भारत में तकरीबन 850 जीवित भाषाएं हैं और पिछले 50 साल में करीब 250 भाषाएं विलुप्त हुईं. यह बात जाने-माने भाषाविद् गणेश देवी के संस्थान भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर द्वारा ‘भारतीय भाषाओं के लोक सर्वेक्षण’ (पीएलएसआई) में जाहिर हुई.
ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे जॉन अब्राहम ग्रियर्सन के नेतृत्व में 1894-1928 के बीच हुए भाषा सर्वेक्षण के करीब 100 साल बाद हुए अपने तरह के पहले सर्वेक्षण के निष्कर्षों के संबंध में देवी ने कहा ‘भारत में लगभग 850 जीवित भाषाएं हैं जिनमें से हम 780 भाषाओं का अध्ययन कर सके और 1961 की जनगणना को आधार मानें तो इन 50 सालों में 250 भाषाएं विलुप्त हुईं.'
वडोदरा विश्वविद्यालय में 1996 में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे 63 वर्षीय देवी ने कहा कि पीएलएसआई ने जिन 780 भाषाओं का अध्ययन किया उनमें से 400 भाषाओं का व्याकरण और शब्दकोष तैयार किया गया. मान लिया जाए कि इनमें से कोई 100 भाषाओं का अध्ययन पहले भी किया गया हो तब भी इनमें से 300 भाषाओं का रिकॉर्ड इससे पहले उन भाषाओं को बोलने वाले समुदाय से बाहर कभी तैयार नहीं किया गया.
इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष को 68 खंडों में करीब 35,000 पन्नों की रपट के स्वरूप में भारत के पहले उप-राष्ट्रपति एस राधाकृष्ण के जन्मदिन के मौके पर मनाए जाने वाले ‘शिक्षक दिवस’ के अवसर पर अगले पांच सितंबर को जारी किया जाएगा. उन्होंने बताया कि करीब 400 से अधिक भाषाएं आदिवासी और घुमंतू व गैर-अधिसूचित जनजातियां बोलती हैं. यदि हिंदी बोलने वालों की तादाद करीब 40 करोड़ है तो सिक्क्मि में माझी बोलने वालों की तादाद सिर्फ चार है.
देवी ने बताया कि इस सर्वेक्षण में उन भाषाओं को भी शामिल किया गया है जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10,000 से कम है क्योंकि 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद देश में भाषाई संघर्ष की आशंका को विराम देने के लिए सोची-समझी रणनीति के तहत जनगणना में उन भाषाओं को शामिल करना बंद कर दिया गया जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10,000 से कम हो. देवी ने कहा कि इसलिए 1961 की जनगणना में जहां 1,652 भाषाओं का जिक्र है वहीं 1971 में ये घटकर 182 हो गई और 2001 में यह 122 रह गई. उल्लेखनीय है कि जनगणना में भाषा को मानने का आधार अलग होता है इसलिए 1961 में जिन 1,652 भाषाओं का जिक्र है उनमें से अनुमानत: वास्तविक तौर पर 1100 को हम भाषा का दर्जा दे सकते हैं.