तारीख थी 24 अक्टूबर 2017. एक संगीत कार्यक्रम के सिलसिले में मेरी उनसे दो-तीन दिन से बात हो रही थी. कार्यक्रम के लिए साजिन्दों की खोज करनी थी और इसमें भी सबसे खास था कि एक अनुभवी हारमोनियम वादक चाहिए. वादक ऐसा होना चाहिए जो ठुमरी के सौंदर्य बोध को समझे और इसमें चमत्कार भी भर सके.
ऐसे नायाब वादक की तलाश पूरी होते ही मैंने उन्हें सुबह फोन किया और इस बात की जानकारी दी. उन्होंने कहा- ठीक है, बहुत बढ़िया... और आगे की चर्चा के लिए बेटी से बात करने को कहा. ये सारी औपचारिकताएं पूरी हुईं, दिन गुजरा, रात बीती और फिर अगली सुबह मैंने उन्हें यूं ही फोन कर लिया. फिर उधर से जो आवाज सुनाई दी, जो बात पता चली, मैं ठिठक कर रह गई. अप्पा जी जा चुकी थीं. हम सबको छोड़कर.
ठुमरी और पूर्व अंग गायकी की सुमधुर आवाज के तौर पर मशहूर पद्मजा चक्रवर्ती जब ये किस्सा बता रही थीं तो फोन पर उनकी रुंधी आवाज को महसूस किया जा सकता था. कुछ सेकेंड्स की चुप्पी के बाद उन्होंने ही इस खामोशी को तोड़ा और कहने लगीं, ऐसी ही थीं हमारी अप्पाजी, हमारी गुरु, मार्गदर्शिका, संगीत के बड़े बागीचे में वो किसी अमराई सी थीं और जब ठुमरी गातीं तो लगते कि वनफूल झर रहे हों.
अप्पाजी यानी बनारस घराने की सशक्त हस्ताक्षर गिरिजा देवी, जिन्हें देश-दुनिया में ठुमरी की रानी कहा जाता है.
तो क्या अप्पा जी कभी नाराज भी हो जाती थीं? नाराज... ऐसा कहते हुए पद्मजा थोड़ा रुकीं और फिर उन्होंने कहना शुरू किया. उनकी नाराजगी तो आशीर्वाद समझिए. सिखाते समय गुरु कुछ कठोर तो होता ही है तो वह भी अपने शिष्यों के साथ सिर्फ सिखाते समय ही थोड़ी ही कठोर हुआ करती थीं. वह भी तब, जब कई बार सिखाने के बावजूद गायन में कोई गड़बड़ी होती थी. वह बारीकी का बहुत ख्याल रखती थीं और गायन सिखाने से भी पहले सिखाती थीं आत्मविश्वास.

मंच पर गाना आने से पहले आत्मविश्वास आना जरूरी
कहती थीं कि मंच पर गाना आने से पहले, गाने का आत्मविश्वास आना चाहिए. इसी आत्मविश्वास से सहजता आती है और जब आप सहज होकर गाते हैं, तब गायन की कोई भी विधा, चाहे वो खयाल गायकी हो, ध्रुपद, धमार, टप्पा या फिर ठुमरी ही क्यों न हो, वह कानों से होकर सीधे दिल तक पहुंचती है. 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए' की सफलता और प्रासंगिकता आज भी है, यह ठुमरी आज भी उतनी कर्णप्रिय और यादगार है तो केवल इसलिए क्योंकि इसमें एक सहजता है, जो इसकी सबसे बड़ी विशेषता है.
ठेठ लोक भाव थे गायकी की खासियत
बात विशेषता की आती है तो उनकी एक और प्रमुख और प्रसिद्ध शिष्या विदुशी सुनंदा शर्मा भी इस बारे में बड़ी बारीकी से बात करती हैं. वो कहती हैं कि अप्पा जी (गिरिजा देवी) ने रागों की बारीकी का जो अध्ययन किया सो तो किया ही, शास्त्रीयता का उनके गायन में होना स्वाभाविक ही है, लेकिन इससे बड़ी बात है कि उन्होंने उससे भी पहले ठेठ लोक भाव, रस, नाजुकता और सहजता को अपने गायन में शामिल किया. यह कोई सीखने की बात भी नहीं है, यह अनुभव की बात है. इसके लिए आपको अपने परिवेश के प्रति संवेदनशील होना होता है, उसमें रचना-बसना होता है और अप्पा जी में ये बात थी.
