सैकड़ों सालों तक विदेशी आक्रांताओं पहले मुस्लिम फिर अंग्रेजों के शासन में रहने के चलते ना केवल भारत की प्राचीन संस्थाओं को नुकसान हुआ था, बल्कि परम्पराओं और इतिहास के साथ भी काफी छेड़खानी हुई थी. भारतीय रोजी रोटी के लिए कभी फारसी सीखने के लिए विवश थे तो कभी अंग्रेजी. उन्हें उलझाकर विदेशी शासक उन्हें ये समझाने में लगे थे कि आपका उद्धार तो हमने ही किया, आप तो सांस्कृतिक, आर्थिक रूप से बहुत पिछड़े थे.
ऐसे में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गिनती के प्रचारकों को कई स्तर पर लड़ाई लड़नी पड़ रही थी, संगठन विस्तार से लेकर रोजमर्रा के दंगे, विभाजन की तरफ बढ़ते देश, कश्मीर-हैदराबाद समस्या, फिर गांधीजी हत्या के चलते प्रतिबंध, ऐसे में मानसिक गुलामी को दूर करने का भी अभियान प्रस्तावित था. उसी क्रम में संघ के कई चेहरे उठ खड़े हुए, जिन्होंने अपने कंधों पर बीड़ा लिया कि सनातन के इतिहास को सही ढ़ंग से लिखा जाए, नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को जलने के बाद मूल ग्रंथों को सहेजा जाए और दूसरी तरफ संघ के प्रति अफवाह फैलाने वालों का जवाब भी संघ के सही इतिहास से दिया जाए.
इसके लिए दो तरह के स्वयंसेवक आगे आए, एक वो जिन्होंने पुरातत्व को हथियार बनाया, जैसे भीमबेटका गुफाएं खोजने वाले हरिभाऊ वाकणकर, सरस्वती नदी को खोजने में जुटने वाले मोरोपंत पिंगले व दर्शनलाल जैन आदि और दूसरे वो जो प्राचीन गंथों को मूल रूप में सहेजने, शोध कार्य को बढ़ाने तथा संघ से जुड़ी घटनाओं को सहेजने में जुटे जैसे श्रीपाद सातवलेकर, हो. वे. शेषाद्रि, मोरोपंत पिंगले, रंगा हरि और सीपी भिषिकर जैसे स्वयंसेवक. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ को संकलित करने वाले, भारत विभाजन पर अमर ग्रंथ लिखने वाले हो. वे. शेषाद्रि उन्हें संघ साहित्य को सहेजने का अग्रदूत माना जाता है,
हो. वे. शेषाद्रि का पूरा नाम था होंगसन्द्र वेंकटरमैया शेषाद्रि. संघ की स्थापना के अगले वर्ष शेषाद्रि बंगलौर में जन्मे थे. 1943 में संघ से जुड़े, उसके कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के बावजूद शेषाद्रि जी ने 1946 में एमएससी कैमिस्ट्री से मैसूर विश्वविद्यालय का गोल्ड मेडल ले लिया था. ऐसे में उस दौर में वे एक शानदार करियर बना सकते थे, लेकिन उन्होंने अपना सर्वस्व संघ के नाम कर दिया. घर छोड़ दिया और संघ में पूर्णकालिक प्रचारक बन गए. एक दिन वो संघ के दूसरे सर्वोच्च स्थान पर पहुंचे और 13 साल तक (1987 से 2000 तक) संघ के सरकार्यवाह का दायित्व संभालते रहे. उसके बाद भी अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख रहे. हालांकि उससे पहले मंगलौर में दायित्व संभाला, फिर पूरा कर्नाटक संभाला और फिर 1986 तक पूरा दक्षिण भारत.
अपने विचारों को अलग अलग मुद्दों पर लेखों के जरिए जनता तक पहुंचाना उनका नियमित काम था. संघ से जुड़े तमाम पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख नियमित प्रकाशित होते थे और बहुत सारे लोगों को, स्वयंसेवकों को उनके लेख का इंतजार भी रहता था. मुद्दों पर उनकी पकड़, शोध, तथ्य और उनको पिरोने की उनकी शैली के सभी प्रशंसक थे. बंगलौर में उनकी प्रेरणा से संघ व सनातनी साहित्य के लिए यादवराव जोशी जी ने ‘राष्ट्रोत्थान परिषद’ स्थापित की. शेषाद्रि ने अपने जीवनकाल में 100 से भी अधिक छोटी बड़ी पुस्तकें भी लिखी थीं, लेकिन उनको जाना जाता है ‘बंच ऑफ थॉट्स’ के संकलन के लिए, जो काफी चर्चा व विवादों में रही है. हालांकि बाद में संघ ने उनमें से कुछ अंशों से खुद को अलग कर लिया था. लेकिन संघ के विरोधियों के लिए आज भी वो अंश हथियार का काम करते हैं. लेकिन संघ के इतिहास पर काम करने वाले बाहरी शोधकर्ता हों या अंदर के, उनके लिए ये संकलन संघ को समझने के लिए एक अमूल्य श्रोत माना जाता है.
