मुंबई पुलिस की एक स्पेशल टीम ने गैंगस्टर मान्या सुरवे को छह गोलियां मारी थी. कहते हैं कि पुलिस गोली मारने के बाद उसे गाड़ी में डाल कर तब तक मुंबई की सड़कों पर घुमाती रही, जब तक कि वो मर नहीं गया. इसके बाद उसे अस्पताल ले गई. आज़ाद हिंदुस्तान का ये पहला एनकाउंटर ही विवादों में घिर गया था.
ये तमाम एनकाउंटर इसलिए सवाल खड़े करते हैं कि इनमें से हर एनकाउंटर ऐलानिया कह कर किया गया. सूत्रों के मुताबिक यूपी एसटीएफ और तमाम ज़िला पुलिस को बाक़ायदा घोषित अपराधियों की लिस्ट भेजी गई और उसी लिस्ट के हिसाब से यूपी में एनकाउंटर जारी हैं. वैसे इसे पता नहीं इत्तेफाक कहेंगे या कुछ और कि पहले खुद योगी आदित्यनाथ को यूपी सरकार और यूपी पुलिस से खुद के लिए संरक्षण मांगनी पड़ा था. वो भी संसद में. तब उन्होंने बाकायदा रोते हुए कहा था कि यूपी सरकार उन्हें झूठे आपराधिक मामलों में फंसा रही है. लेकिन वक्त बदल चुका है. अब वही योगी यूपी की सरकार के सरदार हैं और यूपी पुलिस उनके आधीन. अब संरक्षण कोई और मांग रहा है.