इजरायल-गाजा युद्ध भारत में कैसे बन रहा है बड़ा राजनीतिक मुद्दा

भारत से कई हजार किलोमीटिर दूर इजरायल पर हमास आतंकवादियों का हमला हुआ है . पर भारत भी इससे अछूता नहीं है. यहां भी एक युद्ध चल रहा है सोशल मीडिया पर. भारत में इस हमले के विरोध और समर्थन से राजनीतिक ध्रुवीकरण शुरू हो गया है.

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नरेंद्र मोदी के साथ बेंजामिन नेतन्याहू और इंदिरा गांधी फलस्तीन नेता यासिर अराफात के साथ नरेंद्र मोदी के साथ बेंजामिन नेतन्याहू और इंदिरा गांधी फलस्तीन नेता यासिर अराफात के साथ

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 09 अक्टूबर 2023,
  • अपडेटेड 1:49 PM IST

इजरायल और फलस्तीन के संबंधों का साया भारतीय राजनीति पर बहुत पहले से रहा है.भारत पर राज करने वाली पार्टियां इसे अपने वोट बैंक के हिसाब से डिफाइन करती रही हैं.आजादी के बाद से ही भारत ने कभी इजरायल को महत्व नहीं दिया. इसका कारण था फलस्तीन. दुनिया के सारे इस्लामी मुल्क फलस्तीन के अधिकारों के लिए इजरायल को मान्यता नहीं देते थे इसलिए भारत की कांग्रेस पार्टी को यही सूट करता था कि वो इजरायल से दूर रहे. बाद में 1991 में नरसिंह राव की सरकार में इजरायल में भारत का वाणिज्यिक दूतावास खोला.

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2014 में  नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद भारत और इजरायल के संबंधों को नया आयाम मिला. बीजेपी ने इसे अपने वोटबैंक के हिसाब से आगे बढ़ाया. जबकि, विदेश नीति अब भी 'two state' समाधान पर कायम है.  इजरायल में हमास के ताजा आतंकी हमले से भारत में बहस और ज्‍यादा स्‍पष्‍ट हो गई है. सोशल मीडिया पर दक्षिपंथी और लिबरल्स की बातों से लगता है कि किस तरह इजरायल-फलस्तीन के संघर्ष को वोटों का ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

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भारत में साठ और सत्तर के दशक में पैदा होने वाली पीढ़ी को अमेरिका- ब्रिटेन और चीन के नेताओं के नम और शक्ल याद नहीं होंगे पर फलस्तीन के नेता यारिस अराफात का नाम जरूर याद होगा. भारत में जब ये आते थे तब इनका स्वागत दुनिया के बड़े नेताओं की तरह होता था. जबकि फलस्तीन को मान्यता भी दुनिया के बहुत से देशों ने नहीं दिया था. इंदिरा गांधी हों या राजीव गांधी सबके साथ इनकी कई तस्वीरें गूगल पर दुनिया के किसी अन्य राष्ट्राध्यक्ष से अधिक मिलेंगी जो आपको इनके महत्वपूर्ण होने का अहसास कराएंगी. दरअसल कांग्रेस का कोर वोटर देश का मुसलमान हुआ करता था. इसलिए भारत ने हमेशा से इजरायल की जगह फलस्तीन को तरजीह दी.

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पर 2014 के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद इस स्थित में बदलाव हुआ. देश में पहली बार 2015 में इजरायल के रक्षा मंत्री की यात्रा हुई. 2017 में भारत से पहली बार कोई प्रधानमंत्री ने इजरायल की यात्रा की. हालांकि 2018 में पीएम मोदी ने फलस्तीन की यात्रा की थी. इजरायल इस समय भारत का महत्वपूर्ण व्यापारिक साझीदार तो है ही रणनीतिक साझीदार भी है. रूस के बाद सबसे अधित रक्षा सामग्री का आयात इजरायल से ही हो रहा है.

संबंधों के तरजीह देने का कारण ही है कि 7 अक्टूबर को इजरायल पर हमला होते ही भारत के प्रधानमंत्री का ट्वीट इजरायल के समर्थन में आ जाता है . जबकि कांग्रेस पार्टी की ओर से ट्वीट दूसरे दिन 8 अक्टूबर को आता है. जयराम रमेश की ओर से आए ट्वीट में बहुत समझदारी से बैलेंस अप्रोच रखा गया है. दरअसल पार्टी में एक तबका ऐसा है जो कहीं से भी ये संदेश नहीं देना चाहता कि कांग्रेस राष्ट्रवादी पार्टी नहीं है. इंडिया एलायंस की ओर से तो अभी तक ऐसा कोई बयान नहीं आया है जिससे इस मुद्दे पर गठबंधन का रुख क्लीयर कर सके.

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हमास के आतंकियों की करतूतें जिसमें एक जर्मन नागरिक शानी लौक के नग्न शव की परेड निकालना भी शामिल है. भारत में बहुत से लोग इन करतूतों के समर्थन में उतर आए हैं . लिबरल्स जहां इसे स्वभाविक प्रतिक्रिया बता रहे हैं वहीं राष्ट्रवादी इस तरह एक आतंकवादी संगठन के समर्थन को देश का अपमान करार दे रहे हैं. बॉलीवुड अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने करीब एक दर्जन ट्वीट को रिपोस्ट किया है जो किसी न किसी तरह से हमास और फलस्तीन को सपोर्ट करता है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का छात्र रहे शरजील उस्मानी ने फलस्तीन के समर्थन को लेकर एक्स पर पोस्ट किया है. शरजील का कहना है कि भारत के दक्षिणपंथी लोग इजरायल का समर्थन कर रहे हैं. इसलिए वह मुस्लिम होने के नाते फलस्तीन का समर्थन करेंगे, भले ही हमास जैसे आतंकी संगठन महिलाओं को नंगा क्यों ना घुमाएं. खुद को पत्रकार बताने वाले अली सोहराब ने एक्स पर कई ऐसे पोस्ट लिखे हैं जो हमास के कृत्यों को सही ठहराते हैं. खुद को राजस्थान कांग्रेस का पदाधिकारी बताने वाले एक हैंडल ने भी हमास के लड़ाकों का सपोर्ट किया है.

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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में फलस्तीन और हमास के समर्थन में नारे देती हुई भीड़ पर भी आरोप -प्रत्यारोप हो रहे हैं. हमास के करतूतों को एक मुस्लिम पत्रकार सदफ आफरीन ने भारत की आजादी की लड़ाई से तुलना की है. दरअसल ये सारी कवायद अपने अपने पक्ष में समर्थकों का हुजूम खड़ा करना है. भारत में अगले महीने कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और अगले साल लोकसभा के भी चुनाव हैं. भारत में इजरायल और अरब देशों में रुचि को देखते हुए ऐसा लगता है कि इजरायल का मुद्दा ठंडा भले पड़ जाए पर भारत में आगामी चुनावों तक यह मुद्दा जिंदा रहेगा.

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