उनकी दूसरी किताब जो चर्चा में रही है और अब भी रहती है, वो है ‘और देश बंट गया’. तमाम शोधकर्ता मांनते हैं कि विभाजन की विभीषिका को समझने के लिए इससे बेहतर ग्रंथ कोई हो ही नहीं सकता. तमाम देसी विदेशी श्रोतों से उन्होंने इतने संदर्भ व तथ्य इकट्ठा किए हैं कि लोग हैरान रह जाते हैं, उससे ज्यादा हैरान करती है उनकी तथ्यों को पिरोकर हृदय विदारक कहानियों को लिखने की शैली. ये किताब ना आती तो शायद कई पीढ़ियों को भारत विभाजन के पीछे का दर्द इतना समझ ही नहीं आता. शायद तभी केन्द्र सरकार ने 14 अगस्त को ‘भारत विभाजन विभीषिका दिवस’ के तौर पर मनाना शुरू किया होगा. उनकी एक पुस्तक ‘तोरबेरलू’ को कन्नड़ साहित्य अकादमी ने भी पुरस्कृत किया.
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उनकी कुछ और किताबें भी चर्चा में रहीं, जिनमें संघ दर्शन, युगावतार, मूल्यांकन, द वे, उजाले की और, हिंदूज एब्रोड डाइलेमा आदि शामिल हैं, जिनका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. उनके लिखने से ही नहीं लोगों के बीच उनके भाषणों व भाषण शैली की भी चर्चा होती थी. 1984 में उन्हें न्यूयॉर्क के विश्व हिंदू सम्मेलन में और ब्रेडफोर्ड के विश्व हिंदू संगम में विशेष तौर पर बुलाया गया था.
कभी एस गुरुमूर्ति ने उनके बारे में लिखा था कि, “He shaped many leaders but his name will not figure among those ‘known’ as leaders. He was a thinker but will not be among those who are ‘known’ as thinkers. He was an intellectual. But his name will not be in the list of ‘known’ intellectuals. He was a writer but will not be among the ‘known’ writers.
He was HV Seshadri, He was little known to the outside world as what he was because he did not think, write, or lead others to be ‘known’. He wrote books to shape men who would make the country strong, not to make himself popular. He toured ceaselessly and met hundreds of thousands of people to strengthen the motherland, not to become popular or build a vote-bank for himself.”
पांच सरसंघचालकों के साथ काम करने वाले ‘समग्र विद्वान’ रंगा हरि
जब भी गुरु गोलवलकर पर कोई आधिकारिक सूचनाओं वाली पुस्तक या जीवनी की जरुरत किसी शोधकर्ता को पड़ती है, वो सबसे पहले रंगा हरि की गुरु गोलवलकर पर लिखी जीवनी पढ़ता है. हालांकि एक किताब में सब कुछ नहीं समा सकता, वो भी गुरु गोलवलकर तो अपने आप में खुद एक युग थे, ऐसे में उन्होंने गुरु गोलवलकर से जुड़ी सभी रचनाएं, सम्बोधन, घटनाएं आदि समेटीं 12 खंड़ों के महाग्रंथ ‘गुरुजी समग्र’ में. रंगा हरि जी ने संघ कार्य हेतु पांच महाद्वीपों का प्रवास किया. उन्होंने पांच सरसंघचालकों श्री गुरुजी, मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बालासाहेब देवरस जी, प्रो. राजेंद्रसिंह जी उपाख्य रज्जू भैय्या, के. एस. सुदर्शन जी तथा डॉ. मोहन भागवत जी के साथ कार्य किया. 5 दिसंबर, 1930 को जन्मे हरिजी पिता टी.जे. शेनॉय तथा माता पद्मावती की आठ संतानों में दूसरे क्रमांक की संतान थे. सेंट अल्बर्ट हाई स्कूल में शिक्षा ग्रहण की तथा कोच्चि के महाराजा कॉलेज से उपाधि प्राप्त की.
