पूरी दुनिया में, जिसमें हमारा देश भी शामिल है, प्लास्टिक रेन हो रही है. एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्वोलॉजी में इसी हफ्ते छपी स्टडी के मुताबिक ये माइक्रोप्लास्टिक हैं, जो नंगी आंखों से नहीं दिखते, लेकिन जिन्हें इकट्ठा किया जाए तो प्लास्टिक का पहाड़ खड़ा हो जाएगा. समझते हैं कि आखिर ये प्लास्टिक आ कहां से रहा है और क्या कुछ समय बाद ये पूरी तरह से बारिश की जगह ले लेगा.
क्या है प्लास्टिक की बारिश?
ये माइक्रोप्लास्टिक हैं, जिनका साइज 5 मिलीमीटर जितना ही होता है. ये खिलौनों, कपड़ों, गाड़ियों, पेंट, कार के पुराने पड़े टायर या किसी भी चीज में होते हैं. हमारे पास से होते हुए ये वेस्टवॉटर में, और फिर समुद्र में पहुंच रहे हैं. यहां से समुद्र के इकोसिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं और फिर बारिश बनकर धरती पर वापस लौट आते हैं.
क्या हम देख सकते हैं?
वैसे तो खुली आंखों से ये दिखाई नहीं देते लेकिन अगर आप UV लाइट के साथ खड़े हो जाएं और बिल्कुल पास ही आपको हवा में छोटे-छोटे कण दिखेंगे. ये माइक्रोप्लास्टिक हैं. डराने वाली बात ये है कि घर के भीतर माइक्रोप्लास्टिक कहीं ज्यादा पाए जाते हैं.

संरक्षित इलाकों तक जा रहा प्रदूषण
साइंस जर्नल में अमेरिका पर हुई एक स्टडी प्रकाशित हुई. इसमें किसी प्रदूषित शहर का नहीं, बल्कि सबसे साफ माने जाने वाले दक्षिणी नेशनल पार्क की हवा जांची गई. लगभग 14 महीने तक वहां बारिश को देखा गया और पता लगा कि इतने ही महीनों में 1 हजार मैट्रिक टन से ज्यादा प्लास्टिक बरस चुका है. ये प्रोटेक्टेड एरिया था, जहां कम से कम कई किलोमीटरों तक न तो वाहन होता है, न पॉल्यूशन का कोई और स्त्रोत. ऐसी जगहें तक सेफ नहीं रहीं.
वैज्ञानिकों ने माना कि आर्कटिक जैसी इंसानों से खाली जगह भी अब प्लास्टिक रेन झेल रही है. ये स्टडी भारत में नहीं हुई, लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ज्यादा आबादी वाले देशों में हालत ज्यादा खराब होगी. अनुमान है कि साल 2030 तक प्लास्टिक रेन 260 मिलियन टन से बढ़कर सीधे 460 मिलियन टन हो जाएगी. ये अकेले अमेरिका का हिसाब-किताब है. दोहरा दें कि भारत में हालात बेहतर तो नहीं ही होंगे.
क्या कहती है ताजा स्टडी?
यूनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड, न्यूजीलैंड ने पाया कि शहर की छतों के हर वर्ग मीटर पर 5 हजार से ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक बिछा होता है. रिसर्च नौ हफ्तों तक चली, जिसमें तकरीबन रोज वही नतीजा आया. चूंकि वहां वाहनों या ज्यादा आबादी के चलते प्रदूषण कम है तो पता लगा कि प्रदूषण पैकेजिंग मटेरियल से हो रहा है. बता दें कि पैकेजिंग में पॉलीएथिलीन इस्तेमाल होता है, जो एक किस्म का माइक्रोप्लास्टिक है. इसके अलावा इलेक्ट्रकिल और इलेक्ट्रॉनिक सामानों से पॉलीकार्बोनेट निकलता है, ये भी प्लास्टिक का एक प्रकार है.

सेहत पर क्या पड़ता है असर?
साल 2021 में माइक्रोप्लास्टिक के असर पर रिसर्च हुई, जिसमें खुलासा हुआ कि हम रोज लगभग 7 हजार माइक्रोप्लास्टिक के टुकड़े अपनी सांस के जरिए लेते हैं. पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी की स्टडी में माना गया कि ये वैसा ही है, जैसा तंबाखू खाना या सिगरेट पीना. फिलहाल ये पता नहीं लग सका कि प्लास्टिक की कितनी मात्रा सेहत पर बुरा असर डालना शुरू कर देती है, लेकिन ये बार-बार कहा जा रहा है कि इससे पाचन तंत्र से लेकर हमारी प्रजनन क्षमता पर भी बुरा असर होता है. प्लास्टिक कैंसर-कारक भी है.
फिलहाल माइक्रोप्लास्टिक पॉल्यूशन को कम करने के लिए तकनीकें बनाई जा रही हैं. आमतौर पर ये सिंगल यूज प्लास्टिक में होता है, जिसे इस्तेमाल के बाद फेंक दिया जाता है. यहां से यह हवा-पानी-मिट्टी को प्रदूषित करता चलता है. अब कई तकनीकें बन रही हैं जो इसके माइक्रोफाइबर को लगभग 95 प्रतिशत तक खत्म करने का दावा करती हैं.

इससे पहले बहुत बार तेजाबी बारिश की भी बात होती रही. इसमें आसमान से सीधे वो एसिड नहीं गिरता, जो इंसान को गला दे लेकिन इतना खतरनाक जरूर होता है कि इसका लगातार संपर्क सेहत खराब कर दे. यहां तक कि इमारतों जैसे ताजमहल के बारे में भी कहा जा चुका कि एसिड रेन के चलते उसका रंग पीला-धूसर हो चुका है. ऐसे में इंसानी हेल्थ भी सुरक्षित नहीं.
क्या है एसिड रेन
कारखानों और दूसरे तरीकों से हवा में सल्फर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है. यही गैसें हवा में पहुंचकर पानी से मिलकर सल्फेट और सल्फ्यूरिक एसिड बनाती हैं. यही एसिड बारिश बनकर धरती पर पहुंचता है.