16 अक्टूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि उन्हें प्रधानमंत्री मोदी से यह आश्वासन मिला है कि भारत रूसी तेल खरीदना बंद कर देगा. लेकिन विदेश मंत्रालय ने ट्रंप के दावों को खारिज कर दिया है. मंत्रालय का कहना है कि उसे दोनों नेताओं के बीच हुई ऐसी किसी भी बातचीत की जानकारी नहीं है.
यह ट्रंप का कोई पहला अपुष्ट दावा नहीं है. न ही यह पहली बार है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने रूसी तेल की खरीद रोकने को लेकर भारत पर सार्वजनिक रूप से दबाव डाला है.
ट्रंप ने अगस्त में रूसी तेल की खरीद को लेकर सजा के रूप में भारत पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगा दिया था जिससे भारत पर कुल अमेरिकी टैरिफ बढ़कर 50 प्रतिशत हो गया है. ट्रंप का कहना था कि भारत भारी मात्रा में रूसी तेल खरीद रहा है, उसे रिफाइन करके भारी मुनाफे पर दूसरे देशों को बेच भी रहा है जिससे यूक्रेन में रूस की युद्ध मशीनरी को मदद मिल रही है.
भारत अपनी कुल तेल आपूर्ति का लगभग 35 प्रतिशत रूस से खरीदता है. विदेश मंत्रालय का कहना है कि रूसी तेल की खरीद का फैसला भारतीय उपभोक्ता के हितों की रक्षा के लिए उठाया गया कदम है.
ट्रंप 15 अगस्त को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ अलास्का में मिले थे. यूक्रेन युद्ध के समाधान के लिए हुई अलास्का बैठक विफल रही थी जिसके बाद से ट्रंप प्रशासन रूस को निशाना बनाने के लिए दो तरह की रणनीति पर काम कर रहा है. इसी के तहत रूस की विशाल तेल अर्थव्यवस्था एक बार फिर अमेरिका के निशाने पर है.
पहली रणनीति- अमेरिका ने यूक्रेन को टॉमहॉक क्रूज मिसाइल देने की तैयारी कर रहा है. इससे यूक्रेन को रूस को निशाना बनाने और रूस के तेल रिफाइनरी इंफ्रास्ट्रक्चर पर हमला करने में मदद मिलेगी.
दूसरी रणनीति- रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदारों, चीन और भारत पर टैरिफ बढ़ाना और फिर व्यापार वार्ताओं में फायदा उठाना.
15 अक्टूबर को 85 अमेरिकी सीनेटरों ने एक कानून का समर्थन किया जो ट्रंप को रूसी तेल खरीदने के लिए चीन पर 500 प्रतिशत टैरिफ लगाने का अधिकार देता है. उसी दिन यूके ने रूसी तेल की रिफाइनिंग को लेकर एक भारतीय रिफाइनरी पर प्रतिबंध लगा दिया.
तेल रूस की अर्थव्यवस्था का लगभग 20 प्रतिशत और उसके निर्यात राजस्व का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा है. रूस सऊदी अरब के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल निर्यातक है और प्रतिदिन लगभग 70 से 80 लाख बैरल तेल का निर्यात करता है.
ट्रंप रूसी तेल को निशाना बनाने के लिए पिछले बाइडेन प्रशासन की तरफ से उठाए गए कदमों से आगे बढ़ रहे हैं. 2022 में, अमेरिका के नेतृत्व वाले विकसित देशों के समूह जी7 ने रूसी तेल पर 60 डॉलर प्रति बैरल का प्राइस कैप लगा दिया था यानी रूस अपने तेल को इससे अधिक कीमत पर नहीं बेच सकता था.
पिछले बाइडेन प्रशासन ने विशेष रूप से भारत जैसे रणनीतिक सहयोगियों को निशाना नहीं बनाया, जो सस्ते रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार थे.
बाइडेन प्रशासन ने यूक्रेन को एफ-16 लड़ाकू जेट, पैट्रियट वायु रक्षा मिसाइलें और अब्राम्स टैंक जैसे उन्नत हथियार दिए, लेकिन टॉमहॉक जैसी आक्रामक लंबी दूरी की मिसाइल सिस्टम देने से मना कर दिया था.
लेकिन अब अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देश तथाकथित शैडो फ्लीट को भी निशाना बना रहे हैं जो कि 600 से अधिक पुराने बीमा रहित तेल टैंकरों का एक गुप्त बेड़ा है जिसका इस्तेमाल रूस प्रतिबंधों से बचने के लिए करता है. ये जहाज प्रतिदिन 70 लाख बैरल से अधिक तेल चीन और भारत को भेजते हैं.
यूरोपीय संघ रूसी तेल पर लगे प्राइस कैप को और कम करके 50 डॉलर प्रति बैरल करने पर विचार कर रहा है. अगर ऐसा होता है तो रूस को राजस्व में 30 से 40 प्रतिशत का झटका लगेगा- सालाना लगभग 25 से 30 अरब डॉलर का नुकसान. रूसी राजस्व पहले ही कम हो रहा है क्योंकि रूस विदेशी खरीदारों को रियायती दरों पर तेल बेचता है.
इस अगस्त में, यूक्रेन ने रूस की तेल रिफाइनरियों पर अपने लंबी दूरी के ड्रोन हमलों को तेज कर दिए. इन हमलों ने रूस के तेल उत्पादन, निर्यात राजस्व और सैन्य रसद में बाधा पहुंचाने के लिए रूस के ऊर्जा क्षेत्र में प्रमुख केंद्रों को निशाना बनाया है.
पश्चिम की इस रणनीति के खिलाफ रूस पूर्व के अपने सहयोगियों की तरफ रुख कर रहा है. रूस ने चीन को पावर ऑफ साइबेरिया-2 गैस पाइपलाइन पर सहमत होने के लिए राजी किया, जो यूरोप को नॉर्डस्ट्रीम पाइपलाइन के नुकसान की भरपाई करेगा. इससे दोनों का आर्थिक सहयोग भी मजबूत होगा.
रूस अपने रणनीतिक साझेदार भारत को अपने पाले में रखने के लिए हाइपरसोनिक मिसाइल, परमाणु-संचालित हमलावर पनडुब्बी और लड़ाकू जेट जैसे अत्याधुनिक हथियारों की एक लिस्ट तैयार कर रहा है.
ये सभी घटनाएं ऐसे वक्त में हो रही हैं जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप का सबसे लंबा युद्ध (रूस-यूक्रेन युद्ध) अब से ठीक चार महीने बाद अपने चौथे साल में प्रवेश कर रहा है. ऐसे में मोदी सरकार के पास अपनी ऊर्जा और सुरक्षा रणनीति पर बढ़ते अमेरिकी दबाव के लिए खुद को तैयार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.