रंगा हरि (हरि अट्टन) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐसे प्रचारक थे, जिन्होंने सहज, साधारण शब्दों में स्वयंसेवकों का बौद्धिक मार्गदर्शन किया. व्यावहारिक बातों की जानकारी उदाहरणों के साथ स्पष्ट करते थे. उनके स्नेहिल मार्गदर्शन स्वयंसेवकों ने अनुभव किया है. आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वह हमेशा राष्ट्र के प्रति समर्पित रहे.
रंगाहरि जी अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी, हिंदी, कोंकणी और मलयालम सहित 11 भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर विभिन्न भाषाओं में 60 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। रंगा हरि 1944 में नागपुर के प्रचारक पुरूषोत्तम चिंचोलकर से प्रेरित होकर संघ से और जीवन के अंतिम समय तक संघ के समर्पित कार्यकर्ता के नाते कार्य करते रहे। वह केरल में सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय रूप से शामिल थे. उनकी एक उल्लेखनीय उपलब्धि 12-खंडों में हिंदी में प्रकाशित ‘गुरुजी समग्र’ रही, जिसके वे प्रधान संपादक थे.
महात्मा गांधी की हत्या के उपरांत वर्ष 1948 से अप्रैल 1949 तक संघ पर पाबंदी लगाई गई थी. वह आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाने की मांग को लेकर एक सत्याग्रही के रूप में दिसंबर 1948 से अप्रैल 1949 तक केरल की सेंट्रल जेल में रहे. 1951 में कोच्चि में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह प्रचारक बन गए. आपातकाल के दौरान उन्होंने छद्म वेश में गुप्त रूप से कार्य जारी रखा. रंगा हरि 1983 से 1990 तक केरल के प्रांत प्रचारक रहे, 1990 में अखिल भारतीय सह-बौद्धिक प्रमुख और 1991 से 2005 तक अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख रहे. वह 2005 तक एशिया और ऑस्ट्रेलिया में हिन्दू स्वयंसेवक संघ के मार्गदर्शक थे. उन्होंने 5 महाद्वीपों में 22 देशों की यात्रा की. उन्होंने 2001 में लिथुआनिया में और बाद में 2005 और 2006 में भारत में पूर्व-ईसाई धर्म और परंपरा के विश्व सम्मेलन में भाग लिया. वह 2006 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य थे. उनकी अंतिम किताब थी ‘पृथ्वी सूक्त : धरती माता के प्रति एक श्रद्धांजलि’ जिसका विमोचन दिल्ली में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने किया था.
कम उम्र में ही संघ संस्थापक हेडगेवार की सबसे शोधपूर्ण जीवनी लिखकर इतिहास रच गए थे नाना पालकर
नारायण हरि यानी नाना पालकर, आज की स्वयंसेवकों की पीढ़ी को अगर संघ की स्थापना, संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार के सामने उस समय कितनी दिक्कतें आई थीं, उनके निजी जीवन की क्या रोचक घटनाएं थीं, आदि जानना हो तो उनके लिए सबसे सटीक पुस्तक ‘हेडगेवार चरित’ नाना पालकर की पुस्तक मानी जाती है. मूल रूप से मराठी में लिखी यह पुस्तक हाल ही में अंग्रेजी में भी ‘द मेन ऑफ मिलेनिया’ (सुरूचि प्रकाशन) के नाम से प्रकाशित हुई है. नाना का जन्म 26 अगस्त 1918 को हुआ था. उन्होंने पुणे के नूतन मराठी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की. वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे, और दिग्गज शिक्षकों के मार्गदर्शन में उनकी प्रतिभा और भी निखर कर सामने आई. उनके शिक्षक ही अनोखे थे, कोई स्वदेसी को समर्पित था तो कोई छुआछूत की लड़ाई लड़ रहा था.
उन्हें पढ़ने में रुचि विकसित हुई और बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में भी. वे शिवाजी महाराज के जीवन से बहुत प्रभावित थे. समाज सेवा के प्रति उनका झुकाव स्वाभाविक था. वे 1933 में आरएसएस के संपर्क में आए और कार्यकर्ताओं के बीच अनुशासन, ईमानदारी और निस्वार्थ भाव ने उन्हें स्पष्ट रूप से आकर्षित किया. उनके विचार वीर सावरकर और डॉ. के.बी. हेडगेवार से प्रभावित थे. जल्द ही वे आरएसएस के एक जिम्मेदार कार्यकर्ता बन गए। जन्मजात कवि होने के नाते, नाना की कविता आरएसएस के प्रभाव से नए विचारों और अवधारणाओं के साथ फलीभूत हुई. उन्होंने कई ऐसी कविताएँ रचीं जो देशभक्ति, मातृभूमि के प्रति प्रेम और समाज सेवा का संदेश देती थीं. स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि ने उन्हें उपयुक्त विषय प्रदान किए. आज भी संघ स्वयंसेवकों द्वारा उनकी रचनाओं को बहुत महत्व दिया जाता है.
