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क्यों हैदराबाद हाउस में मिलते हैं विदेशी मेहमान, पुतिन भी वहां आएंगे! अंदर से कैसा है?

क्या आपने कभी गौर किया है कि दुनिया का कोई भी बड़ा नेता-चाहे वह अमेरिकी राष्ट्रपति हो या फ्रांस का प्रमुख भारत पहुंचते ही सबसे पहले हैदराबाद हाउस ही क्यों जाता है? इसकी वजह सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि एक ऐसा शाही अतीत है जिसमें निजाम की रईसी, ब्रिटिश दौर की राजनीतिक जटिलताएं और आजादी के बाद भारत की उभरती कूटनीतिक पहचान तीनों के निशान गहराई से दर्ज हैं.

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 इस इमारत में पुतिन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 23वें भारत–रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन के लिए आमने-सामने बैठेंगे (Photo:Wikimedia Commons)
इस इमारत में पुतिन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 23वें भारत–रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन के लिए आमने-सामने बैठेंगे (Photo:Wikimedia Commons)

दिल्ली में स्थित हैदराबाद हाउस आज दुनिया के सबसे शक्तिशाली नेताओं की मेजबानी करता है. और आज, गुरुवार 4 दिसंबर, इसी शाही इमारत में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 23वें भारत–रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन के लिए आमने-सामने बैठेंगे.

लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर क्यों हर बड़ा विदेशी मेहमान-अमेरिकी राष्ट्रपति से लेकर फ्रांसीसी राष्ट्रपति तक भारत में आते ही सबसे पहले इसी जगह का रुख करता है? इसके पीछे है एक राजसी इतिहास, जिसमें निजाम की आलीशान जिंदगी, अंग्रेज सरकार की राजनीतिक मजबूरियां, और आजादी के बाद भारतीय कूटनीति की बदलती हुई तस्वीर सब शामिल है.


कहानी की शुरुआत आजादी से पहले की है, जब भारत में 560 से ज्यादा रियासतें थीं।. इन रियासतों के मामलों को सुलझाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1920 में ‘चैंबर ऑफ प्रिंसेस’ बनाया. इसके लिए दिल्ली में आए दिन बैठकों का आयोजन होता, और जब-जब किसी रियासत के प्रमुख को बुलाया जाता, उन्हें ठहरने की समुचित व्यवस्था ढूंढने में भारी परेशानी होती.

 हैदराबाद रियासत के निजाम-मीर उस्मान अली खान इससे इतने परेशान हुए कि उन्होंने दिल्ली में अपना एक स्थायी शाही ठिकाना बनाने का निश्चय कर लिया. महीनों तक जगह ढूंढने के बाद नजर टिक गई राष्ट्रपति भवन के पास लगभग 12 एकड़ जमीन पर, जमीन खरीद ली गई, लेकिन महल का डिजाइन तैयार होने पर निजाम को लगा कि यह बिल्कुल पसंद नहीं आया. और आखिरी नतीजे से वह खुश नहीं हुए. उन्होंने इसे कभी अपना घर नहीं बनाया.

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महल को बनाने में पैसे ऐसे बहाए गए, जैसे कोई आधुनिक दौर का किंगडम खड़ा किया जा रहा हो. शुरू में ही 26 लाख रुपये लगा दिए गए, जो बाद में बढ़कर लगभग 50 लाख रुपये तक पहुंच गए.

उस दौर में यह आंकड़ा हैरान करने वाला था. सजावट के लिए बर्मा से टीक की लकड़ी मंगवाई गई, न्यूयॉर्क से इलेक्ट्रिकल फिटिंग आईं, और इंटीरियर डिज़ाइन का काम लंदन की दो मशहूर कंपनियों को सौंपा गया. महल की दीवारें दुनिया भर की कला से सजीं.17 अंतरराष्ट्रीय पेंटिंग खरीदी गईं, लाहौर के अब्दुल रहमान चुगताई की 30 हैंडमेड पेंटिंग अलग से मंगाई गईं.

हैदराबाद हाउस की कैसे बदली पहचान

इराक, तुर्की और अफगानिस्तान से कालीन मंगाकर कमरे सजाए गए. इतना ही नहीं, डाइनिंग हॉल इतना विशाल बनाया गया कि एक साथ 500 मेहमान शाही अंदाज में भोजन कर सकें. बर्तन, प्लेटें, कटलरी सब चांदी की.

आजादी के बाद रियासतें भारत का हिस्सा बनीं और धीरे-धीरे उनकी संपत्ति भी सरकार के अधिकार में आई. 1954 में विदेश मंत्रालय ने हैदराबाद हाउस को लीज पर ले लिया और इसे कूटनीतिक मुलाकातों के लिए इस्तेमाल करना शुरू किया. कुछ दशक बाद केंद्र और आंध्र प्रदेश सरकार के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें दिल्ली में आंध्र भवन बनाने के लिए जमीन दी गई और बदले में हैदराबाद हाउस केंद्र की स्थायी संपत्ति बन गया. इस तरह जो इमारत कभी निजाम के लिए बनाई गई थी, वह आज भारतीय विदेश नीति की सबसे महत्वपूर्ण जगह बन चुकी है.

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कितना भव्य है हैदराबाद हाउस
वक्त बीतता गया, लेकिन हैदराबाद हाउस की भव्यता और प्रतिष्ठा कम नहीं हुई. इसकी ऊंची मेहराबें, गोल हॉल, शानदार लकड़ी का काम और शाही साज-सज्जा आज भी किसी को यह महसूस करवा देती हैं कि वह किसी आम भवन में नहीं, बल्कि इतिहास के किसी विराट अध्याय में प्रवेश कर रहा है.

इसकी संरचना ऐसी है कि औपचारिक बैठकों में गरिमा स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है. सुरक्षा और प्रोटोकॉल की दृष्टि से भी यह प्रधानमंत्री की उच्चस्तरीय द्विपक्षीय मुलाकातों के लिए सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता है.

इसीलिए दुनिया का कोई भी बड़ा नेता चाहे अमेरिकी राष्ट्रपति हो, फ्रांस का राष्ट्रपति हो, जापान का प्रधानमंत्री हो या आज रूस के व्लादिमीर पुतिन भारत आते ही अपनी सबसे अहम बैठक यहीं करते हैं. एक ऐसी जगह, जो कभी निजाम की पसंद नहीं बनी, आज भारत की कूटनीतिक शक्ति और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक बनकर विश्व के सामने खड़ी है.
 

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