जगन्नाथ जी के धाम के तौर पर ओडिशा स्थित पुरी क्षेत्र पौराणिक काल से ही प्रसिद्ध है. पुराणों में इसे पुरुषोत्तम क्षेत्र और समुद्र के तट पर होने से नीली आभा के कारण नीलांचल क्षेत्र के नाम से जाना जाता है. यहां भगवान जगन्नाथ, अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं. यहां यह बताना जरूरी हो जाता है कि भगवान विष्णु के दो नाम सबसे प्रसिद्ध और कल्याणकारी माने गए हैं, पहला तो है नारायण, जिसे श्रीसत्यनारायण कहा जाता है और दूसरा नाम है जगन्नाथ. जगत के स्वामी.
भगवान विष्णु का जगन्नाथ स्वरूप
भगवान विष्णु के जगन्नाथ नाम को प्रसिद्धि उनके कृ्ष्ण अवतार के बाद अधिक मिली, लेकिन पुराणों में उन्हें कई बार जगन्नाथ कहकर पुकारा गया है. नाथ संप्रदाय के संतों ने भगवान कृष्ण भक्ति के भजन गाए और यह सिलसिला 11वीं सदी से चला आ रहा है, इसलिए श्रीकृष्ण पहले चतुर्भुज श्यामल स्वरूप में नजर आते हैं और फिर जगन्नाथ स्वरूप में पुकारे जाते हैं और फिर उन्हें जगदीश्वर और जगदीश कहा जाता है.
श्रीकृष्ण के साथ सखा भाव वाली इस भक्ति का केंद्र राजस्थान रहा है, जहां उनके कई ऐसे भक्त रहे हैं, जिन्होंने किसी कठिन पूजा पद्धति के बजाय सिर्फ नाम जप और भगवान के भजन को ही अपनी पूजा माना और लगन से इस पूजा में लगे रहे. इसलिए राजस्थान के कई इलाकों में चतुर्भुज धारी श्रीकृष्ण सीधे महाविष्णु के तौर पर पूजे जाते हैं और जगन्नाथ कहलाते हैं.

भगवान जगन्नाथ के चार भुजा वाले स्वरूप के प्रमुख मंदिरों में से एक है उदयपुर का प्रसिद्ध जगदीश मंदिर. झीलों की नगरी के मध्य में मौजूद यह मंदिर अपने आप में 400 सालों का इतिहास समेटे हुए है. साथ ही शहर की समृद्ध विरासत और स्थापत्य भव्यता का एक शानदार प्रमाण है. भगवान विष्णु के जगन्नाथ स्वरूप को समर्पित यह मंदिर एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल और सांस्कृतिक चिह्न है, जो दुनिया भर से तीर्थयात्रियों, इतिहासकारों और पर्यटकों को आकर्षित करता है.
साल 1651 में हुआ था निर्माण
इसका निर्माण 1651 में महाराणा जगत सिंह प्रथम द्वारा किया गया था और यह इंडो-आर्यन शैली का एक उत्कृष्ट नमूना है. तीन मंजिलों में निर्मित संरचना में सुंदर नक्काशी और उभरी हुई मूर्तियां इसे और भी आकर्षक बनाती हैं. उदयपुर के पुराने शहर परिसर में बना यह मंदिर लगभग 79 फीट ऊंचा है और इसमें एक पिरामिड/मंडप जैसा केंद्रीय शिखर है. मंदिर के बाहरी हिस्से पर हाथियों, नर्तकों और संगीतकारों की जटिल नक्काशी देखने को मिलती है. मंदिर के गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ विष्णु की काले पत्थर की मूर्ति, जो जगन्नाथ (विश्व के स्वामी) के रूप में पूजी जाती है, स्थापित है.
मंदिर की खास बात यह है कि जिस दौरान पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा निकलती है, ठीक उसी दिन यहां भी जगन्नाथ स्वामी रथ यात्रा पर निकलते हैं, हालांकि वह किसी गुंडिचा मंदिर नहीं जाते हैं, बल्कि भगवान का यह भ्रमण नगर यात्रा की तरह होता है, जिसमें वह भक्तों के बीच पधारते हैं. मंदिर के नित्य पूजा कर्म से जुड़े आचार्य विनोद जी महाराज बताते हैं कि, 'प्रभु जगन्नाथ स्वामी जगदीश मंदिर की स्थापना विक्रम संवत 1907 मैं वैशाख पूर्णिमा के दिन हुई तब से परंपरागत तरीके से प्रभु की रथयात्रा निकलती आ रही है. उदयपुर के नाथद्वारा से विधायक और मेवाड़ वंश से ताल्लुक रखने वाले विश्वराज सिंह मेवाड़ का परिवार यह परंपरा निभा रहा है.

पहले ऊंट गाड़ी पर निकाली जाती थी यात्रा
वह बताते हैं कि पहले यह यात्रा परिक्रमा स्वरूप होती थी, लेकिन तकरीबन 30 साल पहले प्रभु इच्छा से इस आयोजन को जगन्नाथ रथयात्रा की ही तरह स्वरूप दिया गया. पुजारी परिवार ने श्रद्धालुओं के साथ 1996 में परंपरागत रथ को ऊंटगाड़ी पर रख कर लगभग 6 साल तक नगर भ्रमण कराया गया. साल 2002 में श्रद्धालुओं ने मिलकर भगवान के लिए 25 किलो चांदी से रजत रथ का निर्माण कराया और फिर प्रभु जगन्नाथ रथयात्रा रजत रथ में निकले. इससे पहले भगवान के श्रीविग्रह को मंदिर परिसर में चांदी के हिंडोले में रखकर परिक्रमा कराई जाती रही है.
वह बताते हैं कि अभी दो साल पहले पुराने रथ का जीर्णोद्धार करते हुए 80 किलो चांदी का रथ बनवाया गया और अब प्रभु इसी रजत रथ में अपने भक्तों के बीच आते हैं. आज भी परंपरागत रूप से रथ पहले मंदिर परिक्रमा में निकलता है, जिसमें राधा कृष्ण विराजमान होते हैं. उसके बाद प्रभु जगन्नाथ नगर भ्रमण पर निकलते हैं जिसमें उत्सव विग्रह को विराजमान कराया जाता है जो हूबहू प्रभु की प्रतिमा का ही प्रतिरूप है. मूल विग्रह मंदिर में स्थापित है. इस दौरान पूरा उदयपुर उमड़ता है और रथयात्रा के आत्मिक क्षण को अनुभव करता है.