बांग्लादेश की राजधानी ढाका के पुराने हिस्से में मौजूद ढाकेश्वरी देवी का मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि यह इतिहास, आस्था और सांस्कृतिक परंपरा का जीता-जागता प्रमाण है. यही वही मंदिर है, जिसने बांग्लादेश की राजधानी को उसका नाम और पहचान दी है. आज बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर लगातार हमले हो रहे हैं. नई पहचान गढ़ने की कवायद में संस्कृति और परंपरा को तोड़कर उनके नामो-निशां मिटाने की कोशिश की जा रही है. बावजूद इसके देश का राजधानी 'ढाका' का नाम अपने आप में ये याद दिलाने के लिए काफी रहेगा, उसकी सांस्कृतिक जड़ें कहां से निकली और कहां तक फैली हुई हैं.
देवी दुर्गा का ही स्वरूप हैं ढाकेश्वरी मां
ढाका में मौजूद ढाकेश्वरी मंदिर का नाम देवी दुर्गा के एक स्वरूप पर आधारित है. ‘ढाकेश्वरी’ का अर्थ है, ढाका की देवी. इसी देवी के नाम पर ढाका शहर का नाम पड़ा. सदियों से यह मंदिर बंगाल क्षेत्र में शक्ति उपासना का एक प्रमुख केंद्र रहा है. ढाकेश्वरी मंदिर को 'शाक्त पीठ' माना जाता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह किया था, तब भगवान शिव उनके पार्थिव शरीर को लेकर इधर-उधर भटकने लगे. तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े किए, जो अलग-अलग स्थानों पर गिरे. इन स्थानों को शक्ति पीठ कहा गया.
माता सती की कथा से जुड़ी मान्यता
मान्यता है कि 'माता सती के मुकुट का रत्न' ढाकेश्वरी स्थान पर गिरा था. इस विश्वास ने ढाकेश्वरी मंदिर को शाक्त परंपरा का पवित्र स्थान बना दिया. यही कारण है कि यह मंदिर केवल बांग्लादेश ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में श्रद्धा के साथ देखा जाता है. इतिहासकारों के अनुसार, ढाकेश्वरी मंदिर का निर्माण '12वीं शताब्दी', यानी लगभग '1100 ईस्वी' के आसपास हुआ था. इसका श्रेय सेन वंश के राजा बल्लाल सेन को दिया जाता है. बल्लाल सेन को एक धार्मिक और कला-संरक्षक राजा माना जाता है, जिन्होंने बंगाल में कई मंदिरों का निर्माण कराया.
कहा जाता है कि ढाकेश्वरी देवी की उपासना की प्रसिद्धी इतनी दूर-दूर तक थी कि धीरे-धीरे उनके नाम से ही क्षेत्र की पहचान बनने लगी और आगे चलकर यही स्थान 'ढाका' कहलाया. हालांकि मंदिर की वर्तमान संरचना उस काल की नहीं है, क्योंकि समय-समय पर इसमें कई बार तोड़फोड़, पुनर्निर्माण और मरम्मत होती रही है.

कई बार हुए हमले, फिर भी जिंदा है बंगाली विरासत
ढाकेश्वरी मंदिर की मौजूदा वास्तुकला को किसी एक कालखंड से जोड़कर देखना मुश्किल है. इसका कारण है, लगातार हुए हमले, प्राकृतिक क्षति और राजनीतिक उथल-पुथल. मंदिर परिसर में कई बार बदलाव किए गए, नई संरचनाएं जोड़ी गईं और पुराने हिस्सों को फिर से बनाया गया. फिर भी, मंदिर आज भी ढाका की सांस्कृतिक विरासत का एक अहम हिस्सा है. यहां बंगाली स्थापत्य, धार्मिक प्रतीक और स्थानीय परंपराओं का सुंदर मिश्रण दिखाई देता है.
भारत का विभाजन और ढाकेश्वरी मंदिर
ढाकेश्वरी मंदिर के इतिहास का सबसे पीड़ादायक अध्याय '1947 का भारत विभाजन' है. जब बंगाल का बंटवारा हुआ, तब पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना और बड़ी संख्या में हिंदू वहां से पलायन करने लगे. इसी दौरान, बढ़ते हमलों और असुरक्षा के माहौल को देखते हुए मंदिर के तत्कालीन मुख्य पुजारी ने 900 साल पुराने मूल विग्रह को ढाका से निकालकर भारत ले जाने का निर्णय लिया. यह विग्रह अंततः कोलकाता के कुम्हारटुली (कुम्हारटोली) इलाके में स्थापित किया गया. यह वही इलाका है, जहां आज भी दुर्गा प्रतिमाओं का निर्माण बड़े पैमाने पर होता है. ढाकेश्वरी देवी की यह मूर्ति आज भी वहां पूजित है और विभाजन की स्मृति के रूप में देखी जाती है.