गले से निकले सुर सीधे दिल में उतरते थे
वाराणसी का नटोनिया मोहल्ला हमेशा उनके जेहन में था, इसीलिए जब आप उनकी कोई ऐसी ठुमरी या कजरी सुनते हैं, जिसमें स्त्री वेदना के सुर हैं तो वह प्रभावी इसीलिए लगते हैं, क्योंकि उनमें नटोनिया मोहल्ले में बचपन के खेल खेलती एक बिटिया की खिलखिलाहट बसी है. वह बचपन से बालपन की ओर बढ़ी, किशोरी हुईं और षोडषी (सोलह साल की) होते-होते ब्याह दी गईं तो उनके भीतर बचपन, मायका, मिलन और विदाई जैसे भाव स्थायी बनकर रहे. उनके गले से निकला स्वर सीधे दिल में उतरता था. वह शब्द के मर्म को पकड़कर सुर में ढाल देतीं और उनकी आवाज से शब्दों में अर्थ भर जाता. संगीतकार अमजद अली खान ने सही ही कहा था, "गिरिजा जी का गाना सुनकर रूह कांप जाती है."
बचपन से ही संगीत के प्रति अनुराग
यानी संगीत के प्रति उनमें बचपन से ही अनुराग पनप रहा था? सुनंदा कहती हैं, हां... बिल्कुल, इसमें तो कोई शक ही नहीं है. हमारे यहां कहावत भी है कि 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात...' तो अप्पा जी के भीतर बचपन से ही सुर के सुमन खिल रहे थे. फूल को खिलने के लिए वातावरण भी मिला और अच्छी पौध तैयार होने लायक खाद-पानी भी. घर का संगीतमय परिवेश और उनके पिता की खुद की संगीत के प्रति रुचि. इसका असर हुआ कि पांच साल की नन्हीं गिरिजा भी साजों पर हाथ आजमाने लगी और पिता के साथ गाने भी लगीं.
सिल्वर स्क्रीन तक भी रही पहुंच
8 मई 1929 को वाराणसी में जन्मी. पिता रामदेव राय, संगीत प्रेमी थे और खुद भी हारमोनियम बजाया करते थे. लिहाजा बचपन से ही उन्होंने गुरु सरजू प्रसाद मिश्रा से ख्याल सीखने की शुरुआत की. बचपन का कोरा मस्तिष्क पटल, जल्दी ही संगीत की आलाप-तानों से भरने लगा और महज चार सालों में वह इतनी हुनरमंद हो गईं कि मंच की प्रस्तुति अब उनसे दूर नहीं थी, और इसी दौरान उनका वास्ता सिल्वर स्क्रीन से भी हुआ.

लता मंगेशकर से भी रहे मधुर संबंध
सिल्वर स्क्रीन, यानी फिल्मों से? गिरिजा देवी को समर्पित उनके जीवन पर किताब लिखने वाले मशहूर लेखक यतींद्र मिश्र इस बारे में भी बताते हैं. वह कहते हैं कि अप्पा जी कोई नौ या दस साल की रही होंगी, तब उन्होंने उस उम्र में फिल्म "याद रहे" में अभिनय भी किया. गांधी जी ने भी उनके इस काम पर उन्होंने खूब आशीर्वाद दिया था. वह बताते हैं कि स्वर कोकिला लता मंगेशकर और अप्पा जी में बहुत मधुर संबंध थे. दोनों अक्सर आपस में बातें करती थीं. जब गिरिजा जी को पद्मविभूषण मिला था, तो लता मंगेशकर जी ने उन्हें फोन किया था, बोलीं — "गिरिजा जी, आपको तो बहुत पहले ही पद्मविभूषण मिल जाना चाहिए था." दोनों में बहुत प्रेम था. उन्हें 1972 में पद्मश्री, 1989 में पद्मभूषण और 2016 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था. वह संगीत रिसर्च एकेडमी में भी गुरु के पद पर रहीं और संगीत के शोध और प्रसार को नए आयाम दिए.
