संघ के 100 साल: हैदराबाद के निजाम की वजह से RSS को मिला गुरु गोलवलकर जैसा नेतृत्व?

हैदराबाद का निजाम जब अपने अमले के साथ मद्रास एक्वेरियम देखने के लिए पहुंचा तो मुख्य द्वार पर ड्यूटी माधव की थी. उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन करने हुए टिकट की मांग की, लेकिन ये बात निजाम को अखर गई. उन्होंने अपना परिचय दिया, लेकिन माधव अड़े रहे. फिर क्या हुआ? RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है वही कहानी.

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युवा गोलवलकर ने जब हैदराबाद के निजाम को रोका तो इसकी चर्चा अखबारों में भी हुई. (Photo: AI generated) युवा गोलवलकर ने जब हैदराबाद के निजाम को रोका तो इसकी चर्चा अखबारों में भी हुई. (Photo: AI generated)

विष्णु शर्मा

  • नई दिल्ली,
  • 22 अक्टूबर 2025,
  • अपडेटेड 2:00 PM IST

संघ के पुराने लोग अनौपचारिक बातचीत में अक्सर इस घटना का जिक्र करते हैं कि कैसे निजाम से जुड़ा प्रकरण गुरु गोलवलकर के जीवन में नहीं होता तो शायद संघ को उनके जैसा करिश्माई नेतृत्व नहीं मिलता. यूं ये भी खासा दिलचस्प है कि निजाम की सरकार के चलते ही तेलंगाना के एक गांव में रह रहा डॉ हेडगेवार का परिवार भी नागपुर चला आया था. आज भी उनका गांव मुस्लिम बाहुल्य है. हालांकि डॉ हेडगेवार का कभी सीधे निजाम से वास्ता नहीं पड़ा, लेकिन गुरु गोलवलकर ने तो निजाम की प्रतिष्ठा में ऐसा बट्टा लगाया था कि भारत में ही नहीं विदेशी मीडिया ने भी गुरुजी की हिम्मत की चर्चा की थी, तब वो संघ से जुड़े हुए नहीं थे.

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दरअसल गुरु गोलवलकर यानी माधव के पिता भाऊजी उनको डॉक्टर बनाना चाहते थे. सो पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में साइंस विषय में दाखिला दिलवाया. लेकिन अचानक कॉलेज ने सर्कुलर निकाला कि केवल उसी प्रॉविंस के छात्र इस कॉलेज में पढ़ सकेंगे. उन्हें वो कॉलेज छोड़कर नागपुर के हिस्लॉप कॉलेज जाना पड़ा, नागपुर में अपने मामा मामी के यहां रहकर पढ़ाई करने लगे. अक्सर वो अपने प्रोफेसर की भी गलतियां बता दिया करते, जैसे बाइबिल का एक गलत संदर्भ देने पर प्रोफेसर गार्टनर को सही करवाया, उसी तरह जब जुलॉजी के प्रोफेसर ने कक्षा में सबको ये बताया कि पौधे की ये प्रजाति अब इस क्षेत्र में नहीं मिलती तो उस वक्त तो माधव शांत रहे, लेकिन अगले दिन वो उस पौधे के साथ कक्षा में आए थे.

सबको बताया कि ये पौधा शहर के पुराने पुल के नीचे मिला था. 1924 में उस कॉलेज से इंटरमीडिएट (साइंस) से करने के बाद माधव बीएससी करने बीएचयू चले गए. माधव को ज्ञान की भूख थी और बनारस हिंदू यूनीवर्सिटी ज्ञान का सागर थी, वहां के पुस्तकालय में 1 लाख से अधिक किताबें थीं. माधव ने उसका भरपूर फायदा उठाया, वो साइंस तक सीमित नहीं रहे बल्कि बचपन से संस्कृत के ज्ञान को बढ़ाकर कई गुना कर लिया. इकोनोमिक्स, सोशियोलॉजी जैसे विषय भी पढ़ने लगे. साथ में तैराकी, योगासन, बांसुरी, सितार जैसी तमाम अलग अलग विधाओं में हाथ आजमाने लगे. रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का गहराई से अध्ययन तो किया ही, साथ में काशी में तभी खुले थिओसॉफी सेंटर भी जाने लगे. उनकी पहचान बन गया उनका ढीला ढाला सफेद कुर्ता पाजयामा.

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1926 में बीएससी करने के बाद भी वह काशी छोड़ने को तैयार नहीं थे, सो एमएससी में दाखिला ले लिया. उनकी एमएससी जब 1928 में पूरी हुई तो उन्हें पीएचडी के लिए शोध करने के लिए मद्रास (चेन्नई) के एक्वेरियम (मत्स्यालय) से जुड़ गए, ये सेंट्रल मेरीन फिशरी रिसर्च इंस्टीट्यूट का ही भाग था. उनका शोध विषय था "Morphology and Bionomics of Indian Marine Fishes" (भारतीय समुद्री मछलियों की आकृति विज्ञान और जीवन चक्र). ये भी दिलचस्प है कि पिता इलाज करने वाला डॉक्टर बनाना चाहते थे और माधव पीएचडी करके प्रोफेसर वाले डॉक्टर बनने जा रहे थे. हालांकि होनी को कुछ और मंजूर था. डॉक्टर तो नहीं बने डॉ हेडगेवार के उत्तराधिकारी जरूर बन गए.

यहां पढ़ें: RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी

उनके जीवन में मद्रास में रहते हुए ही निजाम की घुसपैठ की कहानी बडी दिलचस्प है. माधव जिस एक्वेरियम में कार्यरत थे, वह ब्रिटिश भारत सरकार का प्रमुख मत्स्य अनुसंधान केंद्र था, जहां सार्वजनिक दर्शन के लिए प्रवेश शुल्क अनिवार्य था (वयस्क के लिए 4 आने, बच्चों के लिए 2 आने). यह धनराशि स्टेशन के रखरखाव के लिए उपयोग होती थी.

गुरु गोलवलकर और डॉ हेडगेवार

मीर उस्मान अली खान (हैदराबाद रियासत का अंतिम निजाम, 1911-1948 तक शासक) ने 1928 के अंत या 1929 की शुरुआत में दक्षिण भारत भ्रमण के दौरान मद्रास के इस एक्वेरियम का दौरा करने की इच्छा जताई. निजाम अपने शाही सलाहकारों और सिपाहियों के साथ आया था – कुल 25-30 सदस्यीय दल था. निजाम और साथ का दल बिना पूर्व सूचना के एक्वेरियम पहुंचा. मुख्य द्वार पर माधव ही ड्यूटी पर थे, क्योंकि वे उस समय स्टेशन के सुपरवाइजर/गाइड के रूप में कार्यरत थे. माधव ने निजाम के दल से नियमानुसार प्रवेश शुल्क मांगा. निजाम के सलाहकारों ने कहा, "हम निजाम के साथ हैं, शुल्क क्यों?" माधव ने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में उत्तर दिया: "नियम सबके लिए समान है। निजाम हों या आम आदमी, शुल्क बिना प्रवेश नहीं."

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जब निजाम को युवा माधव ने रोका

निजाम ने भी शुल्क देने से इंकार कर दिया, माधव ने सबको मुख्य द्वार पर ही रोक लिया. निजाम का क्रोधित होना स्वाभाविक था, गुस्से में निजाम ने पूछा, "क्या तुम जानते हो मैं कौन हूँ?" माधव ने जो जवाब दिया, उससे निजाम तो हैरान रह ही गया, बाद में मीडिया के लिए भी ये बड़ी खबर बना. माधव ने शांति के साथ जवाब दिया, "मैं जानता हूँ आप निजाम हैं, लेकिन यहाँ नियम राजा हैं". निजाम को ये जवाब ज्यादा बेइज्जती का लगा कि ये व्यक्ति अनजाने में मुझे मना नहीं कर रहा है बल्कि निजाम की ताकत व हैसियत को जानते हुए भी मना कर रहा है. निजाम को लग गया कि यहां ज्यादा देर तक रुकना मतलब ज्यादा बेइज्जती. जो निजाम दुनियां भर की पत्रिकाओं में अपनी दौलत और रुतबे के लिए छपता था, उसके बारे में भारत में ही द हिंदू ने अगले दिन हैडिंग लगाई, “ The Man Who Stopped The Nizam”.

ये ऐसी घटना थी कि इसका काफी जिक्र हुआ, किसी भी अंग्रेजी अधिकारी ने सार्वजनिक तौर पर माधव के विषय में कुछ भी नकारात्मक नहीं कहा, लेकिन मीडिया ने तारीफ की कि कोई तो है. जो नियमों के पालन के लिए इतना गंभीर है. इस घटना को लेकर तमाम दावे किए जाते रहे हैं कि निजाम ने कुछ अंग्रेज अधिकारियों से शिकायत की और उन अंग्रेज अधिकारियों ने माधव सदाशिव गोलवलकर का शोध खत्म करवा दिया. हालांकि माधव ने एक लाइन का पत्र सेंट्रल मेरीन फिशरी रिसर्च इंस्टीट्यूट को लिखा कि “आर्थिक कारणों से शोध पूरा न कर सका... क्षमा”. 

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साइंटिस्ट बनते बनते रह गए गोलवलकर

हालांकि ये बात सही है कि इस घटना के कुछ समय बाद ही उनके पिता सदाशिव यानी भाऊजी का रिटायरमेंट होना था, जो हुआ भी. ऐसे में उन्हें केवल 50 रुपए पेंशन मिलनी थी. माधव को भी तकरीबन शोध के इतने ही पैसे मिल रहे थे, लेकिन उनका वहां रहने का खर्च और शोध से जुडी गतिविधियों में ज्यादा पैसा खर्च हो रहा था. दूसरे काशी में इतना मन रमा था, यहां कोई हिंदी तक बोलने वाला नहीं था, अन्य दिक्कतें भी थीं. जिसके चलते उन्होंने अपना मन इस शोध को छोड़ने का बनाया हो सकता है. निजाम ने कुछ किया होता तो वो खुद भी बताते. ये भी हो सकता है कि निजाम ने इस तरह कोई खेल खेला हो कि किसी को, यहां तक कि माधव को भी कोई शक ना हो. क्योंकि निजाम अपने स्टाफ के आगे हुई इतनी बड़ी बेइज्जती को भूलने वाला तो नहीं लगता था. हालांकि इस घटना से माधव के सभी संगी साथियों में उनकी बहादुरी और ईमानदारी की चर्चा होने लगी थी.

सो इस तरह माधव साइंटिस्ट बनते बनते रह गए. होए सोए सो राम रचि राखा, अगर वो साइंटिस्ट बन जाते तो शायद डॉ हेडगेवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आगे ले जाने के लिए इतना बेहतर औऱ मजबूत उत्तराधिकारी मिलता ही नहीं. वैसे इस घटना का क्लाइमेक्स और भी दिलचस्प है, बाद में निजाम ने उस संस्थान को अपने सभी साथियों का पूरा शुल्क भिजवा दिया था, कि कहीं कल को कोई ये ना छापे कि चार आने के लिए निजाम ने इतना विवाद किया.

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