उच्चतम न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने के अहम मुद्दे पर ढीला रुख अख्तियार करने को लेकर मंगलवार को केंद्र सरकार की खिंचाई की और इस बात पर भी चिंता जतायी कि इतने अहम मुद्दों पर संसद चर्चा नहीं करती और न्यायपालिका पर सीमा लांघने का आरोप लगाती है.
दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में सरकार के विभिन्न हलफनामों पर विचार के बाद न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी तथा न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय की पीठ ने कहा कि केंद्र ने मामले को काफी हल्के में लिया है जिसकी निंदा किए जाने की जरूरत है.
पीठ ने कहा, ‘उन्होंने इस मामले को काफी हल्के में लिया है. इस बर्ताव की निंदा किए जाने की जरूरत है और हम यह अपने फैसले में कहने जा रहे हैं.’ उच्चतम न्यायालय की पीठ ने कहा कि पिछले 60 सालों के दौरान संसद ने इतने अहम मुद्दे पर चर्चा नहीं की लेकिन जब ऐसे मामलों पर अदालत कोई निर्णय करती है तो वे न्यायपालिका की ओर से सीमा लांघने की शिकायत करते हैं.
पीठ ने कहा, ‘सर्वोच्च विधायिका के पास ऐसे मुद्दों के लिए वक्त नहीं है. इन मुद्दों पर विचार करने के लिए विधायिका को वक्त मिले इसके लिए इस देश के लोग कब तक इंतजार करेंगे.’ अपनी टिप्पणी में पीठ ने यह भी कहा कि विधि आयोग ने भी आईपीसी की धारा 377 को खत्म करने की सिफारिश दी थी जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध को अपराध माना गया है और इसकी सजा के तौर पर अधिकतम उम्र कैद की सजा दी जा सकती है.
न्यायालय ने यह टिप्पणी तब की जब प्रख्यात फिल्मकार श्याम बेनेगल ने वरिष्ठ वकील अशोक देसाई के जरिए अपनी बात रखी कि विभिन्न कानूनों में सरकार संशोधन करती रही है लेकिन सरकार इसका फैसला अदालत पर छोड़ देती है. बेनेगल समलैंगिक यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से हटाने के पक्षधर हैं. बेनेगल ने कहा, ‘सरकार लंबे समय से कानूनों में संशोधन करने में नाकाम रही है.
औद्योगिक विवाद कानून में पिछले 40 साल से संशोधन नहीं किया गया है और इस अधिनियम में ‘उद्योग’ शब्द अर्थहीन हो गया है. सरकार सोचती है कि अदालत ही इन पर फैसला ले.’ इसके बाद पीठ ने कहा, ‘जब भी अदालत कुछ करती है तो वे यह भी कहते हैं कि यह न्यायिक सीमा लांघना है.’ इससे पहले, न्यायालय ने कहा कि यह खास मामला है जिसमें सरकार ने उच्च न्यायालय में मामला लड़ने के बाद न्यायालय के समक्ष उदासीन रुख अपनाया है.
पीठ ने कहा, ‘हमें नहीं पता कि वे कितने मामले में उदासीन हैं. यह खास मामला है जहां केंद्र उच्च न्यायालय में बहस के बाद अब उदासीन रूख अपना रहा है.’ पीठ ने कहा, ‘सरकार मामले में तटस्थ रूख के साथ आयी है. किसे स्वीकार किया जाना चाहिए, उच्च न्यायालय में जो हलफनामा दायर किया गया था उसे या शीर्ष अदालत में उदासीन रूख को.’
पीठ ने इस बात पर चिंता जतायी कि विधि आयोग की सिफारिश के बावजूद पिछले 60 साल में संसद ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में संशोधन पर विचार नहीं किया है. न्यायालय ने कहा, ‘विधायिका के पास इन मुद्दों पर विचार के लिये समय नहीं है. आखिर इस देश के लोग कबतक इंतजार करेंगे.’ शीर्ष अदालत समलैंगिक अधिकार विरोधी कार्यकर्ताओं और राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों की याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जो उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध कर रहे हैं.
दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था और व्यवस्था दी थी कि एकांत में दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से संबंध अपराध नहीं हैं. भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध माना गया है जिसमें उम्रकैद तक की सजा का प्रवाधान है.
वरिष्ठ भाजपा नेता बीपी सिंघल ने उच्च न्यायालय के फैसले को यह कहकर उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी कि इस तरह की गतिविधियां अवैध, अनैतिक और भारतीय संस्कृति के मूल्यों के खिलाफ हैं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, उत्कल क्रिश्चियन काउंसिल और एपोस्टोलिक चर्चेज जैसे धार्मिक संगठनों ने भी फैसले को चुनौती दी थी.
योग गुरु बाबा रामदेव, ज्योतिषी सुरेश कौशल, दिल्ली बाल संरक्षण आयोग और तमिलनाडु मुस्लिम मुन्न कशगम ने भी उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया था. केंद्र ने पूर्व में शीर्ष अदालत को सूचित किया था कि समलैंगिकों की संख्या करीब 25 लाख है और इनमें से सात प्रतिशत (1.75 लाख) एचआईवी ग्रस्त हैं.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा था कि वह अत्यधिक जोखिम वाले चार लाख लोगों], ‘पुरुषों के साथ यौन संबंध रखने वाले पुरुषों’ (एमएसएम) को अपने एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के दायरे में लाने की योजना बना रहा है और यह पहले ही करीब दो लाख लोगों को इसके दायरे में ला चुका है.
एचआईवी ग्रस्त लोगों के कल्याण एवं पुनर्वास के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन ‘नाज’ फाउंडेशन ने पूर्व में कहा था कि समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखना संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है और कानून को उस समय हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब मामला आपसी सहमति वाले वयस्कों से जुड़ा हो. संगठन ने कहा था, ‘यह उन्हें समाज में अलग थलग करने के बराबर है. वे अपनी यौन अभिव्यक्ति का खुलासा करने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि समाज में इसे अपराध बना दिया गया है. जबकि कौटुम्बिक व्यभिचार को अपराध नहीं माना गया है.’