अरावली संकट की जद में देश के महज 4 राज्य नहीं, ह‍िमालय पर भी मंडराएगा बड़ा खतरा

देश में अरावली पर्वतमाला को लेकर काफी बहस छ‍िड़ी हुई है. भारत की इस सबसे पुरानी पर्वतमाला को लेकर #Savearavali मूवमेंट भी शुरू क‍िया जा चुका है. लेक‍िन पर्यावरणव‍िदों की इसे लेकर जताई जा रही फ‍िक्र क‍ितनी गंभीर है, क्या वाकई अरावली संकट के साथ कुछ बड़े खतरे भी जुड़े हुए हैं, ज‍िनके बारे में हम सबको आगाह होना जरूरी है? ये सब जानने के लि‍ए aajtak.in ने बात की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) नई दिल्ली के 'स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट साइंसेस' के प्रोफेसर डॉ सुदेश यादव और IIT के अर्थ साइंस ड‍िपार्टमेंट के प्रोफेसर डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव से.

Advertisement
भारत की सबसे पुरानी अरावली पर्वतमाला किस तरह से नए हिमालय को प्रभावित करता है.. (Graphics: ITG) भारत की सबसे पुरानी अरावली पर्वतमाला किस तरह से नए हिमालय को प्रभावित करता है.. (Graphics: ITG)

अपर्णा रांगड़

  • नई दिल्ली,
  • 24 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 9:18 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2025 में अरावली पहाड़ियों की एक समान परिभाषा को मंजूरी दी है. ज‍िसके मुताब‍िक, आसपास की जमीन से 100 मीटर या उससे ज्यादा ऊंची कोई भी भू-आकृति ही अरावली पहाड़ी मानी जाएगी. ऐसी दो या दो से ज्यादा पहाड़ियां अगर एक-दूसरे से 500 मीटर के दायरे में हैं तो वे अरावली रेंज कहलाएंगी. यह परिभाषा केंद्र सरकार की समिति की सिफारिश पर आधारित है, लेकिन इसे लेकर विवाद खड़ा हो गया है. 

Advertisement

पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे अरावली का 90% से ज्यादा हिस्सा संरक्षण से बाहर हो सकता है, जबकि सरकार इसे पुरानी व्यवस्था का विस्तार बता रही है. इससे थार रेगिस्तान का फैलाव, भूजल स्तर गिरना और दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण बढ़ने का खतरा है. अरावली भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला है, जो थार को रोकती है. उत्तर भारत की जलवायु को संतुलित रखती है. 

यह भी पढ़ें: 29 जिले, 5 करोड़ लोग, 20 अभयारण्यों की लाइफलाइन... अरावली न होती तो क्या होता?

सुप्रीम कोर्ट के आए इस ताजा फैसले से #SaveAravalli अभियान तेज हो गया है. लेकिन अरावली के संरक्षण पर खतरे की आशंका के साथ ही इसका असर सिर्फ राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-NCR तक ही सीम‍ित नहीं होगा. बल्कि, ह‍िमालयन रेंज और पहाड़ी राज्य उत्तराखंड को लेकर भी अब कई तरह की चिंताएं और संभाव‍ित खतरों को लेकर आशंकाएं जताई जा रही हैं. जैसे- 

Advertisement
  • अगर अरावली नहीं रहेगी तो क्या हिमालय पर धूल जम जाएगी?
  • अगर अरावली पर संकट गहराता है तो क्या ये उत्तराखंड में मॉनसून को प्रभावित करेगा?

अगर अरावली पर संकट आता है तो ये हिमालय को कैसे प्रभावित कर सकता है?

सवाल के जवाब में प्रोफेसर डॉ सुदेश यादव कहते हैं कि अगर भविष्य में अरावली की पहाड़ियों पर माइनिंग बढ़ती है तो इसके नतीजे स्वरूप धूल के कणों में अच्छी खासी वृद्धि देखने को मिल सकती है. प्रोफेसर यादव ने इसके पीछे की वजहों को एक-एक कर समझाने की कोशिश की. 

1. रेगिस्तानी धूल (Desert Dust/Sandstorm) के मूवमेंट में अरावली की भूमिका क्यों अहम है? 

