Who Was Salabega: भगवान जगन्नाथ की लीला और लोककथाओं का कोई अंत नहीं है. जिस तरह ये कथाएं असीमित हैं, ठीक वैसे ही उनकी भक्तों की कथाएं भी अनगिनत हैं. भगवान जगन्नाथ इतने सरल इतने सर्वसुलभ हैं कि उनका भक्त कोई भी हो सकता है. इस बात को एक प्रचलित लोककथा से भी बल मिलता है, जब महाप्रभु की रथयात्रा का रथ एक भक्त की पुकार पर रुक गया था. उनके इस महान भक्त का नाम था सालबेग.
पुरी की गलियों में सालबेग भक्त का नाम बहुत ही महान भक्तों में शुमार है. कहते हैं कि पुरी मंदिर से गुंडिचा मंदिर मार्ग पर ही भक्त सालबेग की मजार है. महाप्रभु जगन्नाथ का रथ उनकी मजार के सामने जाकर रुक जाता है. इसकी जैसी कहानी लोगों के बीच प्रचलित है, उसका वैसा ही स्वरूप यहां पर दिया जा रहा है.
एक बार की बात है. जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा चल पड़ी थी. जय जगन्नाथ के जयघोष से सारा आकाश गूंज रहा था. श्रीमंदिर से लेकर गुंडीचा धाम तक तिल रखने भर की जगह नहीं थी. रथयात्रा का यह मंजर देखते ही बनता था. लेकिन... यह क्या? श्रीमंदिर से रथ कुछ दूर ही आगे बढ़ा कि अचानक एक स्थान पर आकर रुक गया. सभी आश्चर्य में पड़ गए. अभी तक सहज चलता हुआ यह रथ आगे ही नहीं बढ़ रहा था. भक्तों की भीड़ ने सोचा शायद वह रस्से खींचने में कमजोर पड़ गए हों. इसलिए उन्होंने जोर देकर फिर से रथ खींचा,
लेकिन न रथ अपनी जगह से हिला और न ही यात्रा आगे बढ़े. अब तमाम कानाफूसी शुरू हो गई. कोई चमत्कार मान रहा था तो कोई आश्चर्य. सबसे ज्यादा आवाजें इस बात की थी- क्या प्रभु जगन्नाथ नाराज हो गए हैं? दंड के डर की बजाय आस्था में लगा भय कहीं अधिक बड़ा हो जाता है. श्रद्धालु बार-बार कोशिश करते और रस्से को खींचते लेकिन रथ था कि आगे बढ़ता ही नहीं था. कहते हैं कि इसी बीच कोई बूढ़ा लाठी टेकता, भीड़ के बीच से मुख्य रथ के सामने आ पहुंचा और उसने रस्से खींच रहे श्रद्धालुओं से कहा- मैं रथ को आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकता हूं,
बस मेरी बात मानिए. रस्से खींचने वालों ने एक बार उसके बूढ़े कमजोर शरीर को देखा, लेकिन उसकी आवाज में कोई जादू था, जिसने सभी को उसकी बात मानने के लिए विवश कर दिया.
बूढ़े व्यक्ति ने कुछ कहा नहीं. बस उंगली से सामने की ओर इशारा कर दिया. उस दिशा में एक मजार थी. बूढ़े ने कान में कुछ फुसफुसाया- तो भीड़ की आंखों में चमक दौड़ गई. एक बार जोर से जयघोष हुआ जय जगन्नाथ, और इसे ठीक बाद आवाज आई, जय भक्त सालबेग. इतना कहते ही रथ के चक्के अनायास ही घूम गए और रथयात्रा जय जगन्नाथ, जय सालबेग के जय घोष के साथ बढ़ने लगी.
ओडिशा के पुरी में गलियों-गलियों में यह दंत कथा बहुत प्रचलित है और इसके होने का समय मुगलकाल का बताया जाता है. जगन्नाथ रथ यात्रा से जुड़कर यह कहानी विदेशों तक घूम आई है. हर साल लाखों की संख्या में जगन्नाथ के भक्त पुरी पहुंचते हैं और इस दृश्य के साक्षी बनते हैं कि तकरीब 500 साल से एक हिंदू-सनातनी परंपरा में कैसे एक मुस्लिम आस्था जुड़ गई है? हर साल सालबेग भगत की मजार पर रथ जरूर रुकता है. कौन हैं यह भगत सालबेग?
सालबेग कैसे बना जगन्नाथ का भक्त
इस सवाल के जवाब में बताने वाले बताते हैं कि बात तब की है, जब भारत में मुगलों का शासन था. इसी मुगल सेना में सालबेग नाम का एक वीर सिपाही था. मुस्लिम पिता और हिंदू मां का बेटा सालबेग, जितना खुदा को मानता उतनी ही भगवान में आस्था रखता. एक बार किसी जंग में सालबेग के सिर में गहरी चोट लग गई. घायल हो जाने की वजह से वह अब सेना में नहीं था. बेटे की निराशा देख सालबेग की मां ने उससे कहा- तू जगन्नाथ प्रभु की शरण ले और ऐसा कहकर मां ने प्रभु की महिमा की कई कथाएं सुनाईं. यह कथाएं सुनकर सालबेग के मन में प्रभु दर्शन की इच्छा हुई.
ऐसी इच्छा लिए सालबेग एक दिन पुरी स्थित जगन्नाथ धाम पहुंच गया. वहां वह मंदिर में प्रवेश करने लगा तो गैर धर्म का होने के कारण उसे अनुमति नहीं मिली. वह निराश हो गया तो मां ने कहा कि तू बाहर ही रहकर प्रभु का नाम ले. अगर तेरी भक्ति सच्ची होगी तो जगन्नाथ खुद तेरे द्वार पर आएंगे. वे जरूर आते हैं. सालबेग ने यह बात गांठ बांध ली. इस तरह रथयात्रा के रास्ते में ही उसने एक मठिया बना ली और वहीं रहकर जय जगन्नाथ का भजन करने लगा.
कहते हैं कि उसकी भक्ति देखकर जगन्नाथ प्रभु ने उसे सपने में दर्शन दिए और उसी दिन सालबेग इस दुनिया का नहीं रहा. कहते हैं कि जाते-जाते सालबेग ने कहा- आप मेरे पास तो आए ही नहीं, तब जगन्नाथ स्वामी ने कहा- अब से मेरा रथ बिना तुम्हारे द्वार पर रुके आगे नहीं बढ़ेगा. यह सिलसिला आज तक जारी है. रथयात्रा निकलती है और भक्त सालबेग की मजार पर विश्राम के बाद ही आगे बढ़ती है.