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वो एक वादा अगर पूरा कर लेते तो...! 9 साल PM रहने के बाद भी ट्रूडो के दिल में रह गया ये मलाल

कनाडा के प्रधानमंत्री रहे जस्टिन ट्रूडो को इस बात का अफसोस रह गया कि वह चुनावी सुधार नहीं कर पाए. पीएम पद से अपने इस्तीफे के ऐलान के वक्त उन्होंने कहा कि ऐसे तो उन्हें कई बातों का अफसोस है, लेकिन असल में अगर किसी बात का अफसोस है तो वो ये कि वह सरकार चुनने की प्रक्रिया में बदलाव नहीं कर सके. आइए समझते हैं पूरी कहानी.

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जस्टिन ट्रूडो (Image: Reuters)
जस्टिन ट्रूडो (Image: Reuters)

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को आखिरकार अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा है. अपनी व्यक्तिगत आलोचनाओं के बीच उन्होंने पीएम पद से इस्तीफे का ऐलान कर दिया. इसके साथ ही कहा कि उन्हें एक मलाल रह गया. असल में वह चुनावी प्रक्रिया में बदलाव करना चाहते थे, जो कि वह नहीं कर पाए - या यूं कहें कि उन्होंने ऐसा किया नहीं.

जस्टिन ट्रूडो ने 6 जनवरी को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस किया और बताया कि वह अपने पद से इस्तीफा दे रहे हैं, और ये कि अगला नेता चुने जाने तक वह कार्यवाहक पीएम बने रहेंगे. साथ ही उन्होंने संसद के 24 मार्च तक स्थगन का भी ऐलान कर दिया, जहां विपक्षी पार्टियां उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की योजना बना रही थी.

जस्टिन ट्रूडो ने अपने संबोधन में क्या कहा?

जस्टिन ट्रूडो ने कहा कि ऐसे तो उनके पास अफसोस करने के लिए बहुत कुछ है लेकिन, "मैं चाहता हूं कि हम इस देश में अपनी सरकारों को चुनने के तरीके को बदल पाएं ताकि लोग एक ही बैलट पर आसानी से दूसरा विकल्प या तीसरा विकल्प चुन सकें." चुनावी प्रक्रिया में बदलाव की ये आस असल में सिर्फ ट्रूडो की ही नहीं रह गई, बल्कि कनाडा में अन्य दो प्रमुख विपक्षी दलों के प्लान में भी ये शामिल है.

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जस्टिन ट्रूडो 2015 में भारी बहुमत के साथ चुनकर आए थे, और पहली बार कनाडा के प्रधानमंत्री बने थे. उनके कई चुनावी वादों में चुनावी प्रक्रिया में बदलाव भी शामिल था. दरअसल, कनाडा में भी भारत की ही तरह फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम से ही चुनाव होते हैं. 2019 के चुनाव में भी इसी प्रक्रिया के तहत मतदान हुए और ट्रूडो दूसरी बार जीतने में कामयाब हुए थे.

क्या था जस्टिन ट्रूडो के चुनावी सुधार का प्लान?

जस्टिन ट्रूडो और उनकी लिबरल पार्टी के चुनावी वादों में रैंकिंग बैलट, प्रोपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन, मैंडेटरी वोटिंग और ऑनलाइन वोटिंग जैसे कुछ अहम सुधार शामिल थे. इसके लिए योजना बनाई गई थी कि वे एक ऑल-पार्टी मीटिंग करेंगे, और सरकार बनाने के 18 महीने के भीतर वे सुधार कानून पेश करेंगे, जिससे एफपीटीपी या फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम को खत्म किया जा सकेगा. हालांकि, वह दो बार, 9 साल तक प्रधानमंत्री रहे, लेकिन ये सुधार नहीं कर सके, जिस पर उन्होंने कहा कि इसका "अफसोस" है.

2015 के चुनाव में ट्रूडो ने किया था बदलाव का वादा

वोटिंग सिस्टम में सुधार का वादा असल में 2015 के चुनाव में एक आम बात थी. ट्रूडो की लिबरल पार्टी के अलावा, विपक्षी पार्टियां एनडीपी और ग्रीन्स के चुनावी वादों में भी इस तरह के सुधारे के वादे शामिल थे. मसलन, इससे साफ है कि कनाडा की राजनीति में चुनावी सुधार के वादे नई बात नहीं हैं, और तमाम दलों की इस सुधार में दिलचस्पी है. सिर्फ कंजर्वेटिव पार्टी के वादों में ये शामिल नहीं है. कहा जाता है कि ट्रूडो शासन ने बाद में एक कमेटी का गठन भी किया और विपक्षी पार्टियों के सांसदों को भी उसमें शामिल किया गया, लेकिन फिर भी इस सुधार को अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सका.

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किस तरह का वोटिंग सिस्टम चाहते थे ट्रूडो?

चुनावी सुधार के तौर पर जस्टिन ट्रूडो चाहते थे कि देश में रैंकिंग सिस्टम से वोटिंग हो. मतलब कि वोटर्स अपने उम्मीदवारों का चयन करें और उनके पास एक से ज्यादा चॉइस का ऑप्शन हो. इस सिस्टम में कोई एक उम्मीदवार को जीतने के लिए पूर्ण बहुमत की जरूरत होती है. उनके प्लान के मुताबिक, वोटों की गिनती के बाद अगर किसी उम्मीदवार को बहुमत नहीं मिला तो इसके बाद उस उम्मीदवार को रेस से हटा दिया जाता, जिन्हें वोटर्स ने सबसे कम फर्स्ट-चॉइस माना हो, और उनके बैलट दूसरे स्थान पर रहने वाले उम्मीदवार के मुताबिक ट्रांसफर कर दिए जाते. ये प्रक्रिया तब तक चलती जब तक कि किसी एक उम्मीदवार 50 फीसदी प्लस वन वोटों के साथ जीत नहीं जाता.

हालांकि, जस्टिन ट्रूडो के इस प्लान की स्थानीय स्तर पर आलोचना भी हुई, जब एक्सपर्ट ने माना था कि अगर रैंकिंग सिस्टम के हिसाब से चुनाव होते तो 2015 में ट्रूडो और भी बड़ी जीत के साथ सत्ता में आते. मसलन, एक्सपर्ट का कहना था कि "एनडीपी (विपक्षी पार्टी) मतदाताओं से लगभग सभी दूसरे विकल्प का समर्थन मिला था, और इसकी तुलना में कंजर्वेटिव मतदाताओं के लिए लिबरल एक पसंदीदा विकल्प रहा था."

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हालांकि, जस्टिन ट्रूडो के इस प्लान की स्थानीय स्तर पर आलोचना भी हुई, जब एक्सपर्ट ने माना था कि अगर रैंकिंग सिस्टम के हिसाब से चुनाव होते तो 2015 में ट्रूडो और भी बड़ी जीत के साथ सत्ता में आते. मसलन, एक्सपर्ट का कहना था कि एनडीपी (विपक्षी पार्टी) के मतदाताओं से ट्रूडो की पार्टी को लगभग सभी दूसरे विकल्प का समर्थन मिला था, और इसकी तुलना में कंजर्वेटिव मतदाताओं के लिए लिबरल पार्टी एक बेहतर पसंद रही थी. अब क्योंकि ट्रूडो के हाथ से सत्ता चली गई है तो वह अपने किए वादे को लागू नहीं कर पाने पर मलाल कर रहे हैं, पछता रहे हैं.

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