पवित्रता थी अप्पा जी की गायकी में
यतींद्र मिश्र कहते हैं कि आज इतने दिनों में भी उनको याद करते हैं, या फिर उनकी गायकी प्रासंगिक है तो इसकी एक खास वजह है. वह वजह है पवित्रता. संगीत एक ऐसा माध्यम है, जो पवित्रता की धारा के साथ ही बहता है. शृंगार का गायन होने के बावजूद अप्पा जी यानी गिरिजा देवी की गायकी में कभी अश्लीलता नहीं रही. जब भी कोई बंदिश, पद या गीत अपने किसी एक भी शब्द के साथ उस वर्जित राह पर निकलता, अप्पा जी उसमें जरूरी बदलाव कर देतीं. यह बदलाव उस बंदिश को और खूबसूरत बना देता था.
जब गिरिजा देवी ने बदली गीत की पंक्तियां
वह कहते हैं कि इसका उदाहरण तो मैं प्रसंग के साथ दे सकता हूं. भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के प्रतिष्ठित जाने-माने साहित्यकार और कवि रहे. उन्होंने गद्य और पद्य में समान रूप से काम किया है. ऐसी ही उनका रचा एक पद था, 'कहनवा मानो ओ दिलजानी', पद निहायत खूबसूरत था. भावपूर्ण था. गाने में खिलता भी. तो अप्पा जी ने इस पद को गायन के लिए उठा लिया, लेकिन उन्हें थोड़ा कुछ खटक रहा था, तो उन्होंने इसमें एक प्यारा सा बदलाव कर दिया और इसे बना दिया 'कहनवा मानो ओ राधारानी' इस तरह गीत के रस भाव को बिना बदले उन्होंने एक पूर्ण शृंगार परक रचना को भक्ति शृंगार की रचना में बदल दिया. शृंगार रस दोनों ही गीतों में एक समान रहा, लेकिन अप्पा जी ने इसे शृंगारिक भक्ति भाव में बदल दिया. ये उनका आत्मविश्वास भी था और उनका अपना बनाया अनुशासन भी.
सुनंदा बताती हैं कि, पांच वर्ष की उम्र में पक्के सुरों की पहचान, 9 वर्ष की उम्र में मंच पर प्रस्तुति और 15 वर्ष की उम्र में विवाह, यह सब सामान्य नहीं था. क्योंकि गिरिजा देवी ने अपने पिता की सख्त हिदायत के बावजूद शास्त्रीय गायन को अपनाया और न केवल अपनाया, बल्कि दुनिया को दिखा दिया कि ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती जैसी उपशास्त्रीय गायकी भी शास्त्रीय संगीत जितनी ही समृद्ध और गहन होती है.

गुरु पंडित सरजू प्रसाद मिश्र एवं पंडित श्यामचरण मिश्र से संगीत की शिक्षा ग्रहण की और संगीत के साथ-साथ मराठी गिरिजा जी की गायकी में बनारस के ठेठ लोक भाव, रस, नज़ाकत और विशुद्धता का रंग है. आलाप, बंदिश, तान, बोलतान, गमक, मुरकी, स्पर्श, मींड, खटका, झूला, ठुमरी, चैती, कजरी, दादरा सबमें गिरिजा जी की पकड़ और गहराई थी. गिरिजा जी के गायन को सुनना अपने आप में एक विशेष अनुभव रहा.
ठुमरी में बसती थी बनारसी तहजीब
अनुशासन वाली इसी बात को विदुषी सुनंदा शर्मा भी अपने अनुभव से बताती हैं और तहजीब का नाम देती हैं. वह कहती हैं कि, उनकी ठुमरी गायकी में बनारस की तहजीब, अदा, नज़ाकत और अपनापन साफ झलकता है. "रस के भरे तोरे नैन", "नदिया बहै", "पिया के मिलन की आस", "गगन घन गरजत" जैसी ठुमरियों में उनकी आत्मा उतरती थी, जिससे श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे. अनुभव से सींची हुई उनकी आवाज़, जो अपने आप में एक गाथा थी.