कुम्हारटुली में देवी की स्थापना
1950 में व्यवसायी देवेंद्रनाथ चौधरी ने कोलकाता के कुम्हारटुली क्षेत्र में देवी ढाकेश्वरी के लिए एक मंदिर का निर्माण कराया. देवी की सेवा-पूजा के लिए उन्होंने संपत्ति भी समर्पित की. यह प्रतिमा लगभग 'डेढ़ फीट ऊंची' है. देवी के 'दस हाथ' हैं और वे सिंह पर सवार 'कात्यायनी महिषासुरमर्दिनी दुर्गा' के रूप में प्रतिष्ठित हैं. देवी के दोनों ओर लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिकेय और गणेश विराजमान हैं.
1971 का युद्ध और ढाकेश्वरी का महत्व
1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम ढाकेश्वरी मंदिर के इतिहास में एक और निर्णायक मोड़ था. इसी युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना ने ढाका के 'रमना काली मंदिर' को पूरी तरह नष्ट कर दिया.
रमना काली मंदिर के विध्वंस के बाद ढाकेश्वरी मंदिर बांग्लादेश में हिंदुओं का 'सबसे प्रमुख धार्मिक स्थल' बन गया. इसके बाद इसे देश का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर भी माना जाने लगा. युद्ध और हिंसा के दौर में ढाकेश्वरी मंदिर ने बांग्लादेश के हिंदू समुदाय के लिए एक सांत्वना और पहचान का काम किया.

क्या है मंदिर निर्माण की कथा
माना जाता है कि राजा विजय सेन की रानी स्नान के लिए लांगलबंध गई थीं. इस दौरान वह गर्भवती थीं. स्नान के बाद ही उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया. यही बल्लाल सेन थे. बाद में जब बल्लाल सेन राजा बने, तो उन्होंने अपने जन्मस्थान की महिमा बढ़ाने के लिए इस मंदिर का निर्माण कराया. लोककथाओं के अनुसार, एक बार बल्लाल सेन ने स्वप्न में देखा कि एक देवी घने जंगल में छिपी हुई हैं. इसके बाद उन्होंने उस स्थान की खोज करवाई और जंगल से देवी की प्रतिमा को बाहर निकलवाया. उसी स्थान पर देवी के सम्मान में एक मंदिर का निर्माण कराया गया, जिसे ढाकेश्वरी नाम दिया गया.
इन कथाओं के अनुसार, हिंदू समाज ढाकेश्वरी देवी को 'ढाका की अधिष्ठात्री देवी' मानता है. उन्हें आदि शक्ति दुर्गा का ही एक स्वरूप या अवतार माना जाता है.
ढाकेश्वरी, या ढाका की देवी ढाक के पेड़ों की अधिकता के कारण भी आया है. बंगाल के जंगली इलाकों में ढाक के पेड़ बहुतायत में मिलते थे. प्राचीन मान्यता के अनुसार जिस जंगल से देवी की प्रतिमा मिली थी, वहां भी ढाक के पेड़ थे. इस तरह यह स्थान ढाक की देवी से होते हुए ढाका हो गया.
ढाकेश्वरी मंदिर को मिला राष्ट्रीय दर्जा
साल 1996 में ढाकेश्वरी मंदिर का नाम बदलकर ‘ढाकेश्वरी राष्ट्रीय मंदिर रखा गया था. इस मान्यता के बाद मंदिर परिसर के मुख्य द्वार के बाहर हर सुबह बांग्लादेश का राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाने लगा. यह ध्वजारोहण राष्ट्रीय ध्वज संहिता के नियमों के अनुसार होता था और राष्ट्रीय शोक के घोषित दिनों में मंदिर परिसर में ध्वज को आधे झुके हुए (हाफ-मास्ट) रूप में फहराया जाता रहा.
इस तरह ढाकेश्वरी मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं है. यह विभाजन, पलायन, संघर्ष और अस्तित्व की लड़ाई की कहानी भी कहता है. यह बताता है कि कैसे एक धार्मिक स्थल समय के साथ एक पूरे समुदाय की पहचान बन जाता है. आज जब बांग्लादेश में उथल-पुथल की स्थितियां हैं और देश में अराजकता ही अराजकता है ऐसे में ढाकेश्वरी मंदिर का इतिहास उम्मीद दिलाता है कि आस्था की गहरी जड़ों से एक बार फिर बदलाव की शाखा की पनपेगी.