अरावली पर्वतमाला थार रेगिस्तान और इंडो-गंगेटिक–हिमालयी क्षेत्र के बीच एक प्राकृतिक भू-आकृतिक अवरोध (Dust Barrier) के रूप में काम करती है. इसकी चट्टानी संरचना और ऊंचाई तथा इसपर उगे हुए जंगल हवा की गति को कम करते हैं जिसके कारण हवा में मौजूद कण इंडो-गंगेटिक प्लेन क्षेत्र में गिर जाते हैं और हिमालय क्षेत्र में बहुत कम मात्रा में पहुंचते हैं.

यदि खनन, वनों की कटाई और लैंड-यूज में बदलाव के कारण अरावली पर संकट आएगा तो क्या होगा? इसके जवाब में प्रोफेसर यादव बताते हैं क‍ि रेगिस्तान फैलेगा और पूर्व की ओर बढ़ेगा. इसके साथ ही हवा द्वारा मिट्टी का कटाव बढ़ेगा. जिससे धूल ज्यादा पैदा होगी. और इसके चलते उत्तर भारत और हिमालय तक धूल का प्रवाह तेज होगा. 
गौरतलब है यह कोई काल्पनिक आशंका नहीं है— मध्य एशिया से तिब्बती पठार और हिमालय तक धूल पहुंचने की प्रक्रियाएं पहले से साइंटिफिक स्टडीज में दर्ज हैं.

Advertisement

2. हिमालय पर्वत श्रृंखला तक धूल पहुंचने की प्रक्रिया क्या है? 

गर्मी के सीजन में साउथ-साउथ वेस्ट तेज हवाएं रेगिस्तानी क्षेत्र से छोटे कणों को उठाती हैं और उत्तरी भारत में पहुंचते-पहुंचते इन हवाओं कि गति और कणों को ट्रांसपोर्ट करने की क्षमता कम हो जाती है लेकिन छोटे कण जैसे- (PM1, PM 2.5) हिमालय क्षेत्र तक पहुंच जाते हैं. ये हवाएं केवल रेगिस्तानी जनित कणों को ही नहीं उठाती बल्कि उत्तरी भारत के इंडस्ट्रियल और व्हीक्युलर एमिशन को भी साथ ले जाती है. 

बता दें क‍ि सैटेलाइट पहले ही दिखा चुके हैं कि प्री-मॉनसून महीनों में थार रेगिस्तान की धूल के साथ-साथ मानवजनित प्रदूषक (Anthropogenic emitted pollutants) भी मध्य हिमालय तक पहुंचते हैं.

यह भी पढ़ें: अरावली: आज के भारत से भी पुराना इतिहास, अब वजूद पर संकट

3. ग्लेशियरों पर धूल का जमाव

जब बर्फ और ग्लेशियर की स्तह पर धूल जमती है तो धूल की रसायनिक संरचना के अनुसार बर्फ और ग्लेशियरों के पिघलने पर प्रभाव डालती है. इसमें ब्लैक कार्बन की अहम भूमिका हो जाती है क्योंकि ये सूरज की रोशनी सोखती है और जिसके चलते ग्लेशियरी क्षेत्रों का तापमान बढ़ जाता है. जिसके परिणाम स्वरूप उनके पिघलने की गति बढ़ जाती है. 

उदाहरण के तौर पर- सिर्फ 2–5% अल्बीडो (किसी स्तह द्वारा सूरज की किरणों को वापस भेजने या रिफ्लेक्ट करनी की क्षमता) की कमी भी ग्लेशियरों के पिघलने की दर को कई गुना बढ़ा सकती है. 

Advertisement

5. बर्फबारी में कमी और वर्षा स्वरूप में बदलाव

इन धूल कणों के जमने के कारण तापमान में एबनॉर्मल परिवर्तन आने से बर्फ बनने की प्रक्रिया, बारिश कहां हुई, कब हुई, कितना होने जैसे फैक्टरे को सीधा प्रभावित करती है. जिसका ग्लेशियरों के अस्तित्व पर असर पड़ता है.

अरावली पर संकट से हिमालयी राज्य उत्तराखंड को लेकर भी चिंताए पैदा हो रही है. पहले से ही प्राकृतिक आपदाओं की मार झलने वाले इस पहाड़ी राज्य को लेकर अब चर्चाएं हैं कि अरावली संकट उत्तराखंड में मॉनसून या बारिश को प्रभावित कर सकता है. 

क्या अरावली रेंज सच में उत्तराखंड में बारिश और मॉनसून को प्रभावित करती है?