वह कहती हैं कि अप्पा जी द्वारा गाई रचनाओं में ‘रस के भरे तोरे नैन’ एक अनूठी रचना थी, जिसे सुनकर ऐसा लगता था कि शब्दों के अर्थों से कहीं अधिक स्वर के भाव महत्वपूर्ण हैं. ‘नदिया बहै’ की ठुमरी में नदी की लहरों-सी तरलता थी, और ‘पिया के मिलन की आस’ में प्रतीक्षा और विरह की पीड़ा झलकती थी. वह जब आलाप लेतीं, तो लगता जैसे आत्मा सुर में बस गई हो. उनका गाया हर गीत, हर बंदिश उनके आत्मिक स्पर्श से पूरित होता था. गिरिजा देवी की गायकी में शब्दों का चयन, उनका उच्चारण, तानों का निर्वाह, मींड की शुद्धता और सम पर आने का सटीक अंदाज़ अद्वितीय था. उनके स्वर जैसे मंदिर की घंटी की तरह पवित्र और मन को शांत करने वाले थे.
सिर्फ ठुमरी ही नहीं अप्पा जी का परिचय
सुनंदा शर्मा के साथ यतींद्र मिश्र भी इस बात पर जोर देते हैं कि वह 'ठुमरी की रानी' नाम से मशहूर जरूर हैं और रहेंगी भी, लेकिन उनका सिर्फ इतना ही परिचय देना उनके संगीत विस्तार के साथ बेईमानी है. उन्होंने दादरा, कजरी, टप्पा, होरी, चैती, भजन के साथ ही रागदारी गायकी में भी अपनी खास शैली से मुकाम बनाया था. सुनंदा तो यह भी कहती हैं कि अप्पा जी का मानना था कि जब गायक मंच पर रचना प्रस्तुत करता है, तब वह रचना का एक नया रूप होता है. उन्होंने कभी सुर और लय को लेकर कोई समझौता नहीं किया. वह जब भी मंच पर आती थीं, दर्शक अभिभूत हो जाते थे. उनके गायन में नजाकत और ठहराव का ऐसा संगम होता था कि सुनने वाला समय के बंधन से मुक्त हो जाता था. एक बार उन्होंने राग "मल्हार" गाया और श्रोताओं की आंखों में आंसू आ गए.
उन्होंने दुर्लभ रागों जैसे जोगिया, बिहागड़ा, खमाज, देसी, दुर्गा, जौनपुरी, कामोद, बागेश्री, पूरिया धनाश्री, आदि को अपने गायन में नए रंग से रंगा. एक दिन अप्पा जी के नाम पर एक श्रोता मंच पर पहुंचा और बोला, “आपका गाना सुनकर मेरी मां की याद आ गई.” अप्पा जी जीवन भर इसे अपने लिए सबसे बड़ा पुरस्कार मानती रहीं. उनका गायन भारतीय शास्त्रीय संगीत की थाती है, जिसे हर युग में सुना और समझा जाएगा.
गिरिजा देवी की गायकी में एक अनूठा जादू था. उनकी आवाज में प्रेम, विरह, भक्ति और प्रकृति की हर भावना जीवंत हो उठती थी. वे कहती थीं कि ठुमरी केवल गायन नहीं, बल्कि भावनाओं का सागर है. उनकी प्रस्तुतियां श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर देती थीं. उनकी कजरी और चैती में बनारस की गलियों और गंगा के घाटों की खुशबू थी, जो सुनने वालों को एक आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाती थी.
बनारस घराने की विरासत हैं 'अप्पा जी'
उनके जीवन से प्रेरणा लेकर आज भी कई युवा कलाकार ठुमरी और उप-शास्त्रीय संगीत को जीवित रख रहे हैं. उनकी जीवनीकार यतींद्र मिश्र ने अपनी पुस्तक "गिरिजा: ए जर्नी थ्रू ठुमरी" में लिखा है कि गिरिजा देवी भारतीय शास्त्रीय संगीत का वह अध्याय हैं, जिन्होंने ठुमरी को एक नया अर्थ और सम्मान दिया. गिरिजा देवी का जीवन संगीत, साधना और सामाजिक बाधाओं के खिलाफ संघर्ष की एक प्रेरणादायक गाथा है. उन्होंने न केवल ठुमरी को विश्व मंच पर स्थापित किया, बल्कि अपनी विनम्रता, समर्पण और कला के प्रति प्रेम से लाखों लोगों के दिलों में जगह बनाई. उनकी आवाज आज भी संगीत प्रेमियों के बीच गूंजती है, और उनकी विरासत बनारस घराने की शान को हमेशा जीवित रखेगी.