बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी नेता रहे कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा. राष्ट्रपति कार्यालय की ओर से यह घोषणा दिवंगत ठाकुर की जयंती से एक दिन पहले की गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर्पूरी ठाकुर को 'सामाजिक न्याय का प्रतीक' बताया है. पीएम ने कहा, 'दलितों के उत्थान के लिए उनकी अटूट प्रतिबद्धता और उनके दूरदर्शी नेतृत्व ने भारत के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने पर एक अमिट छाप छोड़ी है.'
कर्पूरी ठाकुर को सामाजिक न्याय का पर्याय और उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों की वकालत करने वाले राजनेता के तौर पर जाना जाता है. नाई समुदाय में गोकुल ठाकुर और रामदुलारी देवी के घर जन्मे कर्पूरी का पैतृक गांव समस्तीपुर जिले का पितौंझिया गांव (अब कर्पूरी ग्राम से जाना जाता है) है. उन्होंने एक सीमांत किसान के बेटे से बिहार के दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया. जीवन में सरलता और सादगी के कई किस्से आज भी उदाहरण के तौर पर दिए जाते हैं.
'वंचित और पिछड़े वर्ग के हिमायती रहे कर्पूरी ठाकुर'
1970 के दशक में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल अभूतपूर्व था, खासकर समाज के वंचित वर्गों के लिए. दिल से समाजवादी कर्पूरी ठाकुर अपने छात्र जीवन के दौरान राष्ट्रवादी विचारों से गहराई से प्रभावित थे और बाद में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन में शामिल हो गए. उनकी राजनीतिक विचारधारा को 'लोहिया' विचारधारा द्वारा आगे आकार दिया गया, जिसने निचली जातियों को सशक्त बनाने पर जोर दिया.
'चुनाव जीतन के बाद भी रिक्शे पर चलते थे'
सियासी धनबल-बाहुबल और घोटालों के दौर में लोगों को ये सुनकर हैरानी होगी कि कोई नेता दो बार मुख्यमंत्री रहने और तीन दशक से अधिक वक्त तक लगातार चुनाव जीतने के बाद भी रिक्शे पर चलता हो. ऐसे वक्त में जब सियासत में धनबल, बाहुबल और चुनाव प्रचार में करोड़ों के खर्च की चर्चा आम है. सियासत में कर्पूरी जैसे नेता विरले ही मिलेंगे.
'लोहिया और जेपी थे राजनीतिक गुरु'
जननायक कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर ने देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया. वे स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ के तौर भी जाने गए. भले पिछड़े समुदाय से ताल्लुक रखते थे, लेकिन विजन गरीब-वंचित वर्ग के कल्याण का रहा. लोकनायक जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया इनके राजनीतक गुरु थे. वे 1970 के दशक में दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे.
बिहार में पहली बार लागू की थी शराबबंदी
ठाकुर का राजनीतिक करियर कई महत्वपूर्ण पड़ावों से भरा रहा. बिहार में पहली बार शराबबंदी का श्रेय भी कर्पूरी ठाकुर को जाता है. उन्होंने 1977 में मुख्यमंत्री के रूप में बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू की थी. यह सामाजिक सुधार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इसके अलावा, उन्होंने विशेष रूप से बिहार के अविकसित क्षेत्रों में कई स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि शिक्षा उन लोगों के लिए सुलभ हो जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर थे.
'कभी विधानसभा चुनाव नहीं हारे'
कर्पूरी ठाकुर बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. मुख्यमंत्री के रूप में दोनों कार्यकाल को मिलाकर कुल ढाई साल बिहार का शासन उनके हाथ में रहा. लोगों के बीच इतने लोकप्रिय थे कि 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे.
'अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में हटाया'
कर्पूरी ठाकुर का प्रभाव उनकी प्रशासनिक भूमिकाओं से परे तक फैला हुआ था. एक नेता के रूप में वे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के उत्थान को लेकर बहुत चिंतित रहते थे. मैट्रिक स्तर पर अनिवार्य विषय के रूप में अंग्रेजी को हटाकर चर्चा में आए थे. तब वे बिहार के शिक्षा मंत्री थे. इस कदम के पीछे यह सुनिश्चित करना था कि शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों को परेशानी ना हो और वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें. कर्पूरी ठाकुर की नीतियों और पहल का असर बिहार में पिछड़ी राजनीति के उदय में देखा जा सकता है. उनके काम ने पिछड़े वर्गों के सशक्तिकरण की नींव रखी, जिसने बाद में जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के गठन को प्रभावित किया.
'फटा कोट पहनकर चले गए थे विदेश'
एक और किस्सा कर्पूरी ठाकुर के बारे में मशहूर है. 1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने थे. उन्हीं दिनों उनका ऑस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में चयन हुआ था. उनके पास कोट नहीं था. तो एक दोस्त से कोट मांगा गया. वह भी फटा हुआ था. खैर, कर्पूरी ठाकुर वही कोट पहनकर चले गए. वहां यूगोस्लाविया के शासक मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ्ट किया गया.
'पिता के अपमान पर क्या बोले थे कर्पूरी?'
उनकी सियासी सुचिता से जुड़ा एक और किस्सा उसी दौर का है कि उनके मुख्यमंत्री रहते ही उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित करने का काम किया. खबर फैली तो डीएम गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने कार्रवाई करने से रोक दिया. उनका कहना था कि दबे पिछड़ों का अपमान तो गांव-गांव में हो रहा है, सबको बचाए पुलिस तब कोई बात हो.
'कांग्रेस से अलग लकीर खींची और सीएम बने'
1960 के दशक में कांग्रेस के खिलाफ देश में समाजवादी आंदोलन तेज हो रहा था. 1967 के आम चुनाव में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया गया. कांग्रेस पराजित हुई और बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. सत्ता में आम लोगों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी. कर्पूरी ठाकुर उस सरकार में उप मुख्यमंत्री बने. 1977 में जनता पार्टी की विजय के बाद वे बिहार के मुख्यमंत्री बने.
'पिछड़ों को दिया था 27 प्रतिशत आरक्षण'
उस दरम्यान सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग जोर-शोर से उठ रही थी. मंडल आंदोलन से भी पहले मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया था.
'विरासत में देने के लिए मकान तक नहीं था'
कर्पूरी ठाकुर के बारे में कहा जाता है कि उनकी ईमानदारी भी एक मिसाल है. राजनीति में इतना लंबा सफर बिताने के बाद जब उनका निधन हुआ तो अपने परिवार को वसीयत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए.
'5 एकड़ से कम जोत पर मालगुजारी खत्म कर दी'
कर्पूरी ठाकुर ने शिक्षा मंत्री रहते हुए छात्रों की फीस खत्म कर दी थी और अंग्रेजी की अनिवार्यता भी खत्म कर दी थी. उन्होंने उन खेतों पर मालगुजारी खत्म कर दी, जिनसे किसानों को कोई मुनाफा नहीं होता था. साथ ही 5 एकड़ से कम जोत पर मालगुजारी खत्म कर दी थी. उर्दू को राज्य की भाषा का दर्जा दे दिया था.
'जब देवीलाल ने कर्पूरी की मदद के लिए दिखाई दिलचस्पी'
यूपी के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा- 'कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा. बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा. हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं. जननायक कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था. कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे. कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर बहुगुणा रो पड़े थे.
'ठाकुर की विरासत को आगे बढ़ाने का प्रयास...'
आजादी के बाद पहली बार बिहार में हुए हालिया जाति सर्वे में कर्पूरी ठाकुर की विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश की गई. सर्वे से पता चला कि पिछड़ा समुदाय बिहार की आबादी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा है, जिसमें अत्यंत पिछड़े समुदाय 36.01% और पिछड़ी जातियां 27.12% शामिल हैं. इस डेटा में राजनीतिक रणनीतियों को नया आकार देने और नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए रिजर्वेशन भी बढ़ा दिया गया है.