इसके जवाब में प्रोफेसर डॉ प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि दरअसल, अरावली पर्वतमाला का उत्तराखंड में होने वाली वर्षा पर कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता. उत्तराखंड की बारिश मुख्य रूप से हिमालयी भू-आकृति और मॉनसून तंत्र द्वारा कंट्रोल होती है, न कि अरावली पर्वतमाला द्वारा. तो ऐसे में सवाल ये कि- अरावली पर्वतमाला उत्तराखंड की वर्षा को क्यों प्रभावित नहीं करती?

दरअसल इसके कई भौगोलिक और साइंटिफक कारण हैं:

1. भौगोलिक दूरी और स्थिति

पहला कारण- दरअसल अरावली पर्वतमाला गुजरात-राजस्थान–हरियाणा–दिल्ली क्षेत्र में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में फैली हुई है. जबक‍ि उत्तराखंड राज्य अरावली पर्वतमाला से काफी पूर्व और उत्तर दिशा में स्थित है. हिमालय की तलहटी में बसे उत्तराखंड और अरावली, दोनों के बीच गंगा के मैदान मौजूद हैं, जो किसी भी प्रत्यक्ष मौसमीय प्रभाव को तोड़ देता है.

Advertisement

दूसरा कारण- उत्तराखंड तक नमी लाने वाली मॉनसूनी प्रणालियां मुख्यतः बंगाल की खाड़ी से आती हैं, न कि अरब सागर से उठने वाले मॉनसून से, जो भारत के पश्चिमी तट (केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र) पर भारी बारिश करता है. फिर मध्य भारत (गुजरात, मध्य प्रदेश) और नर्मदा-तापी घाटियों से होते हुए गंगा के मैदानों में उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब तक पहुंचता है. 

2. अरावली की कम ऊंचाई और घिसी हुई संरचना

अरावली विश्व की सबसे प्राचीन और अत्यधिक क्षरित (घिसी हुई) पर्वतमालाओं में से एक है. इसकी ज्यादातर चोटियां 90 मीटर से कम ऊंचाई की हैं. यह पर्वतमाला खंडित और असमान है, जिससे यह प्रभावी रूप से नमी युक्त हवाओं को ऊपर उठाने में असमर्थ रहती है. इस कारण उत्तराखंड के लिए अरावली मॉनसूनी हवाओं के लिए कोई ठोस अवरोध (orographic barrier) नहीं बन पाती. जिसकी वजह से उत्तराखंड में बारिश पर इसका सीधा असर नहीं पड़ता.  

यह भी पढ़ें: अरावली पहाड़ियों की परिभाषा... 100 मीटर ऊंचाई का फॉर्मूला कहां से आया और क्यों विवादास्पद है

3. उत्तराखंड में हिमालय की निर्णायक भूमिका

दरअसल उत्तराखंड में बारिश मुख्य रूप से नीचे दिए गए कारणों से होती है...

  • बंगाल की खाड़ी से आने वाली दक्षिण-पश्चिम मॉनसूनी हवाएं.
  • हिमालय की दक्षिणी ढलानों पर तीव्र ओरोग्राफिक उत्थान यानी नीचे की तरफ से चलने वाली हवा या फिर नीचे वाली मॉनसूनी हवाएं ऊपर चली रही हवा को फोर्स करती है. जिससे वह ऊपर चोटियों के पास ठंडी हो जाती हैं. इससे बारिश होती है. 
  • पश्चिमी विक्षोभ (Western Disturbances), जो सर्दियों में बारिश और बर्फबारी लाते हैं.

हिमालय एक ऊंची, सतत और शक्तिशाली पर्वत प्रणाली है, जो सीधे नमी को रोककर भारी बारिश कराती है—यह भूमिका अरावली निभाने में सक्षम नहीं है. तमाम कारणों से एक्सपर्ट अरावली का मोटे तौर पर तो उत्तराखंड में मॉनसून प्रणाली पर असर पड़ता नहीं देखते हैं पर 'धरती का मुकुट' और 'भारत की रीढ़' कहे जाने वाले हिमालय पर भविष्य में इसका असर देखने को मिल सकता है.

Advertisement

पर्यावरण और विकास को कैसे साथ में लेकर चला जा सकता है इस पर प्रोफेसर यादव का कहना है कि अभी सरकार के जो पहले से बने नियम और पॉलिसी हैं उनका जमीनी तौर पर सही तरीके से पालन करवाने से काफी हद तक चीजें आसान हो सकती हैं.

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement