बिहार की सियासी जंग नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए और तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले इंडिया ब्लॉक के बीच सिमटती जा रही है. इसके बावजूद कई छोटे दल बड़ा कमाल करने की उम्मीद में उतरे हैं. एक समय बिहार की सियासत में निर्दलीय विधायकों का बोलबाला हुआ करता था, लेकिन समय के साथ जनता का आज़ाद उम्मीदवार से मोहभंग हुआ है.
एक समय बिहार में तीन दर्जन निर्दलीय विधायक हुआ करते थे, लेकिन 2020 के चुनाव में सिर्फ एक निर्दलीय विधायक को जीत मिली थी. इसे राजनीतिक दलों का बढ़ता प्रभुत्व कहें या फिर लोकतंत्र का बदला चेहरा, बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों को सियासी तवज्जो नहीं मिल रही.
साल 2000 में झारखंड बंटवारे के बाद हुए पिछले पाँच विधानसभा चुनावों के आँकड़ों पर गौर करें तो निर्दलीय उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की क्षमता में तेजी से गिरावट हुई है. निर्दलीय उम्मीदवारों का वोट शेयर भी लगभग आधा हो गया है. बिहार के सियासी इतिहास में निर्दलीय विधायकों के जीतने का सबसे खराब रिकॉर्ड 2020 के चुनाव में रहा है. ऐसे में देखना है कि 2025 में क्या नतीजे रहते हैं?
बिहार में निर्दलीय विधायकों का सुनहरा दौर
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आज़ादी के बाद पहली बार बिहार में 1951 में चुनाव हुए थे, जिसमें 14 निर्दलीय विधायक जीतकर आए थे. इसके बाद 1957 के चुनाव में 5 निर्दलीय ही जीत सके थे, 1962 में 12 निर्दलीय जीते और 1967 के चुनाव में 33 निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुँचे थे.
बिहार के इतिहास में सबसे ज़्यादा निर्दलीय विधायक 1967 के चुनाव में जीते थे. इसीलिए बिहार की सियासत में 1967 के चुनाव को निर्दलीय विधायकों का सुनहरा दौर माना जाता है. 1967 के विधानसभा चुनाव में पटना पश्चिम (वर्तमान बांकीपुर सीट) से चुनाव लड़ रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री के.बी. सहाय को निर्दलीय प्रत्याशी महामाया प्रसाद सिन्हा ने हरा दिया था.
इस चुनाव में किसी गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, सीपीआई, जन क्रांति दल और प्रजा सोशलिस्ट जैसी पार्टियों ने मिलकर सरकार बनाई थी. महामाया प्रसाद जनक्रांति दल में शामिल होकर खुद मुख्यमंत्री बन गए थे.
निर्दलीय विधायकों का गिरता ग्राफ
1967 के बाद निर्दलियों के जीतने का ग्राफ जो गिरना शुरू हुआ है तो फिर रुका ही नहीं है. बिहार के 1969 के चुनाव में 24 और 1972 में 17 निर्दलीय विधानसभा पहुँचे थे. आपातकाल के बाद निर्दलीय प्रत्याशियों की भागीदारी में एक बार फिर ज़बरदस्त उछाल दर्ज की गई.
आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में 24 और 1980 के चुनाव में 23 निर्दलीय जीते. वहीं, 1985 के विधानसभा चुनाव में 29 और 1990 में 30 निर्दलीय जीतकर विधायक बने. 1995 के विधानसभा चुनाव में 12 और साल 2000 में 20 निर्दलीय विधानसभा पहुंचने में सफल रहे थे.
निर्दलीय विधायकों का सबसे खराब दौर
फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में 17 निर्दलीय विधायक जीते थे, जिसमें चुनाव दर चुनाव कमी आती गई और उसके बाद अक्तूबर 2005 में दोबारा चुनाव हुए तो दस निर्दलीय विधायक जीतकर सदन पहुँचे. इस तरह छह महीने में सात निर्दलीय विधायक कम हो गए. पाँच साल बाद 2010 में चुनाव हुए तो छह विधायक निर्दलीय जीते. इनमें बलरामपुर से दुलाल चंद्र गोस्वामी, डेहरी से ज्योति रश्मि, ढाका से पवन कुमार जायसवाल, लौरिया से विनय बिहारी, ओबरा से सोमप्रकाश सिंह और सिकटा से दिलीप वर्मा शामिल रहे.
2015 के विधानसभा चुनाव में चार निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की थी. इनमें बोचहां से बेबी कुमारी, कांटी से अशोक कुमार चौधरी, मोकामा से अनंत सिंह और वाल्मीकिनगर से धीरेन्द्र प्रताप सिंह उर्फ रिंकू सिंह शामिल थे. वर्ष 2020 के पिछले चुनाव में महज़ एक निर्दलीय प्रत्याशी सुमित कुमार सिंह ही जीत दर्ज कर सके. उन्होंने भी महज़ 551 मतों से चकाई से निर्दलीय जीत दर्ज की थी. बाद में वह जदयू के पाले में चले गए और वर्तमान में मंत्री भी हैं.
जीत के बाद निर्दलीय दूसरे दल के हो जाते हैं
बिहार के चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों की अपनी पहचान रही है, उनका अपना गढ़ रहा है. निर्दलीय विधायकों के गढ़ को भेदने में बड़े-बड़े दिग्गज हार गए. बिहार के डुमरांव से ददन पहलवान, मोकामा से अनंत सिंह, मुज़फ़्फ़रपुर से विजेन्द्र चौधरी, बिस्फी से हरिभूषण ठाकुर, सोनबरसा से किशोर कुमार, रूपौली से बीमा भारती समेत ऐसे कई नाम रहे. बाद में इनमें से कई निर्दलीय राजनीतिक दलों में शामिल हो गए और फिर पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने लगे.
सियासी दलों को भी ऐसे उम्मीदवारों की तलाश होती है, जिनका अपना वोट बैंक हो. ऐसे में निर्दलीय जीतकर आए उम्मीदवार, उनकी पहली पसंद होते हैं. राजनीतिक दल ऐसे निर्दलीय उम्मीदवारों को अगली बार उसी सीट से अपना उम्मीदवार बना लेते हैं. इस तरह चुनाव दर चुनाव निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या घटने का यह भी एक बड़ा कारण है. 2020 में सिर्फ एक निर्दलीय विधायक जीते थे जबकि 1300 निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में उतरे थे. उनका वोट शेयर 8.8 फीसदी ही रहा है.
कुबूल अहमद