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शिवानी भटनागार का कातिल कोई नहीं !

पत्रकार शिवानी भटनागर की हत्या के तीन मुख्य अभियुक्त बरी हो गए हैं. हत्यारा प्रदीप शर्मा जेल की सलाखों के पीछे रह गया है.

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शिवानी भटनागर
शिवानी भटनागर

पत्रकार शिवानी भटनागर की हत्या के तीन मुख्य अभियुक्त बरी हो गए हैं. हत्यारा प्रदीप शर्मा जेल की सलाखों के पीछे रह गया है, हालांकि दिल्ली हाइकोर्ट के फैसले के मुताबिक पत्रकार की हत्या के पीछे उसकी मंशा अब भी स्पष्ट नहीं है.

उधर शिवानी के परिजन और उनके मित्र इस फैसले से अचंभित हैं. ऐसे में कानून के जानकारों ने कुछ मुश्किल सवाल करने शुरू कर दिए हैं.

देश के लिए यह एक पूर्वानुभव है. इस मामले को लेकर लोगों में उसी तरह की बेचैनी है, जैसी कि जेसिका लाल हत्याकांड में देखी गई थी. आइपीएस अधिकारी आर.के. शर्मा को बचाने के लिए बड़ी सूझबूझ से मामले को कमजोर बना दिया गया.

जेसिका और शिवानी, दोनों की ही हत्या 1999 में हुई थी. दोनों ही मामले एक दशक से ज्‍यादा समय तक खिंचते रहे. दोनों ही मामलों में गवाह अपने बयान से मुकर गए, शिवानी के मामले में 50 से ज्‍यादा गवाह थे.

दोनों ही मामलों में राजनैतिक संबंधों वाले नाटकीय पात्र जुड़े थे. और दोनों में आरोपी कमजोर दलीलों के कारण वर्षों की मुकदमेबाजी के बाद साफ बच निकले. लेकिन दोनों मामलों में एक महत्वपूर्ण अंतर हैः जेसिका के मामले में अंततः इंसाफ की जीत हुई, जबकि शिवानी के मामले में 12 साल बाद भी अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है.

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इंडिया टुडे ने इस मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों, निचली अदालत में शर्मा को दोषी साबित करने की कोशिश करने वाले वकीलों और कानून के अन्य जानकारों से बात की. सबकी एक ही राय थीः इंसाफ के साथ मजाक हुआ है.

हाइकोर्ट ने दिसंबर 2010 में अपना फैसला सुरक्षित रखने के बाद उसे सुनाने में 10 महीने क्यों लगा दिए?
निशानेबाज प्रदीप शर्मा को कैसे दोषी माना गया जबकि आर.के. शर्मा, सत्य प्रकाश शर्मा और श्री भगवान शर्मा को बरी कर दिया गया?
आइपीएस अधिकारी के फोन रिकॉर्ड को, जिनके जरिए जांचकर्ता दूसरे अभियुक्तों तक पहुंचे थे, अब अविश्वसनीय कैसे माना गया?
मामला हाइकोर्ट में पहुंचने पर सरकारी वकील एस.के. सक्सेना और मनीषा शर्मा को, जिन्होंने निचली अदालत में सभी चारों अभियुक्तों को दोषी साबित किया था, क्यों हटा दिया गया?

न्यायमूर्ति बी.डी. अहमद, जो पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के बेटे हैं, और मनमोहन सिंह, जो ज्‍यादातर बौद्धिक संपदा से जुड़े मामलों की सुनवाई कर चुके हैं, की खंडपीठ ने 12 अक्तूबर को फैसला सुनाने से पहले उसे 10 महीने से ज्‍यादा समय तक सुरक्षित रखा.

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक, अदालत अगर फैसला सुरक्षित रखने के दो महीने के भीतर उसे नहीं सुनाती है, तो उसे इस देरी के लिए वजह बतानी चाहिए. अगर वह छह महीने के भीतर ऐसा नहीं करती है तो अभियोजन पक्ष को अधिकार है कि वह पीठ को बदलने की मांग कर सकता है.

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पर इस मामले में अदालत ने देरी का कोई कारण नहीं दिया है, न ही अभियोजन पक्ष के वकील पवन शर्मा ने पीठ बदलने की मांग की है. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अशोक अरोड़ा कहते हैं, ''यह देरी समझ से परे है.''

तीन अभियुक्तों को शक का लाभ देने के पीछे मुख्य वजह यह है कि आइपीएस अधिकारी शर्मा के फोन रिकॉर्ड को भरोसे लायक नहीं माना गया. लेकिन पुलिस ने हत्यारे की तलाश इन्हीं फोन रिकॉर्ड के जरिए की थी. अरोड़ा कहते हैं, ''जब आप इंसाफ नहीं करना चाहते तो आप तकनीकी खामियों का सहारा लेते हैं.''

अदालत किराये के हत्यारे के इरादे की कोई वजह नहीं बता सकी. इसके बावजूद वैज्ञानिक और परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर उसे दोषी मान लिया. अपना नाम जाहिर न करने की शर्त पर जांच करने वाले एक अधिकारी ने कहा कि वह इस बात का तर्क नहीं समझा पाया कि हत्या करने वाले को दोषी मान लिया गया, जबकि उस आदमी को छोड़ दिया गया जिसे पैसे देकर हत्या कराने वाला माना जा रहा था और जिसका ठोस मकसद भी था.

उसके मुताबिक, ''अगर सबूत ठोस नहीं है तो एक व्यक्ति को भी दोषी क्यों माना गया.''

दिल्ली सरकार की ओर से पवन शर्मा को अभियोजन पक्ष का वकील चुने जाने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं. जेसिका लाल हत्याकांड में वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम को दिल्ली पुलिस की ओर से वकील बनाया गया था.

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प्रियदर्शिनी मट्टू मामले में सीबीआइ ने अतिरिक्त सॉलीसिटर जनरल अमरेंद्र शरण को वकील बनाया था. सरकारी वकील सक्सेना और मनीषा शर्मा ने आठ साल तक निचली अदालत में शिवानी भटनागर का मुकदमा लड़ा और चार अभियुक्तों को दोषी साबित करके उन्हें उम्रकैद की सजा दिलाई थी. उन्हें निचली अदालत और हाइकोर्ट दोनों जगह सरकारी वकील बनाया गया था.

लेकिन हाइकोर्ट में चार महीने तक सरकारी वकील रहने के बाद मार्च, 2008 में उन्हें हटा दिया गया. मनीषा शर्मा ने इंडिया टुडे को बताया कि उन्हें आज तक इस मामले से हटाए जाने की वजह मालूम नहीं हुई.

सूत्रों का कहना है कि सरकारी वकीलों को हटाने वाली फाइल दिल्ली पुलिस के एक पूर्व आयुक्त ने दी थी. ये पूर्व आयुक्त चंडीगढ़ में लंबे समय तक रहे, उन्हीं दिनों आर.के.शर्मा पंचकुला में पुलिस अधिकारी थे.

इस मामले में विसंगतियों की भरमार रही. आर.के. शर्मा को तीन बार पॉलीग्राफ टेस्ट (झूठ पकड़ने वाला परीक्षण) के लिए कहा गया, लेकिन वे इससे बचते रहे, जबकि शिवानी के परिवार को इससे गुजरना पड़ा.

बयान से मुकरने वाले गवाहों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई और उन्हें सुरक्षा देने की भी कोशिश नहीं की गई. एक महत्वपूर्ण गवाह और शर्मा के मित्र सुरेश कुकरेजा, जो व्यापारी हैं, अनुच्छेद 164 के तहत दिए गए बयान से मुकर गए, फिर भी निचली अदालत के निर्देश के मुताबिक उनके खिलाफ झूठा बयान देने का आरोप नहीं लगाया गया.

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कुकरेजा ने स्वीकार किया था कि शर्मा ने पुणे में शिवानी और अन्य अभियुक्तों से बात करने के लिए उनके मोबाइल फोन का इस्तेमाल किया था.

न्यायाधीशों ने लिखा, ''न्यायाधीश भी अन्य लोगों की तरह संदेह कर रहे हैं, लेकिन...दूसरों के, जो किसी भी नतीजे पर पहुंचने के लिए स्वतंत्र हैं, विपरीत न्यायाधीश सिर्फ शक के आधार पर किसी को दोषी करार नहीं दे सकते.'' लेकिन प्रायः लोगों का ''संदेह'' ही फैसले बदल देता है. इस मामले में ढेरों दस्तावेज और सबूत हैं. क्या इसमें दिलचपस्प मोड़ आएगा?

अगर अभियोजन पक्ष सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है, तो ऐसा हो भी सकता है.

कहानी एक कत्ल की

1999 : 23 जनवरी इंडियन एक्सप्रेस की प्रमुख संवाददाता शिवानी भटनागर को पूर्वी दिल्ली के घर में मृत पाया गया.
2002 : 23 जनवरी पुलिस ने हरियाणा पुलिस के पूर्व अधिकारी, जो कभी आर.के. शर्मा के साथ काम करते थे, के बेटे श्री भगवान को गिरफ्तार किया.
2002 : 2-18 अगस्त दिल्ली पुलिस ने आर.के. शर्मा के हरियाणा में पंचकुला स्थित घर पर छापा मारा लेकिन उन्हें नहीं धर सकी. सह-आरोपी प्रदीप शर्मा पकड़ा गया. आर.के. शर्मा की पत्नी ने आरोप लगाया कि शिवानी की हत्या में भाजपा नेता प्रमोद महाजन का हाथ है. महाजन ने इनकार किया और मामले की जांच सीबीआइ से कराने की मांग की.
2002 : 27 सितंबर आर.के. शर्मा ने अंबाला में आत्मसमर्पण किया, पुलिस हिरासत में भेजे गए.
2002 : 27 अक्तूबर पुलिस ने आर.के. शर्मा के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल कर कहा कि उन्होंने शिवानी को गोपनीय सरकारी दस्तावेज दिए थे.
2003 : 20 मार्च सत्र न्यायालय में सुनवाई शुरू.
2005 : 23 जनवरी मामला फास्ट ट्रैक कोर्ट में.
2006 : 10 फरवरी शर्मा को पैरोल पर रिहा किया ताकि वे अपनी बेटी के विवाह में शामिल हो सकें.
2007 : अक्तूबर-दिसंबर अभियोजन ने कहा कि ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, 1923 के तहत शिवानी आर.के. शर्मा के अपराधों को सबके सामने लाने वाली थीं. शर्मा ने कहा कि कॉल रिकॉर्ड गढ़े हुए हैं.
2008 : 29 फरवरी अंतिम जिरह खत्म.
2008 : मार्च अदालत ने शर्मा और तीन अन्य को उम्रकैद की सजा सुनाई जबकि वेदप्रकाश शर्मा को रिहा कर दिया. चारों ने दिल्ली हाइकोर्ट में अपील की जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया.
2010 : 22 नवंबर हाइकोर्ट में सुनवाई शुरू हुई.
2010 : 21 दिसंबर कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा.
2011 : 12 अक्तूबर आर.के. शर्मा, श्री भगवान और सत्य प्रकाश बरी हुए. हाईकोर्ट ने प्रदीप शर्मा की उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा.

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