इस वक्त हिंदी माह का मार्गशीर्ष मास चल रहा है. पुराणों में इस महीने को भगवान विष्णु का ही प्रतीक बताया गया है. इस महीने में भगवान विष्णु की पूजा करने, दामोदर सूत्र का पाठ करने और गऊ सेवा करने का अपार फल बताया गया है. गऊ सेवा करने का महत्व तो इतना अधिक है कि वह निःसंतान दंपती को संतान सुख दे सकती है. पुराणों में इससे संबंधित एक कथा भी आती है, जो श्रीराम के वंश से जाकर जु़ड़ती है, बल्कि इसी कथा के कारण श्रीराम के वंश का नाम रघुवंश पड़ा है.
भगवान श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप की कथा
भगवान श्रीराम के पूर्वजों में एक नाम राजा दिलीप का आता है. राजा दिलीप बड़े ही धर्मपरायण, गुणवान, बुद्धिमान और धनवान थे. उन्हें बस एक ही दुख था कि उनकी कोई संतान नहीं थी. सभी उपाय करने के बाद भी जब कोई सफलता नहीं मिली तो राजा दिलीप अपनी पत्नी सुदक्षिणा को लेकर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम संतान प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे.
महर्षि वशिष्ठ ने राजा का आथित्य सत्कार किया और आने का प्रयोजन पूछा तो राजा ने अपने निसंतान होने की बात बताई. तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ हे राजन ! तुमसे एक अपराध हुआ है, इसलिए तुम्हारी अभी तक कोई संतान नहीं हुई है.” तब राजा दिलीप ने आश्चर्य से पूछा – “ गुरुदेव! मुझसे ऐसा कोनसा अपराध हुआ है कि मैं अब तक निसंतान हूँ. कृपा करके मुझे बताइए ?”
महर्षि वशिष्ठ बोले – “ राजन! एक बार की बात है, जब तुम देवताओं की एक युद्ध में सहायता करके लौट रहे थे. तब रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष के नीचे देवताओं को भोग और मोक्ष देने वाली कामधेनु विश्राम कर रही थी और उनकी सहचरी गऊ मातायें निकट ही चर रही थीं. तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने शीघ्रतावश अपना विमान रोककर उन्हें प्रणाम नहीं किया. जबकि राजन ! यदि रास्ते में कहीं भी गौवंश दिखे तो दायीं ओर होकर राह देते हुए उन्हें प्रणाम करना चाहिए.
यह बात तुम्हे गुरुजनों द्वारा पूर्वकाल में ही बताई जा चुकी थी, लेकिन फिर भी तुमने गौवंश का अपमान और गुरु आज्ञा का उलंघन किया है. इसीलिए राजन ! तुम्हारे घर में अभी तक कोई संतान नहीं हुई.” महर्षि वशिष्ठ की बात सुनकर राजा दिलीप बड़े दुखी हुए. विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर राजा दिलीप गुरु वशिष्ठ से प्रार्थना करने लगे – “ गुरुदेव ! मैं मानता हूं कि मुझसे अपराध हुआ है किन्तु अब इसका कोई तो उपाय होगा ?”
ऋषि वशिष्ठ ने बताया उपाय
तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ एक उपाय है राजन ! ये है मेरी गाय नंदिनी है जो कामधेनु की ही पुत्री है. इसे ले जाओ और इसके संतुष्ट होने तक दोनों पति–पत्नी इसकी सेवा करो और इसी के दूध का सेवन करो. जब यह संतुष्ट होगी तो तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी.” ऐसा आशीर्वाद देकर महर्षि वशिष्ठ ने राजा दिलीप को विदा किया. अब राजा दिलीप प्राण – प्रण से नंदिनी की सेवा में लग गये. जब नंदिनी चलती तो वह भी उसी के साथ – साथ चलते, जब वह रुक जाती तो वह भी रुक जाते. दिनभर उसे चराकर संध्या को उसके दुग्ध का सेवन करके उसी पर निर्वाह करते थे.
एक दिन संयोग से एक सिंह ने नंदिनी पर आक्रमण कर दिया और उसे दबोच लिया. उस समय राजा दिलीप कोई अस्त्र – शस्त्र चलाने में भी असमर्थ हो गया. कोई उपाय न देख राजा दिलीप सिंह से प्रार्थना करने लगे – “ हे वनराज ! कृपा करके नंदिनी को छोड़ दीजिये, यह मेरे गुरु वशिष्ठ की सबसे प्रिय गाय है. मैं आपके भोजन की अन्य व्यवस्था कर दूंगा.” तो सिंह बोला – “नहीं राजन ! यह गाय मेरा भोजन है अतः मैं उसे नहीं छोडूंगा. इसके बदले तुम अपने गुरु को सहस्त्रो गायें दे सकते हो.”
बिलकुल निर्बल होते हुए राजा दिलीप बोले – “ हे वनराज ! आप इसके बदले मुझे खा लो, लेकिन मेरे गुरु की गाय नंदिनी को छोड़ दो.”
तब सिंह बोला – “यदि तुम्हें प्राणों का मोह नहीं है तो इसके बदले स्वयं को प्रस्तुत करो. मैं इसे अभी छोड़ दूंगा.” कोई उपाय न देख राजा दिलीप ने सिंह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और स्वयं सिंह का आहार बनने के लिए तैयार हो गया. सिंह ने नंदिनी गाय को छोड़ दिया और राजा को खाने के लिए उसकी ओर झपटा, लेकिन उसी समय हवा में गायब हो गया.
नंदिनी गाय ने ली थी परीक्षा
तब नंदिनी गाय बोली – “ उठो राजन ! यह मायाजाल, मैंने ही आपकी परीक्षा लेने के लिए रचा था. जाओ राजन! तुम दोनों दंपती ने मेरा ही दूध पीया है, इसलिए तुम्हें एक गुणवान, बलवान और बुद्धिमान पुत्र की प्राप्ति होगी.” इतना कहकर नंदिनी अंतर्धान हो गई.
उसके कुछ दिन बाद नंदिनी के आशीर्वाद से महारानी सुदक्षिणा ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो राजा रघु के नाम से विख्यात हुआ और उसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है. राजा दिलीप ने मार्गशीर्ष मास में ही गऊसेवा की थी इसलिए उन्हें इसका मनवांछित फल प्राप्त हुआ था.