नाना एक कुशल वक्ता भी थे. उन्होंने अपनी स्पष्ट और सरल भाषा, फिर भी गहन और व्यापक अध्ययन तथा प्रस्तुति की अनूठी व्यवस्थित शैली से वाद-विवाद जीतने की कला विकसित कर ली थी. उन्होंने कॉलेज के छात्रों और व्याख्याताओं की सौ से अधिक सभाओं को संबोधित किया होगा और उनकी प्रशंसा प्राप्त की होगी. उन्होंने 1936 में मैट्रिक की परीक्षा विशिष्टता के साथ उत्तीर्ण की. कॉलेज में शामिल होने के तुरंत बाद उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा. स्वास्थ्य लाभ के दौरान, उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और संघ की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने का निर्णय लिया, जिसका उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक पालन किया. उन्होंने ठाणे और पुणे जिलों के सुदूर गांवों में संघ का प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें 1942 में सतारा में आधिकारिक तौर पर प्रचारक नियुक्त किया गया था.
नाना समकालीन मुद्दों पर टिप्पणी किया करते थे, जैसे कि अंतरराष्ट्रीय स्थिति, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बदले समीकरण, स्वतंत्रता संग्राम में मुस्लिम कट्टरपंथ और संगठित होने की आवश्यकता आदि. सतारा में रहने के दौरान उनकी कई कांग्रेस नेताओं से भी मित्रता हुई. संघ में रहते हुए कई बार ऐसे मोड़ आते हैं कि बाहरी तत्व संघ प्रचारकों को भी विचलित करने की कोशिश करते हैं. उनके साथ भी हुआ, लेकिन वह डटे रहे और पुणे के विभाग प्रचारक बनाए गए. लेकिन फिर उनकी तबियत खराब रहने लगी, अगले 6 साल वो उससे जूझते रहे फिर 1958 में संघ के प्रचारक जीवन ने मुक्ति लेना बेहतर समझा.
इजरायल ने क्यों की एक रोड ‘नाना पालकर’ के नाम
लेकिन यही दौर उनकी जिंदगी में एक अहम मोड़ लेकर आया. उन्होंने अपना ध्यान लेखन में लगाया. उन्होंने लेखन के मार्ग पर गुरु गोलवलकर व एकनाथ रानाडे के निर्देशों का पालन करते हुए 1956 में गुरु गोलवलकर के जीवन और मिशन पर पुस्तक लिखी. बाद में, उन्होंने मराठा योद्धा संताजी और धानाजी आदि के जीवन पर पुस्तकें लिखीं. लेकिन उनकी सबसे उत्कृष्ट रचना आरएसएस के संस्थापक डॉ. के. बी. हेडगेवार की जीवनी थी, जो मराठी में लिखी गई सर्वश्रेष्ठ जीवनियों में से एक है. दुर्भाग्य से, इसे न तो साहित्यिक जगत में और न ही सामाजिक जगत में उस वक्त मान्यता मिली, लेकिन आज डॉ हेडगेवार के जीवन पर इसे सबसे अच्छा संदर्भ ग्रंथ माना जाता है. यहूदियों और उनके इतिहास एवं संघर्ष पर उनकी गहन शोधपूर्ण और चित्रमय पुस्तक (मराठी में इज़राइल: कष्टों से विजय तक) ने उन्हें इज़राइली लोगों की प्रशंसा दिलाई. इजरायल की सरकार तो इतना खुश हुई कि अपने देश में नाना पालकर के नाम पर एक रोड का नाम ही रख दिया.
तबियत फिर भी सुधरी नहीं, उन्होंने संघ में प्रांत बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी ले ली. बाद में वे महाराष्ट्र प्रांत के कार्यवाह बने. उनका संपर्क श्री गुलवानी महाराज, स्वामी स्वरूपानंद और अन्य जैसे संत व्यक्तित्वों से हुआ. वे निराश नहीं हुए, लेकिन उनका स्वास्थ्य उनका साथ नहीं दे रहा था. उन्हें पीलिया हो गया था और पोद्दार अस्पताल में भर्ती कराया गया था. गुरु गोलवलकर खुद तीन दिनों तक लगातार अस्पताल आते-जाते रहते थे और उनका मनोबल बनाए रखते थे. लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, केवल 49 साल की उम्र में नाना पालकर 1 मार्च 1967 को इस गोलोक चले गए.
हेडगेवार चरित की प्रस्तावना गुरु गोलवलकर ने लिखी थी, उनके शब्दों में, “इस पुस्तक के लेखक श्री नाना पालकर बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्ठावान् स्वयंसेवक हैं. उनके मन में परम पूज्यनीय डॉक्टरजी के प्रति अत्यन्त श्रद्धा एवं आदर का भाव है. लेखनकला में भी वे पटु हैं. यह कष्टसाध्य कार्य उनको सौंपा गया तो भली भाँति पूर्ण हो सकेगा इसी विश्वास से उनके ऊपर यह भार डाला गया. जिन-जिन व्यक्तियों अथवा कार्यों के साथ परमपूजनीय डॉक्टरजी के सम्बन्धों का उन्हें पता चल सका उन सभी स्थानों पर जाकर तथा उन व्यक्तियों से एवं उन कार्यों के सम्बन्ध में जितनी जानकारी सम्भव थी सब इकट्ठा कर तथा उसे तरतीब से लगाकर अत्यन्त परिश्रम के साथ उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की है”.
वैदिक पुनर्जागरण की आवाज श्रीपाद सातवलेकर
श्रीपाद दामोदर सालवलेकर का गांव कोलगांव आजकल महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में आता है. पिता दामोदर भट्ट, पितामह अनंत भट्ट उनके भी पिता कृष्ण भट्ट सभी वेदों के अच्छे ज्ञाता रहे थे. एक तरह से भारत के उन गिनती के परिवारों में ये परिवार था, जिसने सनातन ज्ञान और परम्पराओं को तब भी सहेज कर रखा हुआ था. उन्होंने बचपन से ही चित्रकारी सीखना शुरू किया और हैदराबाद में अपनी चित्रशाला स्थापित की. संघ की स्थापना से 32 साल पहले ही वे जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में शिक्षक नियुक्त हो गए थे. 7 साल बाद 1900 में वे फिर से हैदराबाद लौटे, और वहां अपना एक स्टूडियो बनाया. आर्य समाज से जुड़ने के बाद उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश जैसे तमाम ग्रंथों का मराठी अनुवाद किया. वेदों पर उनका गहन अध्ययन ता, 1919 में ‘वैदिक धर्म’ मासिक पत्रिका शुरू की और 5 साल बाद मराठी में ‘पुरुषार्थ’ पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की.
जब वे लगातार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तारीफें सुनते रहे तो, 1936 में उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार से मुलाकात की, फिर तो वे संघ के ही हो गए. उन्हें औंध रियासत का संघचालक बनाया गया था. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी गए. उसके बाद उन्होंने वैदिक ग्रंथों पर और ज्यादा काम करना शूरु किया और बतौर टीका आदि के करीब 409 ग्रंथों की रचना की. जिनमें सभी वेदों के भी चार-चार खंडों में सुबोध भाष्य प्रकाशित किए, सभी संहिताएं मूल पाठ में प्रकाशित कीं. साथ ही एक ग्रंथ लिखा, ‘वैदिक राष्ट्र गीत’. इस ग्रंथ से अंग्रेज चिढ़ गए क्योंकि इसमें राष्ट्र के शत्रुओं का विनाश करने वाले मंत्रों का संग्रह था. प्रकाशन पर तो प्रतिबंध लगा ही, सारी कॉपियां बाजार और प्रेस से जब्त कर ली गईं. ये प्रकाशन फिर आजादी के बाद ही हट पाया था. 1968 में 101 साल की आयु में जब तक वो गोलोक गए, लगातार सनातनी परम्पराओं के लिए काम करते रहे.
ऐसा नहीं है कि ये चार नाम ही संघ के इतिहास या जीवनियां लिखने के क्षेत्र में सक्रिय रहे थे, कई चेहरे हैं, जिन्होंने संघ का इतिहास, सनातन का इतिहास सहेजने में अपने जीवन का अमूल्य समय लगाया. कई स्वयंसेवक थे जिन्होंने शोध को बढ़ावा देने के लिए कई शोध संस्थान स्थापित किए, इनमें मोरोपंद पिंगले और हरिभाऊ वाकणकर जैसे नाम भी हैं. मोरोपंत पिंगले की प्रेरणा से जो बाबा साहेब आप्टे स्मारक समिति शुरू हुई थी, उसी के अंतर्गत बाद में ‘अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना’ की शुरूआत हुई थी. आज शोध और संकलन के क्षेत्र में जुटा ये संगठन हर जिले में काम कर रहा है, लगभग सभी यूनीवर्सिटीज के इतिहास व पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर्स इससे जुड़े हुए